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Wednesday, August 9, 2017

ताजा करें अगस्त क्रांति की याद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ताजा 'मन की बात' में भारत छोड़ो आंदोलन का उल्लेख करते हुए कहा है कि देश की जनता को अस्वच्छता, गरीबी, आतंकवाद, जातिवाद और संप्रदायवाद को खत्म करने की शपथ लेनी चाहिए. यह बड़े मौके की बात है. उस आंदोलन को हम आज के हालात से जोड़ सकते हैं. हालांकि वह आंदोलन संगठित तरीके से नहीं चला, पर सन 1857 के बाद आजादी हासिल करने की सबसे जबर्दस्त कोशिश थी.

अगस्त क्रांति वास्तव में वह जनता के संकल्प का आंदोलन था, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व सलाखों के पीछे चला गया था और जनता आगे आ गई थी. जिस तरह पिछले साल सरकार ने नोटबंदी के परिणामों पर ज्यादा विचार किए बगैर फैसला किया था, तकरीबन वैसा ही सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का फैसला था. उस आंदोलन ने देश को फौरन आजाद नहीं कराया, पर विदेशी शासन की बुनियाद हिलाकर रख दी.

आंदोलन के शुरूआती दौर में ही तमाम बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हो गई थी. देसी रजवाड़े, मुस्लिम लीग, हिंदू संगठन और कम्युनिस्ट पार्टी इस आंदोलन के साथ नहीं थे. कांग्रेस के भीतर भी इसे लेकर सहमति नहीं थी. बहुत जल्द यह आंदोलन कमजोर पड़ गया. सन 1943 के बंगाल दुर्भिक्ष को देखते हुए औपचारिक रूप से इसे वापस भी ले लिया गया, पर इस आंदोलन ने देश में एक नई चेतना को जन्म दिया, जिसे आज फिर से जगाने की जरूरत है.  

आधुनिक भारत के इतिहास में वह गम्भीर विमर्श का दौर था. मार्च 1942 में ब्रिटिश सरकार ने युद्धकालीन कैबिनेट के एक मंत्री और वामपंथी राजनेता सर रिचर्ड स्टैफर्ड क्रिप्स को भारत भेजा ताकि राष्ट्रीय आंदोलन के दबाव को कम किया जा सके. दक्षिण पूर्व एशिया में जापानी सेनाएं अंग्रेजों की पिटाई करती हुई आगे बढ़ती जा रहीं थीं. अंग्रेज चाहते थे कि कांग्रेस पार्टी मान जाए और भारतीय जनता का सहयोग लड़ाई में मिले.

ब्रिटिश सरकार का कहना था कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद भारतीयों को सत्ता में भागीदारी दी जा सकेगी. पर कांग्रेस ने इस बीच पूर्ण स्वराज की माँग कर दी थी. 14 जुलाई को कांग्रेस कार्यसमिति ने वर्धा में फैसला कर लिया कि अब भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ा जाएगा. मुम्बई में 7 अगस्त से कांग्रेस महासमिति का सम्मेलन शुरू हुआ. 8 अगस्त को ग्वालिया टैंक मैदान में महात्मा गांधी ने अंग्रेजो भारत छोड़ो की घोषणा कर दी. उसी रात तमाम नेता गिरफ्तार कर लिए गए. 9 अगस्त को अरुणा आसफ अली ने बचे हुए लोगों को साथ लेकर झंडा फहराया.

गांधी जी ने 9 अगस्त का दिन सोच-समझकर तय किया था. 9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने लखनऊ के पास काकोरी में ट्रेन से सरकारी खजाना लूटा था. भगत सिंह ने तबसे 9 अगस्त को काकोरी काण्ड स्मृति-दिवस मनाना शुरू किया था. वह परम्परा चली आ रही थी. भारत छोड़ो आंदोलन बहुत सी जगहों पर अहिंसक हो गया. देश के तमाम इलाकों में जनता ने अंग्रेज सरकार से सत्ता छीन ली. बंगाल के तामलुक, महाराष्ट्र के सतारा और उत्तर प्रदेश के बलिया में स्वतंत्र सरकारें कायम हो गईं.

बंगाल के तामलुक में दो साल तक स्वतंत्र सरकार रही और सन 1944 में जब गांधी ने अपनी रिहाई के बाद लोगों से अनुरोध किया तो उन्होंने अपना कब्जा छोड़ा. छोटे-छोटे शहरों से ऐसे लोग नेता बनकर उभरे जिनकी कल्पना नहीं की जा सकती. तामलुक की 73 वर्षीय वृद्धा मातंगिनी हाजरा झंडा लेकर निकल पड़ीं. उनके पीछे करीब 6000 लोगों की भीड़ थी. तामलुक प्रशासन को कुछ समझ में नहीं आया और उसने पुलिस गोला चलाने का आदेश दिया. पुलिस की गोलियों से मातंगिनी हाजरा शहीद हो गईं.

इस घटना के कुछ समय पहले पटना में छात्रों का जुलूस सचिवालय पर तिरंगा फहराने के लिए एकजुट हो गया. यहाँ भी पुलिस ने गोली चलाई. इसमें सात छात्रों की जान गई. नवें, दसवें और बारहवें दर्जे के इन छात्रों के मन में आजादी का जबर्दस्त जज्बा था. इन छात्रों की प्रतिमा प्रख्यात मूर्तिकार देवीप्रसाद रायचौधुरी ने बनाई थी, जो अगस्त क्रांति का प्रतिनिधि स्मारक है.    

गांधी जी इस आंदोलन को अहिंसक बनाकर चलाना चाहते थे, पर कुछ दिन बाद ही आंदोलन उनके हाथ के बाहर हो गया. तमाम जगह बम विस्फोट हुए, संचार सेवाएं ठप हुईं, बिजली काटी गई. अगस्त क्रांति ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था. वस्तुतः वह आंदोलन कांग्रेस के हाथ से निकलकर देशवासियों के हाथ में आ गया था. मजदूर कारखानों से निकल पड़े थे, छात्रों ने पढ़ाई छोड़ दी, किसानों ने खेत छोड़ दिए. सरकार ने जबर्दस्त दमन का सहारा लिया. तमाम लोगों को गोली से उड़ाया गया. एक लाख से ज्यादा लोग देशभर में गिरफ्तार किए गए.

अगस्त क्रांति के समानांतर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज की कार्रवाई ने अंग्रेजों के हौसलों को परास्त किया था. यह शुद्ध रूप से भारतीय आंदोलन था, जिसमें हर संप्रदाय के लोगों कि शिरकत थी. इस पूरे दौर में देश में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए. पर उस क्रांति के तमाम सेनानी अनाम रह गए. कोलकाता की बीना दास का नाम लोगों को याद भी नहीं होगा. उन्होंने बहुत छोटी उम्र में बंगाल के गवर्नर पर गोली चला दी थी. बीना दास 1947 से 1952 तक बंगाल विधानसभा की सदस्य भी रहीं. पति की मृत्यु के बाद वे ऋषिकेश में आकर रहने लगीं थीं. सन 1986 में लावारिस की तरह उनका निधन हुआ.

इससे लगता यह भी है कि हमें अपने नायकों की परवाह नहीं है. जरूरत इन यादों को ताजा रखने की है. अब हम इस आंदोलन का 75वां साल मना रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि हम उन कहानियों को फिर से सुनें. हर शहर और कस्बे के पास अगस्त क्रांति की स्मृतियाँ हैं. उनकी याद ताजा करें. सन 1942 में देश की जनता ने निश्चय कर लिया कि अब आजादी से कम कुछ नहीं. आज भी कुछ ऐसे ही निश्चयों की जरूरत है. 
inext में प्रकाशित

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