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Thursday, July 6, 2017

डगमग होती विपक्षी एकता

बुधवार को मीरा कुमार ने औपचारिक रूप से पर्चा दाखिल करने के बाद अपने प्रचार-अभियान की शुरूआत कर दी है. उनका कहना है कि यह सिद्धांत की लड़ाई है. संविधान की रक्षा के लिए और देश को साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ में जाने से रोकने के लिए वे खड़ी हुई हैं. वस्तुतः यह सन 2019 के चुनाव में गैर-बीजेपी गठजोड़ का प्रस्थान बिंदु है. देशभर में असहिष्णुता और अल्पसंख्यकों की हत्याओं के खिलाफ आंदोलन खड़ा हो गया है. यह उस राजनीति का पहला अध्याय है, जो राष्ट्रीय स्तर पर उभरेगी.
मीरा कुमार के नामांकन के वक्त 17 दलों के प्रतिनिधि उपस्थित थे. इनके नाम हैं कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद, वाममोर्चा के चार दल, तृणमूल कांग्रेस, राकांपा, नेशनल कांफ्रेंस, डीएमके, झामुमो, जेडीएस, एआईयूडीएफ, केरल कांग्रेस, मुस्लिम लीग. आम आदमी पार्टी इस प्रक्रिया में शामिल नहीं थी, पर वह भी मीरा कुमार के साथ जाएगी. यह प्रभावशाली संख्या है, पर इसके मुख्य सूत्रधार कांग्रेस और वामदल हैं. धर्म-निरपेक्ष राजनीति का काफी बड़ा हिस्सा इस राजनीति से बाहर है.

ठीक मौके पर जेडीयू का अलग हो जाना इस राजनीति को लगा सबसे बड़ा धक्का है. जो महत्वपूर्ण गैर-एनडीए पार्टियाँ मीरा कुमार के अभियान से बाहर हैं, उनमें एआईएडीएमके, बीजेडी, टीआरएस, जेडीयू, शिवसेना, वाईएसआर कांग्रेस और इनेलो शामिल हैं. राजनीतिक शक्तियों का यह धड़ा अगले डेढ़ साल की राजनीतिक रीति-नीति का संकेत कर रहा है. यह धड़ा दोनों बड़े गठबंधनों के बीच संतुलनकारी भूमिका अदा करेगा. एक अंदेशा इस बात का भी रहेगा कि 2019 में त्रिशंकु संसद भी बन सकती है. जिन गैर-भाजपा पार्टियों ने रामनाथ कोविंद का समर्थन करने का फैसला किया है, जरूरी नहीं कि वे 2019 में एनडीए का साथ देंगी. पर कांग्रेस-नीत विपक्षी महागठबंधन को लेकर भी उनके मन में संशय है.
नवीन पटनायक ने पहले ही कह दिया था कि हम रामनाथ कोविंद का समर्थन करेंगे. उन्होंने यह घोषणा तब की जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे फोन पर बात की. पटनायक ने कहा कि सन 2012 में जब राष्ट्रपति चुनाव हुआ था, तब बीजद ने पीए संगमा का नाम प्रस्तावित किया था. वे जनजातीय समुदाय के प्रमुख नेता थे. बीजद के अनुरोध पर भाजपा सहित कई पार्टियों ने उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया था. बीजद मूल रूप से कांग्रेस-विरोधी पार्टी है और उम्मीद नहीं कि वह 2019 में किसी गठबंधन में शामिल होगी.
बीजद, तृणमूल और शिवसेना भविष्य में अकेले ही राजनीति करेंगी. जिन 17 दलों ने मीरा कुमार का समर्थन किया है, वे सब लोकसभा चुनाव में महागठबंधन के रूप में नहीं उतरेंगे. मसलन वाममोर्चा और तृणमूल एक गठबंधन में नहीं रह सकेंगे. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-सपा और बसपा का महागठबंधन बन भी गया तो तीनों दलों को कई तरह के शीर्षासन करने होंगे.  
इन सबसे रोचक और महत्वपूर्ण है बिहार के महागठबंधन का टूटना. इस गठबंधन ने ही कांग्रेस पार्टी को गठबंधन की ओर खींचा था. अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस के अस्तित्व की निर्णायक लड़ाई साबित होने वाला है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राष्ट्रपति चुनाव के ठीक पहले इस गठबंधन राजनीति को गड्ड-मड्ड कर दिया है. फिलहाल बिहार में गठबंधन सरकार बनी रहेगी, पर नीतीश कुमार और लालू यादव के मतभेद एकदम साफ हो चुके हैं.
मंगलवार को जेडीयू के नेता केसी त्यागी ने बयान जारी किया कि भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन के दौरान हमें कभी असुविधा का सामना नहीं करना पड़ा. अब किसी किस्म का संदेह नहीं रहना चाहिए कि जेडीयू की भावी राजनीति किस दिशा में जाएगी. केसी त्यागी के बयान के पहले राजद और कांग्रेस के नेताओं ने कुछ ऐसी बातें कहीं, जिनसे यह विभाजन स्पष्ट हो गया.
रामनाथ कोविंद के समर्थन को लालू यादव ने ऐतिहासिक भूल बताया था और तेजस्वी यादव ने राजनीतिक मौकापरस्ती से बचने की सलाह दी थी. इतना ही नहीं कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने भी नीतीश कुमार पर सिद्धांतों से हटने का आरोप लगाया. नीतीश और लालू दोनों ही फिलहाल बिहार में गठबंधन को तोड़ने की स्थिति में नहीं हैं. नीतीश चाहें तो बीजेपी के समर्थन से सरकार चला सकते हैं, पर शायद वे अभी ऐसा करना नहीं करेंगे. भविष्य में उनका भाजपा के साथ कोई गठबंधन हुआ भी तो वह वैसा ही नहीं होगा, जैसा जून 2013 के पहले था.
नीतीश कुमार के राजनीतिक फैसले अक्सर विस्मयकारी होते हैं. उन्होंने राष्ट्रपति पद के 2012 के चुनाव में प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था, जबकि एनडीए के साथ उनका गठबंधन जारी था और उसके एक साल बाद उन्होंने वे गठबंधन से बाहर आ गए. जिस वक्त आरजेडी और जेडीयू का गठबंधन हुआ उस समय नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के बीच रिश्ते अच्छे नहीं थे. पर आज वे बेहतर धरातल पर हैं.
सन 2013 में एनडीए से बाहर आते वक्त शायद नीतीश कुमार को लगता था कि लोकसभा चुनाव में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा, जिसके बाद उनकी राष्ट्रीय भूमिका बढ़ेगी. उनका अनुमान गलत साबित हुआ. सन 2015 में वे महागठबंधन में शामिल तो हो गए, क्योंकि उनके अस्तित्व की रक्षा तभी सम्भव थी. पर लालू प्रसाद के साथ वे सहज नहीं हैं.
बिहार की राजनीति में लालू यादव उनपर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में नीतीश कुमार लगातार लालू की राजनीति के खिलाफ स्टैंड ले रहे हैं. उन्होंने नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, जीएसटी और अब राष्ट्रपति उम्मीदवार पर लालू यादव के रुख के खिलाफ फैसले किए हैं. लालू यादव के परिवार पर आयकर विभाग के छापों के पीछे उनकी मौन स्वीकृति स्पष्ट है.
नोटबंदी के बाद सरकार ने बेनामी सम्पत्ति संशोधन कानून को भी लागू कर दिया है. इस कानून की जद में लालू का परिवार बुरी तरह फँसता जा रहा है. अंदेशा है कि उनके बेटों पर सरकार से हटने का दबाव भी आ सकता है. राष्ट्रपति चुनाव के बाद घटनाक्रम और तेजी से बदले तो आश्चर्य नहीं होगा. बीजेपी ने विपक्ष के अंतर्विरोधों और विसंगतियों का बेहतर अध्ययन किया है. उसे सिर्फ इतना साबित करना है कि एकता की कोशिशें केवल मौका-परस्ती है, वैचारिक नहीं.  
http://inextepaper.jagran.com/1264205/INext-Kanpur/30-06-17#page/8/1

1 comment:

  1. सत्ता की लालची पार्टियां,
    देश जाये भाड में,

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