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Monday, June 12, 2017

मध्य एशिया में भारत

अस्ताना में जो डिप्लोमैटिक गेम शुरू हुआ है, उसके दीर्घकालीन निहितार्थ को समझने की कोशिश करनी चाहिए। भारत और पाकिस्तान दोनों अब शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सदस्य हैं। यह संगठन आर्थिक और क्षेत्रीय सहयोग के अलावा सामरिक संगठन भी है। कुछ साल पहले जब भारत ने रूस की मदद से इस संगठन में प्रवेश की तैयारी की थी, तब हमारा लक्ष्य मध्य एशिया से जुड़ने का था। इस बीच चीनी प्रयास से पाकिस्तान भी इसका सदस्य बन गया। अब भारत और पाकिस्तान दोनों देश एक साथ इस संगठन में शामिल हुए हैं। भारत को अब इसका सदस्य रहते हुए चीन और पाकिस्तान दोनों पर नजर रखनी होगी। दूसरी और इस संगठन में शामिल होने के बाद पाकिस्तान और चीन के साथ रिश्ते बेहतर होने की सम्भावनाएं भी हैं। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाला वक्त किस करवट बैठता है।  

मध्य एशिया के साथ जुड़ने में सबसे बड़ी बाधा पाकिस्तान है, जिसने अभी तक हमारे सारे जमीनी रास्ते रोक रखे हैं। अभी तक एससीओ का स्वरूप मध्य एशिया और चीन तक सीमित था, पर अब इसमें दक्षिण एशिया के दो देश पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल हो गए हैं। ईरान तथा अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य में सदस्य बनने की सम्भावनाएं हैं। इसके अलावा नेपाल और श्रीलंका इसके डायलॉग पार्टनर हैं। यह चीनी नेतृत्व की महत्वाकांक्षाओं का विस्तार भी है, जो ‘वन रोड-वन बैल्ट (ओबोर)’ के रूप में इस इलाके में उभर कर आ रहीं हैं।
अस्ताना में ज्यादातर नेताओं ने चीन के ‘वन रोड’ कार्यक्रम के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त किए। भारत इस कार्यक्रम से सहमत नहीं है। हमें लगता है कि यह चीन की औपनिवेशिक नीति है, पर हमारी दिलचस्पी मध्य एशिया के देशों के साथ जुड़ने में है। अस्ताना में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मुलाकात पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से भी हुई। चीनी राष्ट्रपति ने इस सम्मेलन में सदस्य देशों के बीच अच्छे पड़ोसी के रूप में रहने की ‘पाँच वर्षीय संधि’ का सुझाव दिया है। ऐसी संधि का भारत-पाकिस्तान रिश्तों के संदर्भ में क्या मतलब हो सकता है, इसके बारे में हमें सोचना चाहिए।

यह भी महत्वपूर्ण है कि नवाज़ शरीफ ने अपने भाषण में कश्मीर का जिक्र नहीं किया। नरेन्द्र मोदी ने ‘ओबोर’ के बाबत अपनी आपत्तियों को यहाँ भी व्यक्त किया। एनएसजी की सदस्यता और मसूद अज़हर चीन के साथ जुड़े विवाद के विषय हैं। चीन-पाकिस्तान कॉरिडोर कश्मीर के जिस इलाके से गुजरता है, उसे लेकर भी विवाद है।

अस्ताना में मोदी ने कनेक्टिविटी को महत्वपूर्ण बताया साथ ही राष्ट्रीय सम्प्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और आतंकवाद से जुड़े सवाल भी उठाए। भारत और चीन के बीच इतने विवाद होने के बावजूद भविष्य के वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए सहयोग के तमाम आधार भी हैं। उधर रूस-चीन-पाकिस्तान तिकड़ी बनती दिखाई पड़ रही है। इसलिए सवाल उठता है कि एससीओ की सदस्यता से हमें क्या मिलेगा? क्या चीन की दिलचस्पी भारत और पाकिस्तान के विवादों को सुलझाने में है? इन्हें सुलझाने की सामर्थ्य चीन के पास है भी या नहीं? इस किस्म के सवालों का जवाब देने के लिए हमें इस महीने के अंत में मोदी-ट्रंप मुलाकात का इंतजार करना चाहिए।

भारतीय डिप्लोमेसी के सामने इस वक्त अमेरिका-रूस और चीन के साथ रिश्तों का मेल बैठाने की चुनौती है। रूस और चीन की धुरी बन चुकी है। देखते ही देखते चीन का रूस से पेट्रोलियम आयात कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। मध्य एशिया के अलावा अफ़ग़ानिस्तान में भी दोनों की दिलचस्पी है। चीन ने एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर विकास बैंक की नींव डालकर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के समांतर एक नई व्यवस्था कायम करने की शुरुआत कर दी है। भारत भी उसमें भागीदार है। यह व्यवस्था ऐसे देश कायम करने जा रहे हैं, जिनकी राजनीतिक और आर्थिक संरचना एक जैसी नहीं है और सामरिक हित भी एक जैसे नहीं हैं, फिर भी वे सहयोग का सामान इकट्ठा कर रहे हैं।

एससीओ में जाने के बावजूद भारत फिलहाल चीनी खेमे से बाहर है। माना यह जाता है कि हमारा देश अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चीन को संतुलित करेगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि हम अमेरिकी खेमे में हैं। अलबत्ता रूस और चीन हमें वहाँ जाने से रोक रहे हैं। वैश्विक स्थितियों को लेकर संशय कायम हैं। नब्बे के दशक से हालात बदले हैं। सामरिक लिहाज से हमारी अमेरिकी से निकटता बढ़ी है। भारत ने अमेरिका के साथ दस साल का सामरिक गठबंधन किया है, जिसे 2015 में अगले दस साल के लिए बढ़ा दिया गया है।

बुनियादी तौर पर भारत मध्य एशिया और अफ़ग़ानिस्तान में अपने आर्थिक हित देख रहा है। तुर्कमेनिस्तान से अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान होते हुए भारत तक 1680 किलोमीटर लम्बी पाइपलाइन (तापी) का निर्माण 2018 तक होना है। इस लाइन के निर्माण के लिए कई देशों की कम्पनियाँ आगे आईं हैं। आने वाले वक्त में इस पूरे इलाके में सड़कों, रेल लाइनों और पाइपलाइनों का जाल बिछेगा। इसके लिए बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर कम्पनियाँ सामने आएंगी। पर इस इलाके में इस्लामी ताकतों का आपसी टकराव भी बढ़ा है। इसमें शामिल देश आतंकवाद से पीड़ित हैं, पर आतंकवाद की सबकी परिभाषा अलग-अलग है।

मध्य एशिया रूस, चीन, अफ़ग़ानिस्तान और भारत के बीचों-बीच पड़ता है, जिसका सामरिक महत्त्व है। मध्य एशिया में ऊर्जा के बड़े भण्डार हैं। यह एक विशाल बाज़ार है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि एससीओ का गठन 2001 में हुआ था, जिस साल अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान विरोधी युद्ध शुरू किया था। मूल रूप से यह मध्य एशिया के देशों का आर्थिक सहयोग संगठन है, पर अब इसका सामरिक महत्व भी उजागर हो रहा है।

इस इलाके में अमेरिका की दिलचस्पी भी है। इसीलिए यह समझना जरूरी होगा कि भारत के बरक्स ट्रंप प्रशासन का नजरिया क्या है। जॉर्ज बुश और बराक ओबामा के दौर में दोनों देशों के रिश्ते जितनी तेजी से बढ़े थे, क्या वही गति जारी रहेगी या उसमें बदलाव होगा? बुश और ओबामा वैश्विक राजनीति में अमेरिका की भूमिका के संदर्भ में सोचते थे, जबकि डोनाल्ड ट्रंप बुनियादी तौर पर अमेरिका के हितों पर केन्द्रित हैं। पिछले साल तक वे चीन के खिलाफ बोल रहे थे और आज वे ‘माई फ्रेंड शी चिनफिंग’ के समर्थक नजर आ रहे हैं।

ट्रंप की दिलचस्पी वैश्विक हितों में नहीं है। भारत के साथ उनके रिश्ते लोकतांत्रिक देश या दूसरे नैतिक मूल्यों के नाते नहीं होंगे। दिक्कत यह भी है कि भारतीय डिप्लोमेसी तेजी से फैसले नहीं करती और हमारी आंतरिक राजनीति का राष्ट्रीय हित देखने का नजरिया अलग है। फिलहाल यह दिल थामकर बैठने का वक्त है। हरिभूमि में प्रकाशित

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