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Wednesday, August 23, 2017

सवाल है मुसलमान क्या कहते हैं?

सुप्रीम कोर्ट के बहुमत निर्णय के बाद सरकार को एक प्रकार का वैधानिक रक्षा-कवच मिल गया है। कानून बनाने की प्रक्रिया पर अब राजनीति होने का अंदेशा कम है। फिर भी इस फैसले के दो पहलू और हैं, जिनपर विचार करने की जरूरत है। अदालत ने तीन बार तलाक कहकर तलाक देने की व्यवस्था को रोका है, तलाक को नहीं। यानी मुस्लिम विवाह-विच्छेद को अब नए सिरे से परिभाषित करना होगा और संसद को व्यापक कानून बनाना होगा। यों सरकार की तरफ से कहा गया है कि कानून बनाने की कोई जरूरत नहीं, त्वरित तीन तलाक तो गैर-कानूनी घोषित हो ही गया। 

देखना यह भी होगा कि मुस्लिम समुदाय के भीतर इसकी प्रतिक्रिया कैसी है। अंततः यह मुसलमानों के बीच की बात है। वे इसे किस रूप में लेते हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये बातें सामुदायिक सहयोग से ही लागू होती हैं। सन 1985 के शाहबानो फैसले के बाद मुस्लिम समुदाय के प्रगतिशील तबके को दबना पड़ा था।

अदालत में सरकार ने माना था कि त्वरित तलाक धर्म सम्मत नहीं है। इस बात से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी सहमत था, पर वह नहीं चाहता कि सरकार इस मामले में दखल दे। बहरहाल अब कानून बनेगा और उसे लागू कराना होगा। कानून बनाने के लिए सरकार को सभी राजनीतिक दलों को बुलाकर उनकी राय लेनी चाहिए। खासतौर से कांग्रेस पार्टी की भूमिका इसमें महत्वपूर्ण होगी। कांग्रेस ने फैसले का स्वागत किया है। राजनीतिक दलों के अलावा मुस्लिम संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी।

कानून बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है, से लागू कराना। विवाह और विवाह विच्छेद सामाजिक-धार्मिक रिवाजों के सहारे चलते हैं। कानून को लागू कराने के लिए भी सामुदायिक सहयोग की जरूरत होगी। शाहबानो मामले को उठाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खां ने अदालत के इस फैसले की तारीफ के साथ-साथ यह भी कहा कि इससे केवल मुस्लिम महिलाओं का ही नहीं, सभी महिलाओं का सशक्तिकरण होगा।

उन्होंने कहा, भारत में सांविधानिक लोकतंत्र है। यहाँ कानून लागू होता है। कोई व्यक्ति या समुदाय नहीं माने, तब भी। यदि कोई पीड़ित महिला थाने जाएगी तो पुलिस को उसका साथ देना होगा। धार्मिक कट्टरपंथी शायद अब भी सामने आएं, पर उनसे घबराने की जरूरत नहीं है। 

सन 1985 में जब शाहबानो का फैसला आया था, तब राजीव गांधी के सामने करीब यही स्थिति थी। गोकि उस मामले में और इस मामले में बुनियादी फर्क है। इसे तलाके बिद्दत कहा जाता है। यानी जो इंसानों ने परंपरा जोड़ी है। मुस्लिम महिलाओं का बड़ा हिस्सा इससे निजात चाहता है। वे यह भी चाहती हैं कि जो भी हो वह धार्मिक मर्यादाओं के दायरे में ही हो। मुस्लिम समुदाय को भी सोचना चाहिए कि जो धर्म-सम्मत नहीं है, वह क्यों जारी रहे। 

सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीद जताई है कि केंद्र जो कानून बनाएगा, उसमें मुस्लिम संगठनों और शरिया कानून संबंधी चिंताओं का खयाल रखा जाएगा। संसद के पास कानून बनाने के लिए छह महीने का समय है। यानी कि इसे संसद के शीतकालीन सत्र में पास किया जा सकता है। ऐसा नहीं हो पाया तब भी तीन तलाक पर रोक जारी रहेगी। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि छह महीने में कानून नहीं बनाया जाता है तो अदालत का आदेश जारी रहेगा।

इस मामले को समान नागरिक संहिता की बहस से अलग रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि उसके सामने केवल तीन तलाक का मामला है। सुप्रीम कोर्ट इस विषय पर भी संसद से विचार करने का अनुरोध कर चुका है। पर वह इस वक्त बहस का मुद्दा नहीं है। यों केंद्र सरकार ने विधि आयोग से समान नागरिक संहिता पर भी विमर्श का सुझाव दिया है। पिछले दिनों विधि आयोग ने एक प्रश्नावली जारी की थी, जिसका मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बहिष्कार किया था।

शायरा बानो ने मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन कानून 1937 की धारा 2 की संवैधानिकता को चुनौती दी थी। कोर्ट में दाखिल याचिका में शायरा ने कहा था कि मुस्लिम महिलाओं के हाथ बंधे होते हैं और उन पर तलाक की तलवार लटकती रहती है। वहीं पति के पास निर्विवाद रूप से अधिकार होते हैं। यह भेदभाव और असमानता एकतरफा तीन बार तलाक के तौर पर सामने आती है।

अदालत के सामने दो बड़े सवाल थे। पहला यह कि क्या ‘तीन बार’ जुबानी घोषणा करके तलाक देना धार्मिक व्यवस्था है?  दूसरा यह कि संविधान के अनुच्छेद-14 और 21 का क्या इससे उल्लंघन होता है? सभी नागरिकों को ‘कानून का समान संरक्षण’ देता है। अदालत ने इसे 3-2 के बहुमत से गैर-सांविधानिक माना। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा था कि अदालत का जो फैसला होगा उसे हम मानेंगे। यह फैसला आने के बाद बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी ने कहा कि हम इसपर विचार कर रहे हैं।

अदालत का सवाल था कि ज्यादातर इस्लामिक देशों में यह परंपरा खत्म हो चुकी है, भारत इससे निजात क्यों नहीं पा सकता? सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कई बार कहा था कि मुस्लिम समुदाय में शादी तोड़ने का यह सबसे खराब तरीका है। जो बात धर्म के मुताबिक ही खराब है वह कानून के तहत कैसे वैध ठहराई जा सकती है?

देश में मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट साल 1937 में लागू हुआ था। अंग्रेजों की कोशिश थी कि भारतीयों पर उनके सांस्कृतिक नियम ही लागू हों। देश में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग सिविल कोड हैं। सन 1936 का पारसी विवाह-तलाक एक्ट और 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम इसके उदाहरण हैं। सवाल तब उठता है जब कोई व्यक्ति सांविधानिक कानूनों के तहत अपने अधिकारों की माँग करे। जैसाकि सन 1985 में शाहबानो मामले में हुआ।

पत्नी के भरण-पोषण के मामले में इस्लामी व्यवस्थाएं हैं, पर शाहबानो ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत न्याय माँगा था। पत्नी, नाबालिग बच्चों या बूढ़े मां-बाप, जिनका कोई सहारा नहीं है, और जिन्हें उनके पति/पिता ने छोड़ दिया है, वे धारा 125 के तहत भरण-पोषण की माँग कर सकते हैं। इसके तहत पति या पिता का जिम्मा बनता है। अदालत ने जब फैसला किया तो राजीव गांधी की सरकार ने कानून ही बदल दिया। पर यह समस्या का समाधान नहीं था, बल्कि आधुनिक न्याय-व्यवस्था से पलायन था। अब फिर एक मौका आया है, जब हम प्रगतिशील रास्ते पर बढ़ें। 
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

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