योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने की
खबर पहली बार में चौंकाती है. पर किसी स्तर पर गहराई से विचार भी किया गया होगा.
इतना साफ है कि पार्टी ने भविष्य में ज्यादा खुले एजेंडा के साथ सामने आने का
फैसला कर लिया है. मध्य प्रदेश में पार्टी ने उमा भारती को तकरीबन इसी मनोभावना से
प्रेरित होकर मुख्यमंत्री बनाया था. वह प्रयोग सफल नहीं हुआ. पर योगी का प्रयोग
सफल भी हो सकता है.
बीजेपी अभी तक अपनी विचारधारा का बस्ता पूरी तरह
खोल नहीं रही थी. उत्तर प्रदेश के चुनाव ने उसका मनोबल बढ़ाया है. इस साल गुजरात
और हिमाचल प्रदेश के चुनाव और होने वाले हैं. उसके बाद अगले साल कर्नाटक में
होंगे. योगी-सरकार स्वस्थ रही तो पार्टी एक मनोदशा से पूरी तरह बाहर निकल आएगी. फिलहाल
बड़ा सवाल यह है कि इस प्रयोग का फौरी परिणाम क्या होगा? क्या उत्तर प्रदेश की
जनता बदलाव महसूस करेगी?
पार्टी के पास अच्छा खासा बहुमत है. प्रयोग काम
नहीं करेगा तो रास्ता बदलने के लिए पर्याप्त समय पास में है. योगी-मुख्यमंत्री की कुछ
खामियाँ हैं और कुछ अच्छाइयाँ . उनके पास प्रशासनिक अनुभव नहीं है. वे सीधे
मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. वह भी देश के सबसे बड़े राज्य के. पर वे अनुभवहीन भी
नहीं हैं. उनके पास सलाहकारों की फौज है. केन्द्र सरकार उनके साथ है. उनकी कड़क
छवि के सकारात्मक पहलू भी हैं.
आर्थिक गतिविधियों की लिहाज से प्रदेश के पिछले
पन्द्रह साल निराशाजनक रहे हैं. पचास के दशक में उत्तर प्रदेश के संकेतक राष्ट्रीय
औसत से ऊपर रहते थे. आज सब पलट चुके हैं. आर्थिक विकास दर, प्रति व्यक्ति आय,
स्वास्थ्य, शिक्षा-साक्षरता जैसे संकेतकों की गाड़ी उलटी दिशा में जा रही है. इस
उलटी गाड़ी को सीधी पटरी पर लाना योगी सरकार की बड़ी चुनौती होगी.
प्रदेश की तीन सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं.
कानून-व्यवस्था, आर्थिक विकास और सामाजिक सद्भाव. प्रदेश के वोटर ने अखिलेश सरकार
के ‘काम बोलता है’ नारे को नामंजूर किया
है. वोटर के पास विकास के आंकड़ों की बही नहीं है, पर सच यह है कि अखिलेश सरकार के
कार्यकाल में राज्य की विकास दर गिरी थी. मायावती के शासन में उत्तर प्रदेश की
विकास दर 7 फीसदी थी, जो अखिलेश सरकार के दौर में औसतन 5.6 फीसदी हो गई.
अखिलेश सरकार के पहले
साल यह दर 3.9, दूसरे साल में 4.7 और तीसरे साल में 6.2 थी. कृषि विकास दर 2012-13
में 5.2 फीसदी थी जो 2013-14 में 0.5 फीसदी हो गई. इसके पीछे खराब मॉनसून का हाथ
भी था. पर कुल मिलाकर यह राज्य मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड,
हरियाणा और दिल्ली से पीछे रहा है.
कानून-व्यवस्था का मोर्चा और भी खराब रहा.
मुजफ्फरनगर दंगों का आरोप बीजेपी पर लगता है, पर उसे बढ़ने का मौका कैसे मिला? आरोप है कि पिछले पन्द्रह साल से उत्तर प्रदेश
अराजकता का शिकार है. थानों में इलाके के दबंगों की तूती बोलती है. यह इसलिए
क्योंकि राजनीति का इसमें सीधा हस्तक्षेप था. देखना होगा कि योगी-मुख्यमंत्री के
राज में थानों में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ेगा या कम होगा.
यदि सामान्य व्यक्ति की पहुँच शासन-प्रशासन तक रही, यदि पुलिस का काम अपने इलाके के अपराधियों की लगाम कसने पर रहा और पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासित करने में सफल रही, तो सरकार का आधे से ज्यादा काम हो जाएगा. पर ये यदि ही महत्त्वपूर्ण हैं. राशन कार्ड बनवाने से लेकर जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र पाने तक में सामान्य व्यक्ति को काफी परेशान होना पड़ता है. इन परेशानियों को दूर कर दीजिए. हिन्दू या मुसलमान, सबकी परेशानियाँ एक हैं.
अमित शाह ने कहा था कि देश की डबल डिजिट ग्रोथ
के लिए उत्तर प्रदेश में डबल डिजिट ग्रोथ की जरूरत है. उनका दावा था कि बीजेपी की
सरकार आई तो वह पाँच साल में पिछले 15 साल के पिछड़ेपन को दूर करने की कोशिश
करेगी. सवाल केवल सांस्कृतिक पहचान का नहीं, लोगों की उम्मीदें पूरी करने का है.
प्रदेश में हालांकि सरकार ने अभी बाकायदा काम
शुरू नहीं किया था कि खबरें आने लगीं कि यांत्रिक पद्धति से काम करने वाले पशु-वध
केन्द्र बंद किए जा रहे हैं. अमित शाह ने कहा था प्रदेश में दुधारू पशु खत्म होते
जा रहे हैं, जबकि यहाँ दूध उत्पादन की अच्छी संभावनाएं हैं.
पशुधन को बचाना किसान की जरूरत है.
बीजेपी के चुनाव संकल्प में छोटे किसान के लिए
कर्ज माफी और मंडी से लेकर मिट्टी की जाँच तक के कार्यक्रमों की घोषणा की गई है.
अब इन कार्यक्रमों को पूरा करने का वक्त आया है. किसानों की कर्ज माफी को लेकर
विशेषज्ञों का कहना है कि इससे गलत परम्परा पड़ेगी. देखना यह भी होगा कि पहले से
कमजोर अर्थ-व्यवस्था क्या इस बोझ को संभाल सकेगी. प्रदेश को पूँजी निवेश की जरूरत
है. योगी-सरकार निवेशकों को किस तरीके से आकर्षित करेगी?
मोदी सरकार का नारा है ‘सबका साथ,
सबका विकास.’ चुनाव प्रचार के दौरान विरोधी दलों के बीच इस बात की
होड़ थी कि मुसलमान वोट किसे मिलेगा. यह बात स्थापित थी कि मुसलमान वोटर बीजेपी को
हराने के लिए वोट देगा. शायद इस बात के प्रचार ने प्रति-रणनीति को जन्म दिया.
भाजपा की माइक्रो सोशल इंजीनियरी ने हिन्दू समाज के अंतर्विरोधों को भड़काने वाली
रणनीति को निष्फल कर दिया. पर अब चुनाव की राजनीति नहीं ‘राजधर्म’ का समय है.
भाजपा ने अपने चुनावी
घोषणापत्र में वादा किया था कि हर थाने में एक एंटी-रोमियो दल का गठन किया जाएगा. ‘लव जेहाद’ को लेकर योगी
आदित्यनाथ के बयानों को मीडिया में काफी जगह मिली थी. इनके कारण उनकी छवि आक्रामक
बनी. क्या योगी मुसलमानों के डर को कम करने वाला बयान देंगे? योगी-शासन के पहले छह
महीने देखने के बाद ही किसी निष्कर्ष पहुँचा जा सकेगा.
योगी का नाम सुनने के
बाद सामान्य व्यक्ति की पहली प्रतिक्रिया है, अब मंदिर का मामला उठेगा? अमित शाह ने
कहा था, हम सांविधानिक मर्यादा के अंदर रहकर
मंदिर निर्माण करेंगे. क्या इस दौरान सुप्रीम कोर्ट का फैसला आएगा? इस समस्या का
क्या कोई अंतिम समाधान होगा?
कहा जा रहा है कि प्रचंड बहुमत मिलने के बाद बीजेपी की हिचकिचाहट
खत्म हो गई है और वह खुलकर फैसले करेगी. ऐसा है तो मुख्यमंत्री का नाम तय करने में
इतनी देर क्यों लगी? दो-दो उप मुख्यमंत्री क्यों हैं? क्या यह असमंजस नहीं
है? क्या यह वैसी ही जातीय राजनीति नहीं, जिसके बीज
कांग्रेस ने बोए थे?
inext में प्रकाशित
बहुत ही बढ़िया article है ..... ऐसे ही लिखते रहिये और मार्गदर्शन करते रहिये ..... शेयर करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। :) :)
ReplyDeletebhut hi bdiya likha hai aapne sir
ReplyDelete