बीजेपी ने रामनाथ
कोविंद का नाम राष्ट्रपति पद के लिए घोषित नहीं किया होता तो शायद विरोधी दल मीरा
कुमार के नाम को सामने नहीं लाते। इस मुकाबले की बुनियादी वजह ‘दलित’ पहचान है। यह बात
राजनीति की प्रतीकात्मकता और पाखंड को व्यक्त करती है। अलबत्ता इस घटना क्रम के
कारण ‘महा-एकता’ कायम करने की विपक्षी राजनीति की जबर्दस्त
धक्का भी लगा है। सवाल यह है कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने जन्मी एकता केवल
राष्ट्रपति चुनाव तक सीमित रहेगी या सन 2019 के चुनाव तक जारी रहेगी? दूसरे क्या केवल ‘साम्प्रदायिकता-विरोध’ के आधार पर कायम की गई ‘वैचारिक-एकता’ लम्बी दूरी की राजनीति
का आधार बन सकती है?
लालू प्रसाद यादव का यह कहना कि जेडीयू ने रामनाथ कोविंद
का समर्थन करके ऐतिहासिक भूल की है, एक नई राजनीति का प्रस्थान बिंदु है। बिहार
में इन दोनों पार्टियों के बीच जो असहजता है, वह खुले में आ गई है। दूसरी ओर उत्तर
प्रदेश में सपा और बसपा का एक मंच पर आना भी एक नई राजनीति की शुरुआत है। देखना
होगा कि इस एकता के पीछे कितनी संजीदगी है। मायावती ने स्पष्ट कर दिया था कि यदि विपक्ष
ने दलित प्रत्याशी को नहीं उतारा तो उनके पास रामनाथ कोविंद का समर्थन करने के
अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।
दो बातें साफ हैं, एक बीएसपी केवल जातीय पहचान की राजनीति तक सीमित दल है।
दूसरे, वह फिलहाल बीजेपी के साथ जाना पसंद नहीं करेगा। पर राजनीति के अंतर्विरोधों
को सामने आने में समय नहीं लगता। दिसम्बर 1993 में सपा और बसपा के बीच कायम एकता
जून 1995 में अचानक ‘गैर-वैचारिक कारणों’ से टूट गई और बसपा ने
बीजेपी को सहयोगी के रूप में पाया। दिल्ली में पीवी नरसिंहराव की सरकार ने भी देश
की पहली दलित बेटी को मुख्यमंत्री बनाने
के कार्य में उत्साह से भाग लिया। प्रदेश सरकार भंग हुई और मायावती मुख्यमंत्री
बनीं। पर स्टेट गेस्ट हाउस में हुई घटना एकतरफा नहीं थी। वह हितों का टकराव था।
टकराव खत्म हो गया, ऐसा नहीं मान लेना चाहिए।
सन 2019 की चुनावी रणनीति में कांग्रेस और वामदल केंद्रीय विचारक के रूप
में काम कर रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव को भी वे उसी का सिलसिला मानते हैं। ममता
बनर्जी ने मीरा कुमार के नाम का समर्थन किया है। बंगाल का ‘मुस्लिम वोट-बैंक’ भाजपाई प्रत्याशी के
समर्थन को मंजूर नहीं करेगा। ममता ने मुसलमान वोटर को अपने साथ उसी तरह जोड़ा है,
जैसे उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने जोड़ा था। पर ममता केवल राष्ट्रपति
चुनाव में ही इस ‘एकता’ के साथ रहेंगी। 2019 के चुनाव में वे वाममोर्चे
के साथ चुनाव नहीं लड़ सकतीं। उन्हें बीजेपी और वाममोर्चा दोनों के विरोध में अपनी
राजनीति खड़ी करनी है।
बताया जा रहा है कि मीरा कुमार के नाम पर विरोधी दलों की सर्वानुमति थी, पर
कुछ सूत्रों के अनुसार एनसीपी-प्रमुख शरद पवार की राय थी कि सुशील कुमार शिंदे को
प्रत्याशी बनाना चाहिए। साफ था कि अब विरोधी दलों का प्रत्याशी भी दलित ही होगा।
मीरा कुमार के साथ-साथ शिंदे का नाम भी कांग्रेसी सूत्रों ने ही पेश किया था।
बताते हैं कि बैठक में सबसे पहले शरद पवार ने ही तीन नाम रखे। इनमें पहला नाम
शिंदे का, दूसरा भालचंद्र मुंगेकर का और तीसरा नाम मीरा कुमार का था। लालू यादव ने
मीरा कुमार के नाम पर जोर दिया। सपा के राम गोपाल यादव और बसपा के सतीश मिश्र ने
भी उनके नाम का समर्थन किया।
हालांकि वाममोर्चा मूल रूप से गोपाल कृष्ण गांधी और प्रकाश आम्बेडकर के
नामों का प्रस्ताव कर रहा था, पर उसने स्पष्ट कर दिया था कि वह बहुमत की राय के
साथ जाएगा। लगता यह है कि इस बैठक के पहले ही मीरा कुमार के नाम पर आम राय बन चुकी
थी। आम आदमी पार्टी इस प्रक्रिया में शामिल नहीं थी, पर वह भी मीरा कुमार के साथ
जाएगी। जेडीयू ने कोविंद के साथ जाने का फैसला केवल उनकी दलित या बेहतर राज्यपाल
होने के कारण नहीं किया है। नीतीश कुमार को 2019 की राजनीति में लालू यादव के साथ
रहना सुरक्षित नहीं लगता। रालोद के अजित सिंह इस बैठक में थे नहीं। ऐसा सायास हुआ
या अनायास हुआ, कहना मुश्किल है। जो महत्वपूर्ण पार्टियाँ इस कोशिश में शामिल नहीं
हैं, उनमें बीजद, इनेलो और जनता दल सेक्युलर भी हैं।
नवीन पटनायक ने पहले ही कह दिया था कि हम रामनाथ कोविंद
का समर्थन करेंगे। उन्होंने यह घोषणा तब की जब प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने उनसे फोन पर बात की। पटनायक ने कहा कि सन 2012 में जब राष्ट्रपति
चुनाव हुआ था, तब बीजद ने पीए संगमा का नाम प्रस्तावित
किया था। वे जनजातीय समुदाय के प्रमुख नेता थे। बीजद के अनुरोध पर
भाजपा सहित कई पार्टियों ने उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया था। बहरहाल वामपंथी दल
कोशिश कर रहे हैं कि बीजू जनता दल विरोधी-एकता में शामिल हों। पर बीजद मूल रूप से
कांग्रेस-विरोधी पार्टी है और उम्मीद नहीं कि वह 2019 में किसी गठबंधन में शामिल
होगी।
भारतीय जनता पार्टी
ने अपने प्रत्याशी का नाम अपने दूरगामी राजनीतिक उद्देश्यों के विचार से ही तय
किया है, पर इसमें गलत क्या है? राष्ट्रपति
का पद अपेक्षाकृत सजावटी है और उसकी सक्रिय राजनीति में कोई भूमिका नहीं है, पर
राजेन्द्र प्रसाद से लेकर प्रणब मुखर्जी तक सत्तारूढ़ दल के प्रत्याशी राजनीतिक
कारणों से ही चुने गए। सन 1969 का चुनाव तो कांग्रेस पार्टी की आंतरिक राजनीति का
सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसके बाद कांग्रेस एक नई पार्टी कांग्रेस (इंदिरा) के रूप
में सामने आई और आज तक वह 1969 में जन्मी कांग्रेस है भले ही उसने प्रकारांतर में 1885 की कांग्रेसी विरासत
को समाहित करने का दावा किया।
बीजेपी किसी दूसरे व्यक्ति को प्रत्याशी बनाकर भी अपना काम चला सकती थी, पर
उसने रामनाथ कोविंद को खड़ा करके विरोधी-दलों को संशय में डाल दिया है और 2019 के
चुनाव के पहले ही उनकी एकता के सामने सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं। यह एक
राजनीतिक फैसला है। ‘प्रतीकों और पनीले रूपकों’ से सजी-धजी राजनीति में
यह अप्रत्याशित लग सकता है, आश्चर्यजनक नहीं। वस्तुतः बीजेपी ने विपक्ष के
अंतर्विरोधों और विसंगतियों का बेहतर अध्ययन किया है। उसे सिर्फ इतना साबित करना
है कि एकता की कोशिशें केवल मौका-परस्ती तक सीमित हैं। इनके पीछे कोई वैचारिक एकता
नहीं है। इन ‘महा-एकताओं’ का तोड़ इस पनीली-राजनीति के भीतर ही छिपा
बैठा है।
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