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Monday, February 20, 2017

आप अपराधी हैं तो राजनीति में आपका स्वागत है

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले देश में राजनीति और अपराध के रिश्तों पर रोशनी डालते हैं. इनमें एक है पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन को सीवान जेल से हटाकर दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखने का फैसला. शहाबुद्दीन पर 45 मामलों में विचार चल रहा है और 10 मामलों में उन्हें दोषी पाया गया है. इन सारे मामलों को तार्किक परिणति तक पहुँचते-पहुँचते कितना समय लगेगा, कहना मुश्किल है. फिर भी संतोष की बात है कि देश की उच्चतम अदालत ऐसे मामलों में पहल ले रही है.


हाल में जिस दूसरे मामले ने ध्यान खींचा, वह है तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता और उनके कुछ सहयोगियों की आय का मामला. इस फैसले के बाद तमिलनाडु की राजनीति में उथल-पुथल है. भारत में राजनीति और अपराध के बीच गहरे रिश्ते हैं. अक्सर अपराधों से जुड़े नेता अपने इलाकों में खासे लोकप्रिय होते हैं और चुनावों की जीत या हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इसीलिए उनका महत्व बना रहता है. आरजेडी के पूर्व सांसद शहाबुद्दीन अपने समर्थकों व विरोधियों के बीच रॉबिनहुड के रूप में जाने जाते थे. कहते हैं कि एक दौर में सीवान में कानून का राज नहीं, शहाबुद्दीन का शासन चलता था.
बड़ा सच यह है कि दागी राजनेताओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के अनुसार पंद्रहवीं लोकसभा में 543 सांसदों में से 158 पर गंभीर मामले दर्ज थे. सोलहवीं लोकसभा में इनकी संख्या 186 है. राजनेताओं के खिलाफ तमाम झूठे मामले भी दर्ज होते हैं, पर जिस तरह से बड़े घोषित अपराधी राजनीति में प्रवेश कर गए हैं, वह चिंता का विषय है. यह कहानी सभी राजनीतिक दलों की है.


पार्टियाँ इस दलदल से निकालना भी नहीं चाहतीं. जुलाई 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले का करीब-करीब सभी पार्टियों ने विरोध किया था, जिसमें कहा गया था कि यदि अदालत विधायिका के किसी सदस्य को दो साल या उससे अधिक की सजा सुनाती है, तो उसकी सदस्यता बरकरार नहीं रहेगी. इस फैसले को प्रभावी होने से रोकने के लिए सरकार ने अध्यादेश जारी करने की कोशिश की, जो हास्यास्पद तरीके से पूरी नहीं हो पाई. उसी फैसले की परिणति में तमिलनाडु की शशिकला का राजनीतिक भविष्य अंधकार में चला गया है.


भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति की महत्वपूर्ण भूमिका है. सामाजिक बदलाव में भी राजनीति सहायक है. सबसे नीचे के स्तर का राजनीतिक कार्यकर्ता केवल राजनीति नहीं करता. वह होली-दीवाली, रामलीला, मुहर्रम और क्रिसमस से लेकर हर तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदार बनता है. लोगों के राशन कार्ड बनवाने से लेकर पुलिस थाने तक के काम कराता है. दूसरी ओर यह धारणा भी है कि सारे राजनेता बेईमान हैं.


यह बात सारी राजनीति पर लागू नहीं होती है. एक स्तर पर ऐसे राजनेता हैं जो देखते ही देखते करोड़पति-अरबपति बनना चाहते हैं और बन भी जाते हैं. उनपर सामंती प्रवृत्तियाँ हावी हैं. इस राजनीति में सामंती और आधुनिक प्रवृत्तियों का अद्भुत मेल और टकराव है. राजा और प्रजा का भाव है. सन 2009 की बात है किसी आपराधिक मामले में गिरफ्तार हुए यूपी के प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी का वक्तव्य अखबारों में प्रकाशित हुआ. उनका कहना था, मैं राजनीति में आना चाहता हूँ. उनकी माँ को विश्वास था कि बेटा राजनीति में आकर मंत्री बनेगा. सवाल है वे राजनीति में क्यों आना चाहते थे? सेवा करने के लिए!


आर्थिक घोटालों और वित्तीय अनियमितताओं के मूल में जाएं तो इनका रिश्ता देश की चुनाव व्यवस्था से जुड़ेगा. अधिकतर रकम राजनीति से जुड़े लोगों तक जाती है. चुनाव-खर्च दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने चुनौती है. यह रकम काले धन के रूप में होती है, जो अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है. इसके कारण गलत प्रशासनिक निर्णय होते हैं. तमाम दोषों के मूल में यह बैठी है. पर लोकतंत्र का मतलब चुनाव लड़ने वाली व्यवस्था मात्र नहीं है. चुनाव की पद्धति को दुरुस्त करना भी उसमें निहित है.


मिलन वैष्णव की पुस्तक हाल में आई है ‘ह्वेन क्राइम पेज़: मनी एंड मसल इन इंडियन पॉलिटिक्स.’ में इन बातों का विश्लेषण किया गया है कि राजनीति में अपराधियों का स्वागत क्यों है? एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने 2013 में आपराधिक रिकॉर्ड वाले जन-प्रतिनिधियों पर एक सर्वे किया. यह सर्वे भी नहीं था, बल्कि इलेक्शन वॉच के दस साल के आँकड़ों का विश्लेषण था. इसका पहला निष्कर्ष था कि जिसका आपराधिक रिकॉर्ड जितना बड़ा है उनकी संपत्ति भी उतनी ज्यादा है. दूसरा यह कि चुनाव में साफ-सुथरे प्रत्याशियों के जीतने की सम्भावना 12 प्रतिशत है और आपराधिक पृष्ठभूमि वालों की 23 प्रतिशत.


आमतौर पर चुनाव में कम साधनों वाला कोई भला व्यक्ति खड़ा हो जाए तो हम पहले ही मान लेते हैं कि यह तो जीतने से रहा. चुनाव का नियम है कि जो जीत सकता है वही लड़े. अपराधी माने दमदार. मिलन वैष्णव का कहना है कि सन 1947 में आजादी के बाद अपराधियों ने अपने बचाव को लिए राजनेताओं को घूस देने की शुरुआत की. चूंकि सत्ताधारी राजनेता ही मददगार हो सकता है, इसलिए मदद करने वाले ज्यादातर कांग्रेसी थे. अस्सी के दशक के बाद से कांग्रेस का क्षय होने लगा. ऐसे नेताओं को पैसा देने का कोई मतलब नहीं रहा.


फिर वही हुआ, जैसे कार निर्माता टायर भी बनाने लगते हैं. अपराधी खुद राजनेता बन गए या एक-दो बेटों को राजनीति में डालना शुरू कर दिया. विस्मय की बात है कि वोटर ने भी इन्हें जिताना शुरू कर दिया. इसके लिए थोड़ी सी सामाजिक पहचान और कुछ समाज-सेवा की भूमिका भी होती है. सड़क, स्कूल और अस्पताल बनवाना. सरकारी सिस्टम में काम भी वही करवा सकता है, जिसकी पकड़ हो. सो पकड़ वालों को मौका मिलने लगा.


जब से देश में निजी सिक्योरिटी का चलन बढ़ा है बाउंसरों की माँग भी बढ़ी है. बाउंसर कौन हैं? अक्सर देशी पहलवान और सुरक्षा सेनाओं से रिटायर हुए जवान यह काम करते हैं. इसी तरह जब ईएमआई की वसूली का काम बढ़ा तो वसूली करने वालों की जरूरत बढ़ी. गली-मोहल्लों में खाली बैठने वालों को काम मिला. देश में अब लगभग साल भर कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं. इसके लिए कार्यकर्ता चाहिए. ये छोटे स्तर के लोग हैं. इन्हें संभालने के लिए बड़े स्तर के प्रबंधक भी उपलब्ध हैं. यह सारी बात का एक पहलू है. राजनीति पर मसल और मनी पॉवर हावी है. पर जरूरत माइंड पॉवर की है. पार्टियों को चाहिए कि उसे भी राजनीति का हिस्सा बनाएं.
प्रभात खबर में प्रकाशित

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