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Monday, April 10, 2017

ईवीएम नहीं, निशाने पर चुनाव आयोग की साख है

हाल में भिंड में ईवीएम मशीन को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ उसके पीछे जो बात सामने आ रही है, वह यह कि एक अखबार की अस्पष्ट खबर के कारण संदेश गया कि ईवीएम का कोई भी बटन दबाया गया तब हर बार कमल की पर्ची बाहर निकली। चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि ऐसा नहीं हुआ था। बात का बतंगड़ बना था। इसके लिए प्रत्यक्षतः वह अखबार भी जिम्मेदार है, जिसने विवाद बढ़ जाने के बावजूद यह स्पष्ट नहीं किया कि उसके संवाददाता ने क्या देखा। 

चुनाव आयोग और देश के कुछ राजनीतिक दलों के बीच ईवीएम को लेकर विवाद आगे बढ़े उससे पहले सरकार और सुप्रीम कोर्ट को पहल करके कुछ बातों को स्पष्ट करना चाहिए। जिस तरह न्याय-व्यवस्था की साख को बनाए रखने की जरूरत है, उसी तरह देश की चुनाव प्रणाली का संचालन करने वाली मशीनरी की साख को बनाए रखने की जरूरत है। उसकी मंशा को ही विवाद का विषय बनाने का मतलब है, लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट। इस वक्त हो यही रहा है, जनता के मन में यह बात डाली जा रही है कि मशीनों में कोई खराबी है।
इन संदेहों को दूर करने की जिम्मेदारी तीन संस्थाओं की है। सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग और तीसरा मीडिया। दुर्भाग्य से मीडिया ने ही संदेह के बीज बोये हैं। सरकार की भी जिम्मेदारी है, पर विवाद के केंद्र में सरकार है। अब कहा जा रहा है कि चुनाव आयोग सरकारी भाषा बोल रहा है। यानी आयोग को विवादास्पद बनाने की कोशिश है। यह प्रवृत्ति गलत है। राजनीतिक दलों की जो भी शिकायतें हों, उनका निवारण इस तरीके से होना चाहिए जिससे सांविधानिक संस्थाओं का मर्यादा बनी रहे। नब्बे के दशक से अब तक देश के राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग की कोशिशों में अड़ंगे ज्यादा लगाए हैं, सहयोग कम किया है।

दिल्ली के एक अंग्रेजी अख़बार ने चुनाव आयोग के हवाले से खबर छापी है कि आयोग ने उन लोगों को खुली चुनौती देने का फैसला किया है जो कहते हैं कि ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की जा सकती है। आयोग के सूत्रों के अनुसार एक नियत तारीख और समय पर राजनीतिक दलों की उपस्थिति में तकनीकी जानकारों और इन मामलों से जुड़ी संस्थाओं के प्रतिनिधियों को बुलाकर यह चुनौती पेश की जाएगी। चुनाव आयोग इसके पहले भी ऐसे अवसर देता रहा है। सन 2009 में 3 से 9 अगस्त तक ऐसा अवसर दिया गया था, जिसमें इस मशीन में गड़बड़ी साबित नहीं की जा सकी थी।

इसके बाद वोटर वैरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) प्रणाली को और जोड़ा गया है। पर यह प्रणाली ठीक से लागू हो उसके पहले ही उसे लेकर संदेह खड़े किए जाने लगे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा है, हमें 72 घंटे के लिए मशीन दे दीजिए हम उसका कोड पढ़कर उसे दुबारा लिखकर दिखा भी देंगे। यह चुनौती और प्रति-चुनौती सुनने में जितनी अच्छी लगती है, उतनी ही खतरनाक है। इसके पीछे चुनाव प्रणाली को पारदर्शी बनाने की कामना से ज्यादा राजनीतिक पॉइंट स्कोर करने की कामना ज्यादा है।

इतने संजीदा मसलों का फैसला सड़कों पर या टेलीविजन के स्टूडियो में करने की कोशिश हो रही है। शिकायत करने वालों के पास अवसर है कि वे चुनाव परिणामों को अदालत में चुनौती दें। वहाँ मशीन के गुण-दोषों पर भी विचार सम्भव है। आपके पास ऐसा तकनीकी ज्ञान है तो सुप्रीम कोर्ट जाकर पूरी चुनाव-व्यवस्था पर पुनर्विचार की अर्जी दीजिए। यह हमारे लोकतांत्रिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा भी होगा। आखिरकार जनता पारदर्शिता चाहती है।

हाल में पाँच राज्यों में चुनाव परिणाम आने के बाद सबसे पहले बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने कहा कि मशीनों में गड़बड़ी की वजह से हम हारे। चुनाव परिणामों के रुझान आ रहे थे कि टीवी पर मायावती का बयान आया। बसपा की ओर से उसके महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने इस आशय का एक पत्र चुनाव आयोग देकर अनुरोध किया कि अंतिम परिणामों की घोषणा करने से रोकें। आयोग ने अनुरोध माना नहीं। बाद में समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने भी इन्हीं सुरों में बोलना शुरू कर दिया।

बसपा के पत्र में यह बात भी कही गई थी कि यह मुद्दा बीजेपी को छोड़कर, लगभग सभी दलों द्वारा 2014 के लोकसभा निर्वाचनों से निरंतर उठाया गया है। इसी प्रकार की आपत्ति हाल में महाराष्ट्र नगरपालिका निर्वाचनों में भी उठाई गई है। बहरहाल आम आदमी पार्टी ने 11 मार्च के परिणामों पर आयोग के सामने 25 मार्च को अपनी शिकायत दर्ज कराई। इस पत्र के उत्तर में भी आयोग ने कहा है कि इन मशीनों के साथ छेड़छाड़ सम्भव नहीं है।

गौरतलब है सारी आपत्तियाँ तभी उठाई गई हैं, जब पार्टियाँ चुनाव में हारी हैं। जीतने पर ईवीएम से जनादेश निकलता है। जैसा दिल्ली और बिहार से निकला था। चुनाव आयोग सांविधानिक संस्था है। इसके पदाधिकारियों को लेकर शिकायत समझ में आती है। पर क्या शिकायत पूरी संस्था से है? इस मामले में ज्यादातर पूर्व चुनाव आयुक्त मानते हैं कि मशीनों में खामी नहीं है। बूथ कैप्चरिंग और अराजकता के लम्बे दौर से हम अपनी चुनाव व्यवस्था को बाहर निकाल कर लाए हैं। इसमें आयोग की भी भूमिका है। अब आयोग पर उस वक्त आरोप लगाए जा रहे हैं, जब वह पारदर्शिता की हर कसौटी को पूरा करना चाहता है। आरोप लगाने वालों की मंशा चुनाव सुधार की होती तब भी बात थी। यहाँ केवल राजनीतिक हित-अनहित नजर आते हैं।

हाल में भिंड का जो वीडियो वायरल हुआ है। वह इस चिंता को बढ़ाता है। इसमें मीडिया की भूमिका भी संशय के घेरे में है। इसलिए इस घटना की जाँच जल्द से जल्द पूरी होनी चाहिए और तथ्यों को जनता के सामने लाया जाना चाहिए। मीडिया में यह खबर सनसनीखेज तरीके से पेश की गई है। इसमें यह भी बताया गया है कि सरकारी अधिकारी ने पत्रकारों को जेल भेजने की धमकी दी है। अलबत्ता एबीपी चैनल के भोपाल संवाददाता ब्रजेश राजपूत की यह फेसबुक पोस्ट पढ़ने से लगता है कि मीडिया में बात का बतंगड़ बनाया गया है।

ब्रजेश ने लिखा है, ‘भिंड का ये वो वीडियो है जो पूरे देश में चर्चा का विषय बना है। दरअसल ये मप्र की मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सलीना सिंह है जो भिंड जिले की अटेर विधानसभा उपचुनाव के लिये 9 अप्रेल को होने वाले मतदान की तैयारियों का जायजा लेने गयीं थी। पर्ची वाली ईवीएम मशीन का यहां उपयोग होना है। मशीनों के डेमो के लिये जब उन्होंने जो पहली बटन दबाया तो उसमें से बीजेपी के कमल के फूल वाली पर्ची निकली। बस फिर क्या था सब हंस पड़े। इस पर मैडम ने कवरेज कर रहे पत्रकारों पर एक लूज जुमला उछाल दिया अरे इसे दिखाना नहीं। ये डेमो चल रहा है दिखाया तो थाने में बैठा दूंगी। बस यही जुमला भारी पड़ गया।… बाद में उन्होंने मशीन में दो बटन और दबाये जिस पर कांग्रेस और निर्दलीय प्रत्याशी की पर्ची निकली, मगर इस घटना ने ईवीएम मशीनों की निष्पक्षता को लेकर चल रही बहस को हवा दे दी है...।’

मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने हँसते हुए जिस तरीके से बात कही है, वह क्या किसी को धमकी लगती है? न बोलने में धमकी का अंदाज है और न माहौल में धमकी का सन्नाटा है। इतनी हँसी-खुशी धमकी? मीडिया में यह खबर मसखरी के अंदाज में पेश हुई। बावजूद इसके राजनीतिक दलों ने इसे संजीदा अंदाज में उठाया। किसी मीडिया हाउस ने इस मसखरी की पड़ताल नहीं की। प्रेस कौंसिल जैसी किसी संस्था को इसकी जाँच करनी चाहिए।

इन मशीनों में खोट होता तो चुनाव आयोग के भीतर भी असहमतियाँ होतीं। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एम एस गिल, वी एस संपत, एसवाई कुरैशी और एचएस ब्रह्मा ने इन मशीनों का बचाव किया है। एसवाई कुरैशी का कहना है कि ईवीएम मशीनों में पर्ची की सुविधा एक बेहतर विकल्प है, जिसके जरिए आरोपों को खत्म किया जा सकता है। ब्रह्मा ने कहा कि मैं इस बात को लेकर काफी चिंतित हूं कि राजनीतिक दल ईवीएम मशीनों पर सवाल उठा रहे हैं। मशीन की विश्वसनीयता पर कोर्ट ने भी भरोसा जताया है। अलबत्ता वोटर वैरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) के जरिए मशीन पर उठने वाले 90 फीसदी आरोपों को खत्म किया जा सकता है। इस कदम के बाद भारत में चुनाव प्रक्रिया दुनिया में सबसे अधिक विश्वसनीय प्रक्रिया होगी।

सन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को यह निर्देश दिया था कि ईवीएम मशीनों में वीवीपैट की सुविधा शुरु की जाए, जिसपर आयोग ने आश्वासन दिया है कि वह 2019 तक इस सुविधा को देशभर में ईवीएम मशीनों पर लागू करेगा। यह व्यवस्था लागू करने के लिए आयोग को जिस रकम की जरूरत है, उसकी व्यवस्था सरकार को करनी है। चुनाव आयोग इस संबंध में कानून मंत्रालय को पत्र भी लिख चुका है कि उसे 16 लाख वीवीपैट लगाने के लिए 3100 करोड़ रुपए की राशि की जरूरत है। यह प्रणाली लागू हो उसके पहले ही उसे लेकर जो बातें मीडिया में उछली हैं, उनपर भी विचार किया जाना चाहिए।

इलेक्ट्रॉनिक मशीन पर संदेह उठाने के साथ कहा जाता है कि अमेरिका में चुनाव इस मशीन से नहीं होता, तो हमारे यहाँ क्यों होता है? सच यह है कि अमेरिका में अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग प्रणालियाँ हैं। वहाँ तो कई जगह घर में ईमेल से बैलट भेजा जाता है। कहते हैं कि यूरोप के कुछ देशों में इलेक्ट्रॉनिक मशीन पर रोक है। इसपर एसवाई कुरैशी का कहना है कि यूरोप के चार देशों में ईवीएम मशीन बैन है, लेकिन यह फोक्सवैगन की धोखाधड़ी का मामला है। एक देश में ईवीएम मशीन के फेल होने के बाद चारों देशों ने इस मशीन को बैन कर दिया। ये सभी मशीनें नीदरलैंड में बनती हैं।

लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि जर्मनी की कोर्ट ने ईवीएम मशीन पर रोक लगाई है। कुरैशी कहते हैं कि किसी ने कोर्ट के फैसले को नहीं पढ़ा है। मैंने फैसले को पढ़ा है, जिसमें कहा गया है कि लोग चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना चाहते हैं। लोगों की मांग है कि जब वे वोट देते हैं तो उन्हें यह नहीं दिखता है उनका वोट किसे गया है। कोर्ट ने ईवीएम मशीनों को बैन किया है, लेकिन इसकी तकनीक पर सवाल नहीं उठाया है। भारत की वीवीपैट इस मामले में यूरोपीय तकनीक से एक कदम आगे है।



महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमपर जर्मन कोर्ट का फैसला नहीं लागू होता, बल्कि हमारी सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू होता है। अपने हालात और तकनीक का फैसला हम करेंगे। हमारी मशीन दुनिया में नाम कमा रही है। कर्नाटक हाईकोर्ट ने इसे ‘भारत का गौरव’ कहा है। बल्कि नेपाल, भूटान, नामीबिया, केन्या और फिजी जैसे देशों ने भारतीय ईवीएम के इस्तेमाल की पहल की है। अमेरिका सहित कई देशों में भी इस किस्म के सिस्टम का प्रयोग शुरू हो रहा है। अफसोस इस बात का है कि अंगुली ईवीएम पर नहीं, चुनाव आयोग पर उठ रही है। पांचजन्य में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन परमवीर - धन सिंह थापा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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