उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की असाधारण जीत के कारणों का विश्लेषण अभी लम्बे समय तक चलेगा, पर एक बात साफ है कि विरोधी दलों ने यह समझने की कोशिश नहीं की है कि ऐसा हो क्यों रहा है। वे शुद्ध रूप से जातीय और साम्प्रदायिक जोड़-तोड़ के भीतर समस्या का समाधान देख रहे हैं। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि वे जिसे समाधान समझ रहे हैं, वह उनकी समस्या है।
इस जीत का अनुमान नरेन्द्र मोदी को था या नहीं था, कहना मुश्किल है, पर यह
अनुमान से कहीं बड़ी है। नरेन्द्र मोदी बहुत बड़े ब्रांड के रूप में उभरे हैं। यह
देश मजबूत, दृढ़ और तेजी से फैसला करने वाले नेता को पसंद करता है। जो नेता इस
रास्ते पर चलना चाहता है उसके लिए रास्ते भी बना देता है। ऐसा इंदिरा गांधी के साथ
हुआ और अब मोदी के साथ हो रहा है। सामान्य वोटर यह मानता है कि कोई काम कर सकता है
तो वह मोदी है।
मोदी के आगमन के दस साल पहले से कांग्रेस पार्टी ने देश के प्रधानमंत्री पद को निरीह और अशक्त बनाकर अपनी राह में जो काँटे बोए थे, वे उसे अनंत काल तक परेशान करेंगे। बहरहाल मोदी के नेतृत्व पर भारी विश्वास के जोखिम भी हैं, पर उन्हें उभरने में वक्त लगेगा। फिलहाल उनकी यह जीत गुजरात और हिमाचल में होने वाले चुनाव के संदर्भ में पार्टी के आत्मविश्वास को बढ़ाएगी। अब जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा की ताकत बढ़ गई है। सबसे बड़ी बात 2019 के चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश ने अपना दरवाजा भाजपा के लिए खोल दिया है।
बेशक दिल्ली की गद्दी पर बैठने के तीन साल बाद भी ‘मोदी चमत्कार’ कायम है और जनता का विश्वास उनमें बना हुआ है। उत्तर
प्रदेश की जीत की तुलना 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत से की जा
सकती है। भाजपा विरोधियों को लगता था कि मोदी पर नोटबंदी भारी पड़ेगी। ऐसा हुआ
नहीं। नोटबंदी के विपरीत प्रभाव को भी वोटर झेलने को तैयार है, बशर्ते नेता काम
करता नजर आए। मोदी ने गरीब आदमी के मन में जगह बना ली है। उनकी यह सबसे बड़ी सफलता
है।
पूछा जा सकता है कि यदि मोदी का इतना ही प्रताप था तो पंजाब और गोवा में भाजपा
सफल क्यों नहीं हो पाई? इन दोनों राज्यों की एंटी इनकम्बैंसी ने भी काम किया। चुनाव की पहेली को समझना
आसान नहीं है। गोवा में भाजपा के वोट कांग्रेस से ज्यादा हैं और सीटें कम। इसी तरह
पंजाब में अकाली और भाजपा के कुल वोट आम आदमी पार्टी से ज्यादा हैं, पर सीटें कम
हैं। मणिपुर में भी बीजेपी के वोट कांग्रेस से ज्यादा हैं। वहाँ की स्थिति इन
पंक्तियों के लिखे जाने तक अस्पष्ट थी, पर यदि वहाँ भाजपा सरकार बनी तो पूर्वोत्तर
में भाजपा नई कहानी लिखेगी।
तीन अनुमान सहज रूप से निकाले जा सकते हैं। पहला, इस साल के अंत में होने वाले
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव में अब भाजपा कार्यकर्ता ज्यादा उत्साह से काम
करेगा। दूसरे, इस साल जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा ज्यादा ताकत
के साथ उतरेगी। तीसरे, राज्यसभा में भाजपा की ताकत बढ़ेगी। उसे विधेयकों को पास
कराने में दिक्कत नहीं होगी। पूर्वोत्तर के राज्यों में पैठ होने से पार्टी का
राष्ट्रीय स्वरूप निखर कर आएगा। दूसरी ओर गैर-भाजपा दल राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन
बनाने के बारे में सोचने लगेंगे। कांग्रेस को अब मजबूरन किसी गठबंधन में शामिल
होना होगा, क्योंकि अब यह पार्टी अकेले लड़ने की स्थिति में नहीं बची है।
भाजपा को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में विलक्षण जीत मिली है। सन 2019 के
चुनाव के पहले पार्टी को इस जीत का शिद्दत से इंतजार था। यह जीत न मिली होती तो
2019 का रास्ता मुश्किल हो जाता, क्योंकि यह इस बात का संकेत होता कि मोदी की
लोकप्रियता का ग्राफ अब उतार पर है। पर ऐसा हुआ नहीं। इन पंक्तियों के लिखे जाने
तक यूपी का वोट शेयर पूरी तरह स्पष्ट नहीं था, पर यह स्पष्ट था कि यह 2014 से
थोड़ा सा ही कम है और 40 फीसदी के आसपास है।
बिहार की पराजय ने इस बात का संकेत दिया था कि विरोधी एक हो जाएं तो मोदी को
हराया जा सकता है। महागठबंधन ने जीत हासिल की। यह महागठबंधन मूल रूप से सामाजिक
शक्तियों की गोलबंदी है। इसके भीतर कई तरह के अंतर्विरोध छिपे बैठे थे। इसके जवाब
में बीजेपी ने यूपी में माइक्रो सोशल इंजीनियरिंग की। यदि सपा, बसपा और कांग्रेस
भी एक जगह आ जाएं तो भाजपा को हराना मुश्किल होगा। गठबंधन होते ही सारे वोट एक ही जगह
नहीं आ जाते। इस बार के चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन को सन 2014 में मिले वोट से
एक फीसदी वोट कम मिले हैं। यदि बसपा भी इस गठबंधन में शामिल होगी तो वोट ट्रांसफर का
अंदेशा बना रहेगा।
इस चुनाव में स्थानीय
सवालों पर राष्ट्रीय प्रश्न हावी थे। सवाल था कि पिछले तीन साल में मोदी की
लोकप्रियता बढ़ी या घटी? दूसरे, कांग्रेस का क्या
होने वाला है? उसकी गिरावट रुकेगी या बढ़ेगी? उसकी लोकप्रियता में गिरावट खुद बोल रही है। नई ताकत के रूप में आम आदमी पार्टी की भी
परीक्षा थी। गोवा और पंजाब में उसके नई ताकत बनकर उभरने की उम्मीद थी। पर लगता है
कि उसकी ताकत बढ़ने के बजाय घटी है। सन 2014 के लोकसभा चुनावों के आधार पर आम आदमी पार्टी को 33 सीटें मिलतीं। तीन
साल बाद आज उसकी लोकप्रियता में गिरावट साफ नजर आ रही है।
अब सवाल है कि भविष्य की
राजनीति कैसी होने वाली है? विपक्षी गठबंधन के अलावा क्या
राष्ट्रीय राजनीति में मुद्दे भी नए होंगे? विपक्ष ने अभी तक
साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता को लेकर मोदी सरकार पर हमला बोला है। ऐसा करते हुए
मुस्लिम वोट बैंक, मुस्लिम-दलित एकता और ओबीसी वोट बैंक जैसे जुमले सुनाई पड़े
हैं। इनके पीछे भी संकीर्णता है। मोदी की भाजपा को भी आगे जाने के लिए अपने जनाधार
में सभी जातियों और सम्प्रदायों को जोड़कर रखना होगा। क्या भाजपा समावेशी पार्टी
की भूमिका निभाएगी? उसने उत्तर प्रदेश में एक भी मुस्लिम प्रत्याशी
चुनाव में नहीं उतारा। पर क्या उसके पीछे खड़ा वोटर इतना एकांगी है?
यदि पार्टी मुसलमानों को अपने साथ लाने की कोशिश करेगी तो क्या उसके समर्थक विरोध
करेंगे? ऐसा नहीं लगता। भाजपा का नया समर्थक वर्ग कट्टरपंथी नहीं है।
नोटबंदी ने देश
के तकरीबन हर व्यक्ति को छुआ है। उसके नकारात्मक पक्ष को मोदी ने गरीबों की और
मोड़ने की कोशिश की है। उनकी शब्दावली में ‘गरीब’ शब्द अब बार-बार आ रहा है।
गरीबों को नोटबंदी ने परेशान किया है, पर उन्हें इस बात पर
संतोष है कि अमीरों के घर से नोट पकड़े जा रहे हैं। कोई है जो अमीरों के काले धन
को निकालने की कोशिश कर रहा है। बीजेपी की इस गरीब-मुखी राजनीति की परीक्षा भी उत्तर
प्रदेश में हुई और इसमें सफलता मिली। नए साल के दूसरे ही दिन लखनऊ में बीजेपी की
परिवर्तन रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यदि हिंदुस्तान का
भाग्य यदि बदलना है तो सबसे पहले उत्तर प्रदेश का भाग्य बदलना होगा। यही उत्तर
प्रदेश अगले दो साल में देश की और प्रकारांतर से भाजपा की भाग्य रेखा को बदल सकता
है। क्या ऐसा होगा? देखते रहिए....
हरिभूमि में प्रकाशित
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