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Sunday, March 5, 2017

अतिशय चुनाव के सामाजिक दुष्प्रभाव

बिहार में नरेन्द्र मोदी के प्रति नाराजगी जताने के लिए उनकी तस्वीर पर जूते-चप्पल चलाए गए। इस काम के लिए लोगों को एक मंत्री ने उकसाया था। उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी कुंदन चंद्रावत ने केरल के मुख्यमंत्री पिनारी विजयन का सिर काटकर लाने वाले को इनाम देने की घोषणा की थी, जिसपर उन्हें संघ से निकाल दिया गया है। हाल में कोलकाता की एक मस्जिद के इमाम ने नरेन्द्र मोदी के सिर के बाल और दाढ़ी मूंड़ने वाले को इनाम देने की घोषणा की थी। ये मौलाना इससे पहले तसलीमा नसरीन की गर्दन पर भी इनाम घोषित कर चुके थे।

सन 2014 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के एक नेता ने मोदी की बोटी-बोटी काटने की घोषणा कर दी थी। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब किसी कोने से अभद्र, अमर्यादित और कुत्सित बयान जारी नहीं होता हो। खासतौर से चुनाव के दौरान यह बयान-बारी अपने चरम पर होती है। ऐसा लगता है कि हमारे जीवन में जहर ही जहर है। सदाशयता, सच्चरित्रता, ईमानदारी और सज्जनता हमारे बीच है ही नहीं। 
विडंबना यह है कि जैसे-जैसे संवाद के साधन बढ़ रहे हैं, जहर बढ़ता जा रहा है। क्या यह हमारे समाज का दोष है? या लोकतंत्र की अनिवार्य परिणति, जिसमें केवल चुनाव जीतने पर सारा जोर है, लोक-शिक्षण, जागरूकता और जनमत तैयार करने पर ध्यान है ही नहीं? कहीं यह हमारे नेताओं की नासमझी की निशानी है? या वोटर की नादानी?
लोकतंत्र जनमत या पब्लिक ओपीनियन के सहारे चलता है। यह गोलबंदी पब्लिक ओपीनियन में ही सबसे ज्यादा नजर आती है। सारी कोशिश इस बात की है कि किसी एक नेता या दल के समर्थकों के मन में दूसरे दल या नेताओं के लिए नफरत की आग भर दी जाए। जब जनता के नेता दूसरे समूह के नेताओं के लिए अपमान भरी टिप्पणी करते हैं, तो उन्हें खुशी होती है। इससे अपनी जमात में नेता की जमीन मजबूत होती है। सरकार और प्रशासन की नीतियाँ गईं कूड़ेदान में। यह कबायली युद्धों जैसा है। सामाजिक ध्रुवीकरण की फसल उगाने के लिए बेहतरीन जमीन है। इससे नेता का वोट-आधार कायम रहता है। क्या लोकतंत्र हमने इसीलिए अपनाया है?
इस जहरीले संवाद में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका है। अब ज्यादातर राजनीतिक दल सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं। सोशल मीडिया का सकारात्मक उपयोग भी सम्भव है। पर राजनीतिक संवाद पर गौर करें तो पाएंगे कि तीन चौथाई संवाद नकारात्मक है। हालत यह है कि मुख्यधारा का मीडिया भी अब ह्वाट्सएप की भाषा और रूपकों का इस्तेमाल कर रहा है। अखबारों और वैबसाइटों की रिपोर्टें ह्वाट्सएप संदेशों जैसी लगने लगी हैं। अपुष्ट सूचनाएं फैला कर किसी को भी भ्रष्ट, देश-द्रोही, साम्प्रदायिक, चरित्रहीन वगैरह-वगैरह साबित किया जा रहा है।
लोकतंत्र को बहस और विमर्श से चलने वाली व्यवस्था कहा जाता है। कहा जाता है कि लोकतंत्र में विपक्ष माने दूसरा पक्ष होता है, विरोधी नहीं। पर हेट स्पीच तो सीधे-सीधे दुश्मनी है। क्या है इसका कारण? इसे खोजने की कोशिश करनी चाहिए। मोटे तौर पर पहली बात यह समझ में आती है कि राजनीति सबसे आकर्षक करियर के रूप में उभरी है। इसमें सबसे नीची पायदान पर भी व्यक्ति के करोड़पति बनने का चांस है।
हम मानकर चलते हैं कि राजनेता समाज सेवक नहीं, फिक्सर और दलाल है। अपना काम कराना है तो उसकी मदद लेनी होगी। आमतौर पर प्रशासनिक काम उनके ही होते हैं, जिनकी पहुँच व्यवस्था के भीतर तक है। आप व्यापारी हैं, सरकारी कर्मचारी हैं, किसी चीज पर अवैध कब्जा करके बैठे हैं या नए प्रोफेशनल। सरकारी कामों के लिए आपको दलाल चाहिए। गरीब जनता को भी मददगार की जरूरत होती है। राजनेताओं के कार्यकर्ताओं का नेटवर्क है। शहरी झुग्गी-झोपड़ियों का प्रबंधन इन कार्यकर्ताओं के सहारे होता है। बदले में मिलता है एक बना बनाया वोट बैंक।
लोकतांत्रिक व्यवस्था लगातार परिभाषित हो रही है और नीचे तक जा रही है। इसके कारण चुनाव का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। हर फैसला चुनाव से होगा। इसलिए चुनाव को प्रभावित करना जरूरी है। चुनाव के संचालन के लिए अब प्रोफेशनल एजेंसियाँ मैदान में कूद पड़ी हैं। कम से कम तीन जगह पर चुनाव बड़े बिजनेस के रूप में सामने आया है। पहला है पार्टियों के चुनाव अभियान को संचालित करना। दूसरा है सोशल मीडिया को हैंडल करना। तीसरे, ओपीनियन पोल में कई तरह की बिजनेस एजेंसियाँ कूद पड़ीं है। यह सोशल रिसर्च का हिस्सा है। इसमें उपभोक्ता सामग्री से जुड़ी रिसर्च होती है, जिसका हिस्सा बनकर उभरा है चुनाव से जुड़ा ओपीनियन पोल।
लोकतंत्र की सफलता के लिए उसके भागीदारों की जागरूकता बड़ी शर्त है। हम न तो चुनाव से बच सकते हैं और न उनके विकल्प पेश कर सकते हैं। उन्हें बेहतर बना सकते हैं और इन दुष्प्रभावों को कम कर सकते हैं। लोक-शिक्षण की स्थिति जब तक नहीं सुधरेगी, जाति, सम्प्रदाय और दूसरी संकीर्ण बातें उसे प्रभावित करती रहेंगी। अपने लोगों के साथ रहने में सुरक्षा का भाव होता है। वोटर को अपने समूह के साथ रहना सुरक्षा का भाव देता है। उसे विश्वास होना चाहिए कि व्यवस्था पारदर्शी और न्यायपूर्ण बनेगी।
चुनाव के तमाम सकारात्मक प्रभाव भी हैं। स्क्रूटनी का दबाव प्रशासन और राजनेता को भटकने से रोकता है। हाल के वर्षों में हम कुछ राजनेताओं और अफसरों को जेल जाते देख रहे हैं। यह प्रवृत्ति बढ़ेगी। यह इसलिए नहीं कि बेईमानी बढ़ी है, बल्कि इसलिए है, कि न्याय-व्यवस्था ने अपना काम करना शुरू कर दिया है। सजाओं की भूमिका डेटरेंट की है। जनता के जागरूक होने से यह काम बढ़ेगा। हमारा लोकतंत्र नया है। अभी अमेरिका और पश्चिमी देशों में भी शिकायतें खत्म नहीं हुई हैं। बहरहाल इसके लिए चुनाव से जुड़े कानूनों में सुधार की जरूरत भी है। पाठकों को चाहिए कि वे विधि आयोग की सिफारिशों को पढ़ें।
रोज-रोज का चुनाव भी एक समस्या है। पिछले कुछ समय से यह बात कही जा रही है कि देश को एक बार फिर से ‘आम चुनाव’ की अवधारणा पर लौटना चाहिए। एक संसदीय समिति ने इसका रास्ता बताया है। और एक मंत्रिसमूह ने भी इस पर चर्चा की है। साल भर चुनाव होते रहने से साधनों का दुरुपयोग तो होता ही है, साथ ही नकारात्मक बातें भी बहुत ज्यादा होती हैं। यह देखा गया है कि चुनाव के आसपास हेट स्पीच ज्यादा होती है। इसके अवसर कम होंगे तो सामाजिक टकराव भी कम होगा। वोटर को भी अतिशय चुनावबाजी से मुक्ति मिलनी चाहिए।
हरिभूमि में प्रकाशित

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