सुबह के अखबारों में जेपी की रैली की
खबर थी, जिसमें देश की जनता से अपील की गई थी कि वह इस ‘अवैध’
सरकार को खारिज
कर दे। टैक्स देना बंद करो, छात्र स्कूल जाना बंद करें, सैनिक, पुलिस और सरकारी कर्मचारी
अपने अफसरों के हुक्म मानने से इंकार करें। रेडियो स्टेशनों को चलने नहीं दें, क्योंकि
रेडियो ‘झूठ’ बोलता है। लखनऊ के स्वतंत्र भारत में काम करते हुए मुझे डेढ़-दो साल हुए
थे। सम्पादकीय विभाग में मैं सबसे जूनियर था। खबरों को लेकर जोश था और सामाजिक बदलाव
का भूत भी सिर पर सवार था। 26 जून 1975 की सुबह किसी ने बताया कि रेडियो पर इंदिरा
गांधी का राष्ट्र के नाम संदेश आया था, जिसमें उन्होंने घोषणा की है कि राष्ट्रपति
जी ने देश में आपातकाल की घोषणा की है।
आपातकाल या इमर्जेंसी लगने का मतलब मुझे
फौरन समझ में नहीं आया। एक दिन पहले ही अखबारों में खबर थी कि सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा
गांधी को अपने पद पर बनाए रखा है, पर उनके तमाम अधिकार खत्म कर दिए हैं। वे संसद में
वोट भी नहीं दे सकती हैं। इंदिरा गांधी के नेतृत्व और उसके सामने की चुनौतियाँ दिखाई
पड़ती थीं, पर इसके आगे कुछ समझ में नहीं आता था।
हमारे सम्पादकीय विभाग में दो गुट बन
गए थे। कुछ लोग इंदिरा गांधी के खिलाफ थे और कुछ लोग उनके पक्ष में भी थे। इलाहाबाद
हाईकोर्ट में चल रहे मुकदमे की खबर की कॉपी मुझे ही अनुवाद करने के लिए मिलती थी, जिससे
मुझे मुकदमे की पृष्ठभूमि समझ में आती थी। हमारे यहाँ हिन्दी की एजेंसी सिर्फ हिन्दुस्तान
समाचार थी। वह भी जिलों की खबरें देती थी, जो दिन में दो या तीन बार वहाँ से आदमी टाइप
की गई कॉपी देने आता था। हिन्दुस्तान समाचार का टेलीप्रिंटर नहीं था। आज के मुकाबले
उस जमाने का मीडिया बेहद सुस्त था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नाम पर सुबह और रात की रेडियो खबरें
ही थीं। टीवी लखनऊ में उसी साल नवम्बर में आया, जून में वह भी नहीं था। आने के बाद भी शाम की छोटी सी सभा होती थी। आज के नज़रिए से वह मीडिया नहीं था। केवल शाम को खेती-किसानी की बातें बताता और प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के भाषणों का विवरण देता था।
लखनऊ में उत्तेजक माहौल था। मैंने
1973 में राजनीति शास्त्र में एमए की परीक्षा पास की थी। मई में हमारी परीक्षा के दौरान
विश्वविद्यालय कैम्पस में पीएसी की टुकड़ी ने बगावत कर दी और उत्तर प्रदेश में पुलिस
आंदोलन शुरू हो गया। इसके साथ ही छात्र आंदोलन खड़ा हो गया। विश्वविद्यालय में आग लगा
दी गई। इस अराजकता के कारण मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी को जाना पड़ा और उनकी जगह
हेमवती नंदन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। सन 1974 में विधानसभा चुनाव
हुए, जिसमें कांग्रेस ही जीतकर आई, पर आंदोलन बढ़ता जा रहा था।
विधानसभा चुनाव के पहले की बात है। अमीनाबाद
के गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में जेपी की एक सभा थी, जिसमें पचासेक लोग भी नहीं थे। पर साल भर में कहानी बदल गई। सन 1975 में
उनका आंदोलन चरम पर आ गया। तब लखनऊ विश्वविद्यालय के कला संकाय के बराबर कैशियर ऑफिस
के पीछे वाले मैदान में हुई सभा में अपार भीड़ थी। पूरा मैदान भरा हुआ था।
बहरहाल 26 जून की सुबह मुझे समझ में नहीं
आता था कि इमर्जेंसी का मतलब क्या है। नेताओं की गिरफ्तारी वाली बात बता रही थी कि
कुछ खास बात तो है। हालांकि ड्यूटी तीन बजे वाली मिड शिफ्ट में थी, पर मैं भागा-भागा
दफ्तर पहुँचा। हमारे सम्पादक थे अशोकजी, जो भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से सेवानिवृत्त
होकर आए थे। वे वहाँ मौजूद लोगों को इमर्जेंसी के व्यावहारिक अर्थ बताने की कोशिश कर
रहे थे, खासतौर से सेंसरशिप के बारे में। उनके पास दूसरे विश्वयुद्ध का अनुभव था।
इमर्जेंसी का पूरा अर्थ समझने में मुझे
कुछ महीने लगे। हमारे अख़बार की प्रकाशक कम्पनी पायनियर लिमिटेड थी। कानपुर की स्वदेशी
कॉटन मिल्स के स्वामी जयपुरिया हाउस की कोशिश रहती थी कि वे राजनीति के पचड़ों में
न फँसें। पायनियर और स्वतंत्र भारत दोनों अखबारों ने इमर्जेंसी के राजनीतिक तौर-तरीकों
के साथ खुद को बहुत जल्द ढाल लिया। पायनियर लिमिटेड में काम करने का वह अनोखा अनुभव
था। विषयांतर न हो इसलिए मुझे लगता है कि फिलहाल इमर्जेंसी का पल्लू छोड़ना नहीं चाहिए।
अब हमारे पास जिलों से अफवाहों की शक्ल
में खबरें आने लगी, जिन्हें हम छाप नहीं सकते थे। अनेक संवाददाता खुद खबरें लिए हुए
लखनऊ चला आते थे। वे उन खबरों की जानकारी देते थे, जिन्हें छापना नहीं था। इनमें राजनीतिक
नेताओं की गतिविधि के अलावा नसबंदी कार्यक्रमों का विरोध और जनता की दूसरी परेशानियों
की खबरें होती थीं। सेंसरशिप का डर इतना भारी था कि सामान्य नागरिक असुविधाओं की खबरें
नहीं छप पाती थीं।
तकरीबन पौने दो साल बाद जब इमर्जेंसी
हटने का मौका आया, तब खबरों का जो विस्फोट हुआ, वह देखने लायक था। फरवरी-मार्च
1977 में हिन्दी अखबारों का प्रसार देखते ही देखते आसमान छूने लगा। मुम्बई से आने वाले
हिन्दी ब्लिट्ज ने अपने अंग्रेजी संस्करण को कहीं पीछे छोड़ दिया। जयपुर के राजस्थान
पत्रिका ने एक बड़े अख़बार का रूप ले लिया। इमर्जेंसी की कहानियों ने पाठकों का क नया
वर्ग तैयार कर दिया। इमर्जेंसी ने पत्रकारों की एक नई पौध तैयार की। इनमें से ज्यादातर
जेपी आंदोलन के कार्यकर्ता थे।
मैं ने जिस पीढ़ी के साथ पत्रकारिता शुरू
की थी, वह राजनीतिक पक्षधरता को व्यक्त करने में संकोच करती थी। वह अपनी तटस्थता को
लेकर संवेदनशील थी। नया पत्रकार खुद को आंदोलनकारी के रूप में देखता था। यह बहस आज
तक जारी है। मुझे लगता है कि इमर्जेंसी ने भारत को एक बड़ा झटका दिया। उसके बाद से
इस देश की सोच-समझ में बुनियादी बदलाव आ गया है। सबसे बड़ा सवाल लोकतांत्रिक संस्थाओं
को लेकर खड़ा हुआ। तमाम सवाल अब भी अनुत्तरित हैं।
इमर्जेंसी के साथ जुड़े घटनाक्रम ने हमारी
राजनीति के कुछ बुनियादी मंत्रों का आविष्कार किया। 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय
के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने जो फैसला सुनाया, वह ऐसे वक्त में आया जब एक आंदोलन अपने
चरम पर पहुँच रहा था। इस फैसले ने उस आंदोलन को वैधानिक आधार प्रदान कर दिया।
बताते हैं कि इंदिरा गांधी इस फैसले के
बाद ही अपना पद छोड़ने को तैयार थीं। पर उनके सहयोगियों ने उन्हें समझाया कि ऐसा करना
उनके और देश के हित में नहीं होगा। 18 जून को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में उनके
नेतृत्व में विश्वास व्यक्त करते हुए प्रस्ताव पास किया गया। इस प्रस्ताव को जगजीवन
राम ने पेश किया और यशवंतराव चह्वाण ने उसका समर्थन किया। इसी बैठक में देवकांत बरुआ
ने ‘इंडिया इज़ इंदिरा, इंदिरा इज़ इंडिया’ का नारा गढ़ा था।
उस वक्त पार्टी के भीतर एक धारणा यह भी
थी कि इंदिरा जी हट जाएं और उनकी जगह किसी वरिष्ठ नेता मसलन जगजीवन राम या सरदार स्वर्ण
सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया जाए। इन वरिष्ठ नेताओं ने औपचारिक रूप से इंदिरा गांधी
को बनाए रखने वाले प्रस्तावों का समर्थन किया। पर बताते हैं कि वे व्यक्तिगत रूप से
नेतृत्व परिवर्तन के पक्ष में थे।
इंदिरा गांधी को बनाए रखना इसलिए भी जरूरी
माना गया कि उनका व्यक्तित्व ही देश को संभाल सकता है। धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व की
जगह उनके परिवार ने ले ली। सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब नेतृत्व का
सवाल उठा तब पार्टी ने ज्यादा सोच-विचार नहीं किया। सन 1991 में किया, पर परिवार के
भीतर से विकल्प उपलब्ध नहीं था।
इमर्जेंसी के बाद देश ने पंजाब-आंदोलन
को देखा, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जबर्दस्त हत्याकांड देखा, फिर मंडल और कमंडल
के आंदोलनों को देखा, बाबरी मस्जिद का विध्वंस देखा। इमर्जेंसी की आधार-भूमि 1969 के
आसपास बन गई थी, जब कांग्रेस का विभाजन हुआ था और इंदिरा कांग्रेस नाम से एक नई पार्टी
उभरी थी। कालांतर में वही मुख्यधारा की कांग्रेस बनी रह गई। इमर्जेंसी वह विभाजक रेखा
है, जिसमें कांग्रेस की अपनी पुरानी धारा विलीन हो गई।
भारतीय लोकतंत्र की सफलता या उसके असमंजसों
के पीछे उसकी सांविधानिक संस्थाओं की ताकत, प्रतिबद्धता और असमंजस हैं। 1975 में जब
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द करने का
फैसला किया तो शायद पहली बार दुनिया को लगा कि भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाएं काम भी
कर सकती हैं। हाई कोर्ट के उस फैसले के बाद देश की राजनीति ने दूसरी करवट ली और संविधान
की किताब से ही आपातकाल की व्यवस्था को निकाला गया। प्रेस पर सेंसरशिप लागू की गई और
सामान्य व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को स्थगित किया गया।
इमर्जेंसी के दौरान सन 1976 में हमारी
संसद ने बयालीसवाँ संविधान संशोधन विधेयक पास करके सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक समीक्षा
अधिकार को सीमित कर दिया था। पर इससे क्या हुआ? 1977 में कांग्रेस पार्टी की भारी हार हुई। उसके बाद बनी संसद ने उस अधिकार
को पुनर्स्थापित किया। इसके अलावा ऐसी व्यवस्थाएं कीं ताकि इमर्जेंसी दुबारा न लगाई
जा सके। पर जन-भावनाओं की अभिव्यक्ति के तरीके अब भी स्पष्ट नहीं हैं। इसके लिए हमें
समुचित संस्थाओं की ज़रूरत है। हाल के वर्षों में चुनाव आयोग की भूमिका काफी स्पष्ट
हुई है। दूसरी ओर राज्यपालों के पद, संसद और
विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों की राजनीतिक भूमिकाओं के सवाल आज भी सामने हैं। पिछले
दिनों उत्तराखंड और अरुणाचल में ये सवाल फिर से उठे थे। एक लम्बे आंदोलन के बाद हमने
लोकपाल की व्यवस्था को स्वीकार किया, पर उसे नियुक्त नहीं कर पाए हैं।
दुर्भाग्य है हम संसद को शोर मचाने के
प्लेटफॉर्म के रूप में ही देख पा रहे हैं। संसद के हरेक सत्र के पहले तमाम विधेयकों
की सूची होती है। पिछले कई साल का अनुभव है कि यह सूची कभी पूरी नहीं होती। हाल के
वर्षों में सामाजिक बदलाव में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हाल में संसद के सामने
पैसे लेकर सवाल पूछने और सांसद निधि के दुरुपयोग के मामले सामने आए। कुछ सदस्यों की
सदस्यता खत्म हुई। यह व्यवस्थागत बदलाव ही है। इस बदलाव का प्रस्थान-बिन्दु भी इमर्जेंसी
है।
इमर्जेंसी को हम कड़वे अनुभव के रूप में
याद करते हैं। पर चाहें तो उसे एक प्रयोग के नाम से याद कर सकते हैं। दुनिया के सबसे
बड़े लोकतंत्र का एक पड़ाव। वह तानाशाही थी, जिसे लोकतांत्रिक अधिकार के सहारे लागू किया गया था और जिसका अंत लोकतांत्रिक
तरीके से हुआ। इंदिरा गांधी चुनाव हारकर हटीं थीं। इसका क्या मतलब है? या तो वे लोकतांत्रिक नेता थीं या उनकी तानाशाही
मनोकामनाएं इतनी ताकतवर नहीं थी कि इस देश को काबू में कर पातीं।
इतिहास का यह पन्ना स्याह है तो सफेद
भी है। इमर्जेंसी के दौरान भारतीय और ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का अंतर स्पष्ट हुआ। हमारी
लोकतांत्रिक संस्थाओं की ताकत और उनकी प्रतिबद्धता भी उसी आग में तपकर खरी साबित हुई
थी। भारत की खासियत है कि जब भी परीक्षा की घड़ी आती है वह जागता है। उस दौर ने हमें
कुछ सबक दिए थे। लोकतांत्रिक प्रतिरोध किस प्रकार हो। स्वतंत्रता कितनी हो और उसका
तरीका क्या हो? और यह भी कि उसपर बंदिशें किस प्रकार
की हों?
यह इमर्जेंसी का सबक था कि 1971 में जीत
का रिकॉर्ड कायम करने वाली कांग्रेस सरकार ने 1977 में हार का रिकॉर्ड बनाया। सन
1977 के पहले 1967 और 1957 ने भी कुछ प्रयोग किए थे। 1957 में देश में पहली बार कम्युनिस्ट
पार्टी की सरकार बनी। पश्चिम के विश्लेषकों के लिए 1957 का वह प्रयोग अनोखा था। चुनाव
जीतकर कोई कम्युनिस्ट सरकार कैसे बन सकती है? और 1959 में जब वह सरकार बर्खास्त की गई तो वह दूसरा अजूबा था। दोनों प्रयोग
शुद्ध भारतीय थे। इसके बाद 1967 में गैर-कांग्रेसवाद की दूसरी लहर आई जिसने गठबंधन
की राजनीति को जन्म दिया और जिसकी शक्ल आज भी पूरी तरह साफ नहीं हो पाई है।
इमर्जेंसी को लेकर इंदिरा गांधी का अपना
दृष्टिकोण था। 11 नवम्बर 1975 को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में उन्होंने कहा, इस देश को एक रोग लग गया है, जिसके इलाज के लिए दवाई की एक खुराक देनी होगी। वह
कड़वी हो तब भी। उनकी बात सही थी, पर यह बात भी सही है कि उन्होंने जिस कड़वी दवा की
तजवीज की थी, वह दवा किसी रोग के लिए नहीं थी, बल्कि अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए थी। निजी तौर पर इमर्जेंसी
के फायदे भी देखने को मिल रहे थे। शहर में अपराधों में कमी थी, रेलगाड़ियाँ टाइम से
चलने लगी थीं। सरकारी दफ्तरों में काम आसानी से होने लगा था। अखबारों और पत्रिकाओं
में राजनीतिक सामग्री की जगह खेल और मनोरंजन ने ले ली थी, जो हमें ज्यादा पसंद थी।
इमर्जेंसी एक अंतर्विरोध का परिणाम थी।
श्रीमती गांधी ‘गरीबी हटाओ’ के बेहद आकर्षक लोकलुभावन नारे की मदद से जीतकर आईं थीं।
पर उनके पास गरीबी हटाने का कोई रेडीमेड फॉर्मूला नहीं था। देश की संघीय व्यवस्था उन्हीं
दिनों परिभाषित हो रही थी। आर्थिक बदलाव के लीवर राज्य सरकारों के पास भी हैं। कोई
केन्द्र सरकार व्यापक बदलाव का दावा नहीं कर सकती। 1972 के चुनावों के बाद बहुसंख्यक
राज्यों में कांग्रेस सरकारें आ गईं थीं। इंदिरा गांधी के पास वामपंथी फॉर्मूला था।
कोयला खानों, इंश्योरेंस, बैंक,
माइनिंग कम्पनियों
का राष्ट्रीयकरण हुआ। विदेशी निवेश पर पाबंदियाँ लगीं। सम्पत्ति का अधिकार खत्म हुआ।
लगता था कि देश वामपंथी रास्ते पर जा रहा है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने कांग्रेस
का समर्थन करना शुरू कर दिया। वस्तुतः वह कोई पंथ नहीं था।
कुछ वामपंथी लेखकों की समझ कहती है कि
जिस वक्त भारतीय लोकतंत्र जनता की वास्तविक समस्याओं के समाधान की दिशा में आगे बढ़
रहा था किन्हीं ताकतों ने जनांदोलन को हवा देना शुरू कर दिया। उनकी नज़र में जेपी आंदोलन
प्रति-क्रांति थी। उनके अनुसार जनांदोलन हमेशा लोकतंत्र को मजबूत नहीं करते।
इंदिरा गांधी 1971 में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर चुनकर आईं थीं। जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं हुईं। सन 1974
के बाद गुजरात, बिहार और फिर पूरे देश में आंदोलनों की
बौछार होने लगी। जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति भी सिद्धांततः व्यक्ति और समाज
के बुनियादी बदलाव का आंदोलन था। पर हुआ क्या? उस आंदोलन के बाद भारतीय समाज के अंतर्विरोध खुलते ही चले गए। आनन्दपुर
साहब प्रस्ताव हालांकि 1973 में पास हुआ था, पर पंजाब-आंदोलन 1978-79 के बाद ही उग्र हुआ।
कुछ साल पहले अमर्त्य सेन ने न्यूयॉर्क
टाइम्स के एक ऑप-एड लेख में कहा था कि चीन से भारत अपने जीवंत लोकतंत्र और जागरूक मीडिया
में ज़रूर आगे है,
पर अपने नागरिकों
के स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य आवश्यक सेवाओं के मामले
में मामले में भारत से कहीं आगे है। वहाँ का नेतृत्व अपने लोगों के जीवन स्तर को बेहतर
बनाने के काम के प्रतिबद्ध है। उन्होंने जापान का उदाहरण दिया जहाँ के नेतृत्व ने
1868 में अपने समाज को पूर्ण साक्षर बनाने का संकल्प किया था, जिसके सुपरिणाम उसे बीसवीं सदी में मिले।
भारत को अपने लोकतंत्र का मॉडल राष्ट्रीय
आंदोलन से मिला, पर वर्तमान लोकतांत्रिक संस्थाओं को परिभाषित
करने में इमर्जेंसी की भूमिका है। खासतौर से भारतीय भाषाओं का मीडिया इमर्जेंसी की
देन है। इमर्जेंसी के पहले के भारतीय मीडिया की आंदोलनकारी भूमिका नहीं थी। यह सिर्फ
संयोग नहीं है कि बड़ी संख्या में हिन्दी के पत्रकार जेपी आंदोलन की देन हैं। अलबत्ता
वह पीढ़ी भी अब बूढ़ी हो गई है और ‘पोस्ट-लिबरलाइज़ेशन’ पत्रकार सामने आ रहे हैं, जिनकी वरीयताएं स्पष्ट
नहीं हैं।
इमर्जेंसी ने राजनीतिक गठबंधनों का व्याकरण
भी दिया। हमारे यहाँ राजनीतिक गठबंधन 1967 से शुरू हो गए थे, जब पहली बार कुछ राज्यों में संयुक्त विधायक दल सरकारें
बनीं। पर राष्ट्रीय स्तर पर पहली गैर-कांग्रेस सरकार 1977 में बनी थी। वह सरकार ढाई
साल से भी कम समय में ध्वस्त हो गई, पर इसके बीस साल
बाद तक गैर-कांग्रेसवाद का राजनीतिक सिद्धांत कायम रहा। पहले जनसंघ और बाद में भाजपा
बावजूद तमाम बुनियादी मतभेदों के 1989 की वीपी सिंह सरकार बनने तक इस गैर-कांग्रेसवाद
में जनता परिवार साथ थी।
6 दिसम्बर 1992 को भाजपा का रास्ता अलग
हो गया। अगले छह साल तक भाजपा अलग-थलग रही। 1996 से 1998 तक गैर-कांग्रेसवादी पार्टियाँ
कांग्रेस के समर्थन से सत्ता में रहीं, क्योंकि इस बीच
गैर-भाजपावाद का राजनीतिक दर्शन विकसित हो गया। 26 मई को जिस दिन मोदी सरकार के तीन
साल पूरे हुए, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विरोधी दलों के नेताओं को लंच पर बुलाया।
यह बैठक प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक प्रत्याशी खड़ा करने के विचार
के इर्द-गिर्द थी, पर असली उद्देश्य गैर-भाजपा गठबंधन की जमीन तैयार करना था।
सन 1975 में इमर्जेंसी लागू होने के चार
दिन पहले जनसंघ, संगठन कांग्रेस, भालोद, संसोपा और अकाली दल ने पाँच पार्टियों का जनमोर्चा
बनाया था। उसके 42 साल बाद पहिया पूरी तरह घूम चुका है। आज की राजनीति इमर्जेंसी-प्रेरित
नहीं है। गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के प्रबल प्रवर्तक शरद यादव और नीतीश कुमार आज
परोक्ष रूप में कांग्रेस के खेमे में खड़े हैं। इमर्जेंसी में कांग्रेस की धुर विरोधी
सीपीएम आज कांग्रेस के साथ है।
आपातकाल ने हमें संस्थाओं की महत्ता बताई।
चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और सीएजी की भूमिका को
स्पष्ट किया। सुप्रीम कोर्ट अब सीबीआई की भूमिका को स्पष्ट कर रहा है। जानकारी पाने
का अधिकार और लोकपाल कानून हमारे समाज की प्रतिक्रियाएं हैं जो लोकतंत्र को तानाशाही
रास्ते पर जाने से रोकती हैं। बावजूद इसके गरीबी हटाओ जैसे नारे हमारी राजनीति ने बिसराए
नहीं हैं।
इमर्जेंसी का नारा था,‘एक ही जादू–दूरदृष्टि, पक्का इरादा, कड़ी मेहनत तथा
अनुशासन।’ यह नारा तो आज भी लागू होता है। अब हम
टेक्नोट्रॉनिक युग में हैं। अब एक गैंगरेप के खिलाफ हजारों लाखों नौजवानों की भीड़
देर रात तक तीखी ठंड में इंडिया गेट से संसद भवन तक लोकतंत्र के कान तक अपनी नाराजगी
को ऊँचे स्वर में व्यक्त कर सकती है। अब सोशल मीडिया है, जिसके एक ट्वीट पर हजारों हुंकारें सुनाई पड़ने लगती हैं। एक जीवंत मीडिया
है, जो हर रात हमारे ड्राइंग रूम में गदर काटता है। फिर भी हम कनफ्यूज्ड हैं।
कोलकाता से निकलने वाली पत्रिका गंभीर समाचार में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment