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Friday, October 13, 2017

आरुषि कांड: क्या अब न्याय हो गया?

26 नवंबर 2013 को जब गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत आरुषि-हेमराज हत्याकांड के आरोप में आरुषि के माता-पिता राजेश और नूपुर तलवार को आईपीसी की धारा- 302 के तहत उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी, तब सवाल उठा था कि क्या वास्तव में इस मामले में न्याय हो गया है? फैसले के बाद राजेश और नूपुर तलवार की ओर से मीडिया में एक बयान जारी किया गया,  'हम इस फैसले से बहुत दुखी हैं. हमें एक ऐसे जुर्म के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है, जो हमने किया ही नहीं. लेकिन हम हार नहीं मानेंगे और न्याय के लिए लड़ाई जारी रखेंगे.' ट्रायल कोर्ट के फैसले के चार साल बाद अब जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तलवार दम्पति को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया है, तब फिर सवाल उठा है कि क्या अब न्याय हुआ है?

सामान्य न्याय सिद्धांत है कि कानून की पकड़ से भले ही सौ अपराधी बच जाएं, पर एक निर्दोष को सज़ा नहीं होनी चाहिए. आपराधिक मामलों में अदालतों का सबसे ज्यादा जोर साक्ष्य पर होता है. सन 2008 में 14 साल की आरुषि की मौत ने देशभर का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. वह पहेली अब तक नहीं सुलझी है. घूम-फिरकर सवाल किया जाता है कि आरुषि की हत्या किसने की? यह मामला जाँच की उलझनों में फँसता चला गया. 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले का विस्तृत विवरण पूरी तरह सामने नहीं आया है. इसलिए बहुत कुछ अभी कहना संभव नहीं, पर इतना साफ है कि हत्यारे का पता लगाना जाँच एजेंसियों का काम है. इस मामले में चूक हुई तो उसकी जिम्मेदारी पुलिस और सीबीआई की है. पहले नोएडा पुलिस ने तेजी से घोषणा कर दी थी कि दोषी कौन है. सीबीआई की जाँच में वह धारणा पूरी तरह बदल गई. इसके बाद सीबीआई की जाँच टीम बदल दी गई और उसने पिछली टीम की अवधारणा को पूरी तरह बदल दिया. देखा जाए तो यह जाँच अपने आप में मजाक थी. सीबीआई की दोनों टीमें असाधारण और विशेष थीं.

सीबीआई की दूसरी टीम ने जो थ्योरी बनाई उसके पक्ष में उसके पास साक्ष्य नहीं थे. यह केस क्लोजर स्टेज पर था कि आरुषि के माता-पिता ने आग्रह किया कि इसकी जाँच होनी चाहिए कि हत्या किसने की. यह अर्जी उनके खिलाफ गई और उसके बाद केस का फैसला परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर हुआ. हाईकोर्ट के फैसले में इन फैसलों पर भी टिप्पणी है या नहीं, यह देखना होगा.

परिस्थितिजन्य साक्ष्य तभी अचूक माने जाते हैं, जब उनमें किसी किस्म का संदेह नहीं हो. हाईकोर्ट के फैसले का विवरण आने पर स्पष्ट होगा कि तलवार दम्पति को किस प्रकार के संदेह का लाभ मिला, पर इतना साफ जाहिर हो रहा है कि उनके खिलाफ परिस्थितिजन्य साक्ष्य में संदेह की संभावनाएं थीं. अपराध से जुड़ी एक और थ्योरी थी तो उसके पीछे भी कोई आधार था.  

आरुषि मामले ने जिस एक और वजह से देश का ध्यान खींचा वह था मीडिया ट्रायल. हत्याकांड शुरू से ही सुर्खियों में ही था जब तलवार दंपति पर ही उंगलियां उठने लगीं. टीवी चैनलों के स्टूडियो अदालतों में तबदील हो गए. अनेक विशेषज्ञों ने, जिनमें प्रसिद्ध लेखिका शोभा डे भी शामिल थीं,  तलवार दंपति के खिलाफ साफ फैसला सुना दिया. इस परिवार के चाल-चलन पर सवाल उठाए गए. कुछ वीडियो भी उन दिनों वायरल हुए.

उन्हीं दिनों तलवार दम्पति के पक्ष में भी कुछ पत्रकार सामने आए. खासतौर से शोमा चौधरी ने लम्बे आलेख लिखे, जिनमें कहानी के दूसरे पहलू की ओर भी ध्यान दिलाया गया. पत्रकार अविरूक सेन ने आरुषि नाम से एक किताब लिखी, जिसमें सीबीआई की थ्योरी पर सवाल उठाए गए. अविरूक सेन का कहना है मेरी इस मामले के बारे में कोई राय नहीं थी, पर पूरा मीडिया कहने लगा था कि माता-पिता ने ही ये अपराध किया होगा. इस बात ने जांच को प्रभावित किया ही होगा. इस बात ने मेरा ध्यान खींचा.

आरुषि मामले के मीडिया ट्रायल के काफी समय बाद इस साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने अभियुक्तों के मीडिया ट्रायल पर चिंता भी जताई है. अदालत ने कहा कि पुलिस की ओर से मीडिया को जानकारी देने के बारे में अदालत गाइडलाइन बनाएगी. पर सच यह है कि पुलिस वाहवाही लूटने के चक्कर में जाँच का प्रचार करती है और यह भूल जाती है कि इससे न्याय-भावना प्रभावित होती है.

 अविरूक सेन ने सीबीआई की जांच प्रक्रिया पर सवाल उठाए और तलवार दंपति का बचाव किया है. उनके मुताबिक सीबीआई ने घटनास्थल पर जो नमूने इकट्ठा किए और प्रयोगशाला भेजे, उनके साथ छेड़खानी की गई. घटनास्थल की तस्वीरों के साथ छेड़छाड़ हुई. हैदराबाद की सेंटर फॉर डीएनए फिंगर-प्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक लैब की रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा गया होता तो तलवार दंपति के उस कथन को मज़बूती मिलती कि घर में कोई बाहरी व्यक्ति दाखिल हुआ. उन्होंने सीबीआई की रिपोर्ट की विसंगतियों की तरफ भी ध्यान दिलाया.

फैसले को पढ़ने के बाद पता लगेगा कि हाईकोर्ट ने जाँच की विसंगतियों की तरफ इशारा किया है या नहीं. बहरहाल केस अब एक दौर से बाहर आ चुका है. सीबीआई और राज्य सरकार अब इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी या नहीं यह देखने की बात होगी. सवाल यह भी है कि क्या इस मामले की फिर से जाँच की जा सकती है? कुछ विधि विशेषज्ञों का कहना है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173(8) के तहत दुबारा जाँच भी कराने की व्यवस्था संभव है, पर व्यावहारिक रूप से क्या अब जाँच संभव है? पिछले नौ साल में साक्ष्यों का काफी क्षय हो चुका होगा.

एक पक्ष माता-पिता का भी है. राजेश तलवार और नूपुर तलवार के नज़रिए से देखें तो उनकी दुनिया वैसे ही उजड़ चुकी है. उन्होंने न सिर्फ अपनी बेटी को खोया, बल्कि उसकी हत्या का कलंक भी उनके ऊपर आया. संभव है कभी कुछ बातों से रहस्य का पर्दा उठे. न्याय तो तभी होगा जब पता लगेगा कि आरुषि की हत्या किसने की, क्यों की और उसे सज़ा मिले. 
inext में प्रकाशित

इस सिलसिले में मेरी एक पुरानी पोस्ट और कुछ लिंक

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