वायु
सेना के मार्शल अर्जन सिंह के अंतिम संस्कार के समय सरकारी व्यवस्था पर प्रेक्षकों
ने खासतौर से ध्यान दिया है. उनके अंतिम संस्कार के पहले रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन
ने बरार स्क्वायर पहुंच कर उन्हें अंतिम विदाई दी. रविवार को प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी ने उनके घर जाकर श्रद्धांजलि दी. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने
भी बरार स्क्वायर पहुंच कर श्रद्धांजलि दी. सेना के तीनों अंगों के प्रमुख भी उन्हें
अंतिम विदाई देने के लिए मौजूद रहे. तमाम केन्द्रीय मंत्री और अधिकारी उन्हें
श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुँचे. मीडिया ने काफी व्यापक कवरेज दी.
अर्जन
सिंह भारतीय वायुसेना के एकमात्र मार्शल थे. उन्हें ऐसी विदाई देना या राष्ट्रीय
शोक मनाना स्वाभाविक है. इस दौरान जिस बात पर ध्यान दिया गया वह यह थी कि सन 2008
में फील्ड मार्शल
सैम मानेकशॉ के अंतिम संस्कार के समय रक्षामंत्री सहित कोई भी वरिष्ठ मंत्री और
तीनों सेनाओं के अध्यक्षों में से कोई भी उपस्थित नहीं था. इस बात को लेकर मार्शल
अर्जन सिंह ने तब आपत्ति व्यक्त की थी और कहा था कि सरकार को प्रोटोकॉल भूलकर अंतिम
संस्कार में शामिल होना चाहिए था.
अर्जन सिंह ने ही बताया था कि सन 1993 में पूर्व
सेनाध्यक्ष फील्ड मार्शल केएम करियप्पा के अंतिम संस्कार के समय रक्षामंत्री और
तीनों सेनाओं के प्रमुख उपस्थित थे, जबकि प्रोटोकॉल में फील्ड मार्शल का नाम नहीं
था. शायद उसके बाद किसी ने प्रोटोकॉल की बात उठाई और यह प्रोटोकॉल मानेकशॉ के
अंतिम संस्कार के समय सरकारी व्यवस्था पर हावी नजर आया. अर्जन सिंह की तरह मानेकशॉ
भी उस वक्त अकेले फील्ड मार्शल थे और स्वतंत्रता के बाद के सबसे लोकप्रिय
सेनाधिकारियों में से एक थे.
उस वक्त तक भी प्रोटोकॉल में फील्ड मार्शल का नाम नहीं
था. बहरहाल सन 2012 में प्रोटोकॉल में संशोधन किया गया और मानेकशॉ की स्मृति में
हुए कार्यक्रम में तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटनी उपस्थित हुए. अर्जन सिंह ने
2008 में ही कहा था कि सरकार को ऐसे मौकों पर प्रोटोकॉल को भुला देना चाहिए. पर या
तो सरकार में किसी ने इस पहलू पर विचार नहीं किया या हिम्मत नहीं की. पर ऐसी बातों
से जनता के बीच संदेश जाता है.
इन दिनों बात-बात पर यूपीए और एनडीए की सरकारों के फर्क
को रेखांकित किया जा रहा है. इस बार भी कुछ लोगों ने सेना के सम्मान का सवाल उठाया
है. इस बार मार्शल अर्जन सिंह के अंतिम संस्कार को काफी हाइलाइट किया गया है. सेना
से जुड़ी औपचारिक नीतियों को सामान्यतः राजनीति से दूर रखा जाता है, पर अब यह रिश्ता
बनता जा रहा है.
मोदी सरकार फौजियों से रिश्ते अच्छे बनाकर रखती है. नरेन्द्र
मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के पहले से ही पूर्व सैनिकों के साथ संपर्क शुरू कर
दिया था. सन 2013 में जब उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया गया उन्होंने रेवाड़ी
में रैली की. लोकसभा चुनाव जीतने के बाद फिर रैली की. रेवाड़ी रैली के बाद पहली
बार ऐसा लगा कि सैनिकों के रोष का राजनीतिकरण हो रहा है.
उत्तर भारत के ग्रामीण समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा
पूर्व सैनिकों से जुड़ा है. देश में तकरीबन 25 से 30 लाख पूर्व सैनिक और पूर्व
सैनिकों की विधवाएं हैं. ये सैनिक पेंशन से अपना जीवन यापन करते हैं. सैनिकों की
हमारे सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है. इनके परिवार और मित्रों की संख्या
को जोड़ लें तो इनसे प्रभावित लोगों की तादाद करोड़ों में पहुँचती है. लोक-जीवन
में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है. वे जनमत बनाते हैं और समाज को क्रियाशील भी. मोदी
सरकार ने इनकी ‘वन रैंक, वन पेंशन’ माँग पूरी जरूर कर
दी, पर उसे लेकर कई तरह की शिकायतें अब भी कायम हैं.
भारतीय राजनीति में युद्ध की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
सन 1962 की लड़ाई से नेहरू की लोकप्रियता में कमी आई थी, जबकि 1965 और 1971 की
लड़ाइयों ने लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी का कद काफी ऊँचा कर दिया था.
करगिल युद्ध ने अटल बिहारी वाजपेयी को लाभ दिया. इसीलिए 28-29 सितम्बर 2016 की
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के निहितार्थ ने देश के राजनीतिक दलों एकबारगी सोच में डाल
दिया.
राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना की भूमिका को लेकर मोदी सरकार
काफी संवेदनशील है. कश्मीर समस्या के कारण सेना की भूमिका बढ़ी है. इसी वजह से ‘सर्जिकल
स्ट्राइक’ काफी समय तक राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनी. लम्बे समय तक
सरकार से सबूत माँगा गया. सोच यह था कि सरकार को इसका फायदा मिलेगा. विरोधी दलों
ने कहा, सरकार इसका श्रेय ले रही है, जबकि श्रेय सेना को मिलना चाहिए.
इधर सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत ने कई ऐसे बयान दिए हैं,
जो सेना की आक्रामक भूमिका को प्रकट करते हैं. माना जाता है कि सरकार भी यही चाहती
है. कश्मीर में जीप के आगे युवक को बाँधने के मामले का भी राजनीतिकरण हुआ. सेना और
सरकार ने उस मामले से जुड़े मेजर गोगोई का न केवल समर्थन किया, बल्कि कश्मीरी
आंदोलनकारियों चुनौती भी थी.
जनरल रावत ने कहा कि लोगों में सेना का डर खत्म होने पर
देश का विनाश हो जाता है. कई बार लगता है कि उनके स्वर राजनेता
जैसे हैं. उन्होंने इस साल जनवरी में कहा था कि सेना अब उन अलगाववादियों को भी
आतंकी मानेगी जो पाकिस्तान और इस्लामिक स्टेट के झंडे लहराते हैं. पिछले कुछ
महीनों से कश्मीर में एक-एक करके आतंकी कमांडर मारे जा रहे हैं. हाल में चीन के
साथ हुई तनातनी के कारण भी सेना की भूमिका चर्चा में रही.
इंदिरा गांधी की दुर्गा की छवि सन 1971 की लड़ाई के बाद
बनी. उस लड़ाई में इंदिरा गांधी का सेना के तीनों अध्यक्षों से काफी संवाद हुआ.
खासतौर से तत्कालीन जनरल मानेकशॉ के साथ. उस युद्ध के बाद सन 1973 में श्रीमती गांधी
ने उन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि दिलाई. सेना को लेकर भारतीय जनमानस की भावनाओं को
सरकार पहचानती है. अर्जन सिंह का सम्मान इसीलिए महत्वपूर्ण है.
inext में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment