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Tuesday, October 31, 2017

सरदार पटेल से कांग्रेस का विलगाव?



आज सुबह के टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दू समेत काफी अखबारों में पहले सफे पर कांग्रेस पार्टी की ओर से जारी एक विज्ञापन में श्रीमती इंदिरा गांधी को श्रद्धांजलि दी गई है। ज्यादातर अखबारों में दूसरे पेज पर भारत सरकार के एक विज्ञापन में राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में सरदार वल्लभ भाई पटेल को श्रद्धांजलि दी गई है। आज श्रीमती गांधी की पुण्यतिथि थी और सरदार पटेल का जन्मदिन। किसी को आश्चर्य इस बात पर नहीं हुआ कि कांग्रेस पार्टी ने पटेल को याद क्यों नहीं किया। हालांकि कभी किसी ने नहीं कहा कि सरदार पटेल इंदिरा गांधी से कमतर नेता थे या राष्ट्रीय पुनर्गठन में उनकी भूमिका कमतर थी। पर इस बात पर ध्यान तो जाता ही है। खासतौर से इस बात पर कि बीजेपी ने सरदार पटेल को अंगीकार किया है। 

नरेन्द्र मोदी ने 2014 के चुनाव के पहले से ही पटेल को अपना नेता घोषित कर दिया था। सन 2013 में वल्लभ भाई पटेल की विरासत को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच तनातनी भी चली थी। तब बात भी आई कि पटेल को 1991 में भारत रत्न मिला राजीव गांधी के साथ। जवाहर लाल नेहरू को 1955 में गोविंद बल्लभ पंत को 1957, विधान चन्द्र रॉय को 1961, राजेन्द्र प्रसाद को 1962, लाल बहादुर शास्त्री को 1966, इंदिरा गांधी को 1971, वीवी गिरि को 1975, के कामराज को 1976, एमजी रामचंद्रन को 1988 और भीमराव आम्बेडकर को 1990 में यह सम्मान मिला। नेहरू और इंदिरा गांधी को उनकी अपनी ही सरकार ने यह सम्मान दिया था।

आज के हिन्दू अख़बार के सम्पादकीय पेज पर गोपालकृष्ण गांधी का सरदार पटेल पर एक लेख छपा है। इसका शीर्षक है ‘Sardar Patel, a shared inheritance.’ (सरदार पटेल, एक साझा विरासत)। लेख सामान्य है और इसमें गोपालकृष्ण गांधी ने बताने का प्रयास किया है कि सरदार पटेल पूरे देश के और समुदाय के नेता थे। उन्होंने इस लेख में एक लाइन में यह भी कहा कि सरदार पटेल और नेहरू के बीच कुछ असहमतियाँ भी थीं, पर दोनों के बीच गहरा परस्पर विश्वास था। उस वक्त की कांग्रेस के नेताओं का नाम लेते हुए उन्होंने लिखा है कि सभी नेता विशिष्ट थे। सरदार पटेल और नेहरू के विवाद स्पष्ट रहे हैं। और यह भी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति पटेल का नजरिया अपेक्षाकृत नरम था।

गोपालकृष्ण गांधी के इस लेख का अंतिम भाग महत्वपूर्ण है, जिसपर वे जोर देना चाहते हैं। मेरी समझ से उनके लेख का विषय यही था, जिसपर उन्होंने ज्यादा जोर नहीं दिया। उन्होंने लिखा कि जाने अनजाने कांग्रेस का पटेल से विलगाव गलती थी, और हिन्दुत्व का सोच-समझकर उन्हें अंगीकार करना अभिशाप है। इस लेख के निम्नलिखित अंतिम दो-तीन पैरा ध्यान देने लायक हैं:-

Four days after Gandhi’s assassination, in a letter to his senior in politics, in the party and in age, Nehru wrote: “With Bapu’s death everything is changed… I have been greatly distressed by the persistence of whispers and rumours about you and me, magnifying out of all proportion any difference we may have.”

Patel replied on May 5, 1948: “ I am deeply touched…We both have been lifelong comrades in a common cause. The paramount interests of our country and our mutual love and regard, transcending such differences of outlook and temperament as existed, have held us together.”

The very previous day, addressing the Congress Party in the Constituent Assembly, Patel described Nehru as “my leader” and said: “I am one with the Prime Minister on all national issues. For over a quarter of a century, both of us sat at the feet of our master and struggled together for the freedom of India. It is unthinkable today, when the Mahatma is no more, that we should quarrel.”

The Congress’s rank and file should ponder these observations of Nehru and Patel and rectify years of neglect, post-Nehru, of the Sardar’s legacy at the false altar of political cronyism. That neglect has lubricated the crassly opportunistic co-option of Patel by the Hindu Right which has no right, logical, political or moral, to that legacy. What the Congress squandered, Hindutva is shovelling in.

The Congress’s unwitting de-option of Patel was an error, Hindutva’s calculated co-option of Patel is an execration.

‘India first’ believers should be aware of both.
गोपाल कृष्ण गांधी का पूरा लेख यहाँ पढ़ा जा सकता है

क्या वाकई संघ से हमदर्दी रखते थे सरदार

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