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Friday, January 27, 2017

जल्लीकट्टू बनाम आधुनिकता

तमिलनाडु में जल्लीकट्टू आंदोलन ने कई तरह के सवाल खड़े किए हैं. पहला सवाल आधुनिकता और परंपरा के द्वंद्व का है. उससे ज्यादा बड़ा सवाल सांविधानिक मर्यादा का है. मामला सुप्रीम कोर्ट में होने के बावजूद राज्य सरकार ने अध्यादेश लाने की पहल की. इसके पहले जनवरी 2016 में केंद्र सरकार ने कुछ पाबंदियों के साथ जल्लीकट्टू के खेल को जारी रखने की एक अधिसूचना जारी की थी. अदालत ने उस अधिसूचना को न केवल स्थगित किया, बल्कि केंद्र सरकार से अपनी नाराजगी भी जाहिर की थी.

तमिलनाडु के राजनीतिक दल लोक-लुभावन राजनीति के कारण पशु-क्रूरता विरोधी कानून के उल्लंघन को सही ठहरा रहे हैं. दूसरे जल्लीकट्टू के समर्थन में जो आंदोलन खड़ा हुआ उसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं. यह सच है कि मरीना बीच पर चले लंबे आंदोलन के शुरूआती दिनों में हिंसा नहीं हुई, पर आंदोलन के आखिरी दिनों में कुछ शरारती तत्वों ने जिस तरीके से हिंसा भड़काई उससे यह भी जाहिर हुआ कि मौके का फायदा उठाने वालों को सक्रिय होते देर नहीं लगती है.
हिंसक तत्वों में श्रीलंका के लिट्टे, नक्सली और पाकिस्तानी आईएसआई एजेंटों तक के शामिल होने का संदेह है. इस आंदोलन में जल्लीकट्टू के अलावा अकाल, गरीबी और खेती-किसानी की दुर्दशा जैसे मसले भी जुड़ते चले गए. स्वाभाविक है कि जब हजारों-लाखों की भीड़ विरोध के लिए कहीं जमा होगी तो उसका फायदा उठाने की कोशिश भी कोई कर सकता है. इसलिए भविष्य के आंदोलनों में इस बात का ध्यान रखने की जरूरत है.
जल्लीकट्टू का शाब्दिक अर्थ होता है 'सांड़ को गले लगाना'. 'जल्ली' का मतलब होता है सिक्का और 'कट्टू' का मतलब होता है बांधना. इसकी शुरुआत ईसा-पूर्व काल में हुई थी जब सोने के सिक्कों को सांड़ की सींग में बांधकर इसे खेला जाता था. इसमें सांडों को भड़काकर भीड़ में छोड़ दिया जाता है. इसके बाद लोग उनके सींगों को पकड़कर उन्हें काबू में करते हैं. सांडों को भड़काने के लिए उन्हें शराब पिलाने से लेकर उनकी आंखों में मिर्च डाला जाता है और उनकी पूंछों को मरोड़ा तक जाता है, ताकि वे तेज दौड़ सकें.
इस खेल का आयोजन स्वयंवर की तरह होता था. जो बहादुर बैल पर काबू पाने में कामयाब होता था लड़की उसे अपने वर के रूप में चुनती थी. इस खेल की तुलना स्पेन की बुलफाइटिंग से भी की जाती है, लेकिन यह खेल स्पेन के खेल से अलग है. इसमें बैलों को मारा नहीं जाता. बैल को काबू करने वाले युवक किसी तरह के हथियार का इस्तेमाल भी नहीं करते हैं। अलबत्ता बैलों को आक्रामक बनाने के तौर-तरीकों को लेकर आपत्ति है.
पिछले कई दशकों में तमिल सिनेमा में भी जल्लीकट्टू का चित्रण 'औरत का प्यार पाने' के लिए दिखाने के कई उदाहरण हैं. 1956 में एआईएडीएमके नेता, एमजी रामचंद्रन ने पहली बार इस खेल को बड़े पर्दे पर दिखाया और मक़सद था एक औरत का प्यार जीतना.'थाइकुप्पिन थरम' फ़िल्म के क्लाइमैक्स में एमजीआर जल्लीकट्टू में जीतकर अपनी मर्दानगी का लोहा मनवाते हैं और प्रेमिका को जीत लेते हैं. रजनीकांत की फ़िल्म 'मुरत्तू कलई' (आवारा बदमाश सांड) में भी जल्लीकट्टू का दृश्य था.
इस खेल से जुड़ी परंपरा पर किसी को आपत्ति नहीं है, पर इसका समाधान एकतरफा नहीं ह सकता. सबसे बड़ी जिम्मेदारी तमिलनाडु सरकार की है, जिसने प्रदर्शनकारियों को कानून तोड़ने का पहले तो मौका दिया. स्थिति बिगड़ी तो पुलिस की अराजकता को वह रोक नहीं पाई. राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए. सरकार को अध्यादेश लाने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए थी. ऐसा उसने आंदोलनकारियों को खुश करने के इरादे से किया.
जल्लीकट्टू के नकारात्मक पहलू भी हैं. सन 2010 से 2014 के बीच जल्लीकट्टू खेलते हुए 17 लोगों की जान गई थी और 1,100 से ज्यादा लोग जख्मी हुए थे. पिछले 20 सालों में जल्लीकट्टू की वजह से मरने वालों की संख्या 200 से भी ज्यादा थी. इस खेल में जिस तरह सांडों को आक्रामक बनाया जाता है, वह पशुओं के प्रति क्रूरता है. इस वजह से 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने पशुओं के प्रति बर्बरता-निषेध अधिनियम के तहत इस खेल पर रोक लगा दी थी.
इस पर रोक लगाने की माँग एनिमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया और पीपल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल (PETA), कॉम्पैशन अनलिमिटेड प्लस एक्शन (CUPA) ने की थी. उनके साथ पशुओं के अधिकार के लिए बने काफी सारे संगठन भी इसमें शामिल थे. तमिलनाडु सरकार और ज्यादातर राजनीतिक दल इस रोक के पक्ष में कभी नहीं रहे. तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने जल्लीकट्टू के आयोजन के लिए मोदी सरकार से अध्यादेश जारी करने की अपील की. मामला सुप्रीम कोर्ट में है और अदालत ने इस साल भी पोंगल यानी 14 जनवरी से पहले फैसला सुनाने से इनकार कर दिया था. पर जनांदोलन को देखते हुए राज्य सरकार ने अध्यादेश जारी किया, जिसपर केंद्र की सहमति भी मिली.
बहरहाल आंदोलन थम गया है, पर न्यायिक प्रक्रिया की अनदेखी से एक गलत परंपरा भी पड़ी है. इसके पहले भी हमने देखा कि राज्य सरकारें आपसी विवादों में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करती रही हैं. तमिलनाडु सरकार ने जनता को न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करने की सलाह देने के बजाय ऐसा जाहिर करने की कोशिश की कि केंद्र सरकार ने पशु-क्रूरता विरोधी अधिनियम-1960 में संशोधन करते वक्त तमिल-परंपराओं का ध्यान नहीं रखा. यह ओछी राजनीति है.
हम अपनी व्यवस्था को आधुनिक और लोकतांत्रिक तभी बना सकते हैं, जब हम दृढ़ निश्चय के साथ खड़े हों. किस परंपरा का पालन हमें करना है और किसे त्यागना है, इसका निश्चय भी समझदारी के साथ होना चाहिए. राज्य सरकार को अदालत के सामने अपनी धारणाओं को उचित तर्कों के साथ सामने आना चाहिए. अदालत के सामने यह बात कही जा सकती थी कि सीधे-सीधे पाबंदी लगाने के बजाय वैकल्पिक रास्ते खोजने की कोशिश की जाए. आधुनिकता अचानक नहीं आती उसे समय लगता है.  

http://inextepaper.jagran.com/1083825/INext-Kanpur/26-01-17#page/15/1

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