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Sunday, August 27, 2017

‘बाबा संस्कृति’ का विद्रूप

बाबा रामपाल, आसाराम बापू और अब गुरमीत राम रहीम के जेल जाने के बाद भारत की बाबा संस्कृति को लेकर बुनियादी सवाल एकबार फिर उठे हैं। क्या बात है, जो हमें बाबाओं की शरण में ले जाती है? और क्या बात है जो बाबाओं और संतों को सांसारिक ऐशो-आराम और उससे भी ज्यादा अपराधों की ओर ले जाती है? उनके रुतबे-रसूख का आलम यह होता है कि राजनीतिक दल उनकी आरती उतारने लगे हैं।

जैसी हिंसा राम रहीम समर्थकों ने की है तकरीबन वैसी ही हिंसा पिछले साल मथुरा के जवाहर बाग की सैकड़ों एकड़ सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रामवृक्ष यादव और उनके हजारों समर्थकों और पुलिस के बीच हिंसक भिड़ंत में हुई थी। उसमें 24 लोग मरे थे। रामवृक्ष यादव बाबा जय गुरदेव के अनुयायी थे।

राम रहीम हों, रामपाल या जय गुरदेव बाबाओं के पीछे ज्यादातर ऐसी दलित-पिछड़ी जातियों के लोग होते हैं, जिन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है। इनके तमाम मसले बाबा लोग निपटाते हैं, उन्हें सहारा देते हैं। बदले में फीस भी लेते हैं. इनका प्रभाव उससे कहीं ज्यादा है, जितना सामने दिखाई पड़ता है। इनके दुर्ग बन जाते हैं, जो अक्सर जमीन पर कब्जा करके बनते हैं। 

जन-समर्थन के कारण इन्हें राजनीतिक संरक्षण भी मिलता है। राम रहीम को बीजेपी का संरक्षण मिल रहा है। इसके पहले कांग्रेस का मिला। जो भी है हमारे सामाजिक विकास की विसंगतियाँ हैं। मीडिया ने भी इसे दूर से कवर किया है। किसी संवाददाता ने बाबा के समर्थन में हाथ में झोला लेकर आए लोगों से गहराई से बात नहीं की। आखिर वह क्या प्रेरणा है, जिसके कारण लोग जान लेने और देने के लिए तैयार हो गए?

राम रहीम ने आधुनिक मुहावरों का इस्तेमाल भी किया है। राजनीतिक प्रभाव के कारण उनके भक्तों में सरकारी अधिकारी, डॉक्टर, वकील और नेता भी हैं। एनडीटीवी पर उनका जो प्रतिनिधि आया था वह फर्राटे से अंग्रेजी बोल रहा था।  बाबा को मीडिया की जरूरतें समझ में आती हैं। बाबाओं को या तो हम सिरे से खारिज करते हैं या गुणगान की अति करते हैं।

आधुनिक भारत में बाबा संस्कृति पर शोध कर रहीं मीरा नंदा ने लिखा है, भारतीय मध्यवर्ग अपनी भौतिक सम्पदा में वृद्धि के अनुपात में ही ‘पूजा’ और ‘होम’ में भी उत्तरोत्तर वृद्धि करना आवश्यक और अनिवार्य समझता है। हर वाहन की ख़रीद के साथ पूजा होती है; ठीक वैसे ही जैसे ज़मीन के छोटे से टुकड़े पर भी किसी निर्माण से पहले ‘भूमि-पूजन’ अनिवार्य होता है। और हर पूजा के साथ एक ज्योतिषाचार्य और एक वास्तुशास्त्री भी जुड़ा ही रहता है। और हर प्रतिष्ठित ज्योतिषाचार्य और वास्तुशास्त्री को कम्प्यूटर चलाना  और अंग्रेज़ी बोलना तो आना ही चाहिए ताकि वह अपनी बातों को “वैज्ञानिक” ढंग से प्रस्तुत कर सके।

टेलीविजन पर प्रकट होने वाले बाबा ‘किरपा’ की खेती करते हैं। किरपा चाहने वाले लोग गरीब-अनपढ़ नहीं, मध्यवर्गीय अंधविश्वासी हैं। राधे माँ जैसी ग्लैमरस संत भी हैं। रूहानी ताकत पर भरोसा सिर्फ हमारे यहाँ नहीं है, दुनिया के विकसित देशों में भी है। पर जिस कदर हमारे यहाँ है वह अटपटा है। यह हमारे अर्ध-आधुनिक समाज की समस्या है, जो केवल बाबाओं-संतों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में है।

एक ओर आस्था और अंधविश्वास हैं और दूसरी ओर जीवन को अतार्किक मशीनी तरीके से देखने वाली ‘प्रगतिशीलता’ का विद्रूप है। अध्यात्म, सत्संग, प्रवचन और अंधविश्वास के सालाना कारोबार कई लाख करोड़ का है। भारत सरकार के बजट से भी ज्यादा। बाबाओं के आश्रमों, डेरों और मठों वगैरह के समांतर खाप, पंचायतें और जन जातीय समूह हैं।

ग्रामीण समाज में तमाम काम सामुदायिक स्वीकृतियों, सहमतियों और सहायता से होते हैं। लोग अपनी समस्याओं के समाधान के लिए पंचायतों और सामुदायिक समूहों में आते हैं या फिर इन आश्रमों की शरण लेते हैं। यहाँ उनके व्यक्तिगत विवाद निपटाए जाते हैं, समझौते होते हैं। यह काम आधुनिक राज और न्याय-व्यवस्था का है।

इन मठों में सोशल नेटवर्किंग विकसित होने लगी। हथियारों के अंतरराष्ट्रीय सौदे पटाए जाने लगे। सत्ता के गलियारों में संत-समागम होने लगे। मंत्रियों के विभाग और अफसरों की पोस्टिंग ये संत कराने लगे। धीरेन्द्र ब्रह्मचारी और चन्द्रास्वामी के नाम भी इस सूची में हैं। उद्योग-व्यापार, नौकरशाही, अपराध और राजनीति की डोरें भी इनसे जुड़ी हैं।

आधुनिकता केवल पतलून पहनने, अंग्रेजी बोलने या दंत मंजन की जगह टूथपेस्ट इस्तेमाल करने से नहीं आती। वह शिक्षा, वैज्ञानिकता और व्यापक सामाजिक समझ से जुड़ी है। बाहरी संरचना में हम तेजी से बदले हैं, पर भीतरी बनावट इससे मेल नहीं खाती। हम जिस आधुनिकता के पीछे भाग रहे हैं वह वास्तविक नहीं, उसका विद्रूप है। इस वजह से परम्परागत समाज असमंजस के चौराहे पर है। उसे सामाजिक बदलाव की संतुलित राह चाहिए।

संत हजारों साल से हमारे बीच हैं बगैर मार्केटिंग के। उत्तर से लेकर दक्षिण तक जबर्दस्त संत परम्परा रही है। कबीर, रैदास, दादू दयाल, मलूकदास, गुरुनानक, अमीर खुसरो, संत पलटू, बुल्लेशाह, संत तिरुवल्लुवर, संत औवैयार, नामदेव, ज्ञानेश्वर, ज्योतिबा फुले, गुरु गोरखनाथ, और सिख पंथ के सभी गुरुओं की समाज के साथ गहरा जुड़ाव था। राज-व्यवस्था को लोग नहीं जानते थे। अपने नेताओं को जानते थे।

यह परम्परा आधुनिक बदलाव के साथ अपना स्वरूप बदलती गई। सन 1857 से लेकर 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन के साथ तमाम सामाजिक आंदोलन इन परम्परागत संस्थाओं-संगठनों की मदद से ही चले। महात्मा गांधी की शब्दावली धार्मिक थी। वे भी साबरमती के संत की तरह सामने आए। उन्होंने चरखा कातने को यज्ञ की संज्ञा दी थी। पर समाज राज्याश्रयी संतों को पसंद नहीं करता। वे सामाजिक बदलाव में शामिल होते हैं तभी अच्छा लगता है। राम रहीम ने जो रास्ता पकड़ा, उसका अंत विनाश में ही है।

मीरा नंदा प्राचीन भारतीय संस्कृति के अध्ययन की दिशा में उठाए गए सरकारी प्रयासों को इसके लिए दोषी मानती हैं, पर यह नजरिया एकतरफा है। व्यक्ति को उसकी संस्कृति से काटा नहीं जा सकता। संस्कृति को आधुनिक बनाया जा सकता है। सामाजिक बदलाव धीमी प्रक्रिया है। इसे तेज करने के लिए प्रभावशाली सामाजिक-सांस्कृतिक नेताओं की जरूरत होती है। उनकी प्रासंगिकता हम खोज नहीं पाए हैं। दक्षिण भारत में मठों और आश्रमों ने इंजीनियरिंग कॉलेजों का संचालन शुरू किया है। पुट्टपर्थी के साईं बाबा के नेतृत्व में पेयजल योजनाएं शुरू हुईं, जो आज भी चल रही हैं। बहुत से काम समाज से टकराकर नहीं, रास्ता दिखाकर किए जा सकते हैं। 
हरिभूमि में प्रकाशित

3 comments:

  1. वर्तमान परिवेश में बाबा -संस्कृति का सामाजिक ,राजनैतिक प्रभाव शानदार और बेबाक ढंग से विवेचित हुआ है प्रस्तुत लेख में। सारगर्भित एवं विचारणीय लेख।

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  2. जब राजनीतिज्ञों और तथाकथित बाबाओं का संगम होता है तो स्थिति विनाशकारी बन जाती है, दोनों एकदूसरे को पोषित करते हैं और जनता को मूर्ख बनाते हैं

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  3. बेचारी गरीब जनता का कोई टोटका या मंत्र नहीं चल पाता इन बाबाओं पर
    गंभीर विचारशील प्रस्तुति

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