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Sunday, September 10, 2017

एक्टिविज्म और पत्रकारिता का द्वंद्व


गौरी लंकेश की हत्या ने देश के वैचारिक परिदृश्य में हलचल मचा दी है। इस हत्या की भर्त्सना ज्यादातर पत्रकारों, उनकी संस्थाओं, कांग्रेस-बीजेपी समेत ज्यादातर राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने की है। यह मुख्यधारा के मीडिया का सौम्य पक्ष है। पर सोशल मीडिया में गदर मचा पड़ा है। तलवारें-कटारें खुलकर चल रहीं हैं। कई किस्म के गुबार फूट रहे हैं। हत्या के फौरन बाद दो अंतर्विरोधी प्रतिक्रियाएं प्रकट हुईं हैं। हत्या किसने की और क्यों की, इसका इंतजार किए बगैर एक तबके ने मोदी सरकार पर आरोपों की झड़ी लगा दी। दूसरी ओर कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर अभद्र और अश्लील तरीके से इस हत्या पर खुशी जाहिर की है।


चिंता की बात है कि विचार अभिव्यक्ति के कारण किसी की हत्या कर दी गई। पर यह पहले पत्रकार की हत्या नहीं है। वस्तुतः पत्रकारों की हत्या को हम महत्व देते ही नहीं हैं। इस वक्त की तीखी प्रतिक्रिया इसके राजनीतिक निहितार्थ के कारण है। हाल में हमारी पत्रकारिता पर दो किस्म के खतरे पैदा हुए हैं। पहला, जान का खतरा और दूसरा पत्रकारों का धड़ों में बदलते जाना। इसे भी खतरा मानिए। संदेह अलंकार का उदाहरण देते हुए कहा जाता है ...कि सारी ही की नारी है, कि नारी ही की सारी है। पत्रकारों की एक्टिविस्ट के रूप में और एक्टिविस्ट की पत्रकारों के रूप में भूमिका की अदला-बदली हो रही है।

पत्रकारों की संरक्षा के लिए बनी वैश्विक संस्था कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) का अनुमान है कि सन 1999 से 2017 के बीच भारत में जिन 67 पत्रकारों की हत्याओं का विवरण एकत्र किया गया है, उनमें से 40 की हत्या साफ-साफ पत्रकारिता से जुड़े लक्ष्य से की गई थी। पर यहाँ सज़ा किसी को नहीं होती। सीपीजे इम्प्यूनिटी इंडेक्स जारी करती है। यानी हत्या करने वालों का सज़ा पाने से बचा रहना। इस इंडेक्स में जिन 13 देशों को रखा गया है, उनमें भारत भी है।

गौरी लंकेश की हत्या पर हमारा ध्यान इसलिए गया, क्योंकि इसके बड़े राजनीतिक निहितार्थ हैं। बिहार, असम, छत्तीसगढ़ और सुदूर इलाकों में हो रही हत्याओं पर ध्यान नहीं जाता। अक्सर उनकी खबरें भी नहीं आतीं। पत्रकारों के संगठनों पर भी राजनीति की चादर चढ़ी है। गौरी लंकेश की हत्या के बाद दिल्ली के प्रेस क्लब में हुई सभा एक प्रकार से राजनीतिक सभा में तब्दील हो गई। तकरीबन यही स्थिति पिछले दिनों एनडीटीवी मामले को लेकर हुई सभा में पैदा हुई थी।

इस बीच प्रेस क्लब के परिसर में हुई एक छोटी सी घटना ने ध्यान खींचा है। जेएनयू छात्रों की नेता शहला रशीद कुछ पत्रकारों से बात कर रही थीं। उनके सामने खड़े पत्रकारों में रिपब्लिक टीवी के पत्रकार भी थे। शहला रशीद ने सभी पत्रकारों के सामने रिपब्लिक टीवी को खरी-खोटी सुनाई और कहा मैं इससे बात नहीं करना चाहती। उन्होंने टीवी संवाददाता को दफा हो जाने का आदेश दिया।

सामान्यतः पत्रकार किसी व्यक्ति से बात करने का निवेदन करे तो व्यक्ति को अधिकार है कि वह उससे बात करे या नहीं करे। पर शहला रशीद प्रेस क्लब के परिसर में थीं और सार्वजनिक रूप से अपनी राय दे रहीं थीं। बाद में अनेक सीनियर पत्रकारों ने शहला रशीद के आचरण की आलोचना की, पर उस मौके पर दूसरे पत्रकारों ने चूं नहीं की। चिंता की बात यह है। पत्रकारों के बीच भी पत्रकारीय मूल्यों को लेकर या तो एक राय नहीं है या चेतना नहीं है।

पत्रकारों की हत्या चिंता का अकेला कारण नहीं है। ज्यादा बड़ा कारण है साख का गिरना। मर्यादा-रेखाएं धुँधली होती जा रही हैं। सोशल मीडिया के प्रकट होने से भी यह फर्क आया है। हालांकि सोशल मीडिया के उदय के कारण बहुत सी बातें दबने से बच जाती हैं। मुख्यधारा के मीडिया में प्रकाशित नहीं होंगी तो सोशल मीडिया में आ जाएंगी। पर अब कहना मुश्किल होने लगा है कि सच क्या है और झूठ क्या है। तस्वीरें मॉर्फ होती हैं, वीडियो डॉक्टर्ड होते हैं। तथ्यों में काट-छाँट होती है। कहीं न कहीं कोई कुछ ऐसी बात कहता है, जिससे आपका खून खौलने लगता है। यही बातें पहले लोग नुक्कड़ों, पान की दुकानों और चाय के ठेलों पर करते थे और निकल जाते थे।

आज सोशल मीडिया हमारे नुक्कड़ों से भी ज्यादा खुला मंच बन गया है। जबकि प्रिंट मीडिया के पास मॉडरेशन या गेटकीपरों के मार्फत काम करने की परंपरा है। इस गेटकीपिंग में ऑब्जेक्टिविटी और बैलेंस की ध्यान रखने पर जोर है। भले ही प्रिंट मीडिया के काम का गुणात्मक ह्रास हुआ है, पर परंपराएं खत्म नहीं हुईं हैं। पर सोशल मीडिया में खुला खेल फर्रुखाबादी है। इतना ही काफी नहीं, इस खेल में एक्टिविस्टों के कूद पड़ने के बाद हालात और बिगड़े हैं।

हमारी पत्रकारिता स्वतंत्रता आंदोलन से निकली है, जो अपने आप में सबसे बड़ा एक्टिविज्म था। पत्रकार तो गांधी भी थे। आजादी के बाद के पहले तीन दशकों में ऑब्जेक्टिविटी और फेयरनेस जैसी बातों का ध्यान रखने की कोशिश की गई, क्योंकि पत्रकारिता के विषय बढ़ गए थे। इमर्जेंसी के पहले तक की पत्रकारिता काफी हद तक एक्टिविज्म से मुक्त थी। इमर्जेंसी के बाद अचानक पत्रकारिता में एक्टिविज्म का प्रवेश हुआ। उसी दौर में भारतीय भाषाओं के, खासतौर से हिंदी के अखबारों का प्रसार बढ़ा। उन्हीं दिनों भारतीय समाज के अंदरूनी टकराव बढ़े। उन टकरावों के इर्द-गिर्द राजनीतिक गतिविधियाँ भी बढ़ीं।

पत्रकार को एक्टिविस्ट होना चाहिए या नहीं, इसे लेकर अलग बहस है। अलबत्ता उसकी विभाजक रेखा खींचना काफी मुश्किल है। सारी बातें एकदम ब्लैक एंड ह्वाइट नहीं हैं, पर इसके दो छोर और दो उद्देश्य हैं। आप मूलतः पत्रकार हैं और व्यापक सामाजिक हित में एक्टिविस्ट के रूप में काम करते हैं। या बुनियादी तौर पर एक्टिविस्ट हैं और पत्रकारिता के सहारे अपना लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। बीच में तमाम ग्रे-शेड्स हैं। एक्टिविस्ट के इरादे भी व्यापक सामाजिक हित में ही होते हैं। पत्रकार पर दो विपरीत बातों को भी अपने पाठकों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी है। उन बातों को भी, जिनसे वह असहमत है। यह जिम्मेदारी एक्टिविस्ट की नहीं है। सीपीएम को भी अपना अख़बार निकालने का हक है और आरएसएस को भी। ऐसे अख़बार केवल अपनी राय को ही सामने रखते हैं। उनकी पहचान उसी रूप में है। बहरहाल रेखा खींचना सरल काम नहीं है। अब तो तटस्थता की इस धारणा का मजाक भी बनने लगा है। पर यह संभव है।

बहरहाल पिछले चार दशक में इमर्जेंसी, जनता राज, पंजाब आंदोलन, नक्सली आंदोलन, मंडल-कमंडल, 1984 के सिख दंगों और 2002 के गुजरात दंगों वगैरह-वगैरह ने इस पत्रकारिता में कई तरह के राजनीतिक रंग भर दिए हैं। सन 2011-12 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने भी एक्टिविज्म को पत्रकारिता के रास्ते प्रकट होने का मौका दिया है। पत्रकार का वास्ता सक्रिय राजनीति से हमेशा रहा है। केवल राजनीति से नहीं, व्यापार, उद्योग, खेल और यहाँ तक कि अपराधों से भी उसका संपर्क रहता है। पर वह इन सबका पर्यवेक्षक है, भागीदार नहीं। आजादी के पहले तीस साल वह सायास इससे दूर रहा। पर पिछले चालीस साल में उसके भागीदार बनने की लालसा भी नजर आई है।

पिछले 40 साल में कहानी कहीं से कहीं पहुँच गई है। गौरी लंकेश की हत्या के बाद एक्टिविज्म और पत्रकारिता का जबर्दस्त अंतर्द्वंद्व उभर कर सामने आया है। यह अंतर्द्वंद्व बड़े खतरे का रूप भी ले सकता है। सबसे बड़ा डर है साख के डूब जाने का। पत्रकार और विज्ञापन लेखक के बीच के फर्क को बना रहना चाहिए। यकीनन दोनों एक नहीं हैं। विज्ञापन केवल साबुन, तेल-फुलेल का ही नहीं होता, विचारधारा का भी होता है। विचारधारा के कई रंग हैं। लाल है और भगवा भी। दूसरे रंग भी हैं। ध्यान दीजिए कि कौन बेच रहा है विचारधारा।
हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. असल में तो आज पत्रकार कम रह गए हैं व पक्षकार ज्यादा बन गए हैं , इसके पीछे धड़ेबाजी भी एक कारण रही है फलतः पत्रकारिता भी पक्षकारिता बन गयी है , लोगों की वैचारिक उद्विग्नता भी तीव्र हो गयी है कि उसे प्रकट करने में समय का इन्तजार जरा भी नहीं किया जाता , और उसी के परिणाम वश ये सब घटित होते है, रही सही कस्र राजनीतिक दल पूरी कर देते हैं

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