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Friday, December 9, 2016

‘तीन तलाक’ यूपी ही नहीं, लोकसभा चुनाव तक को गरमाएगा

यूपी के चुनाव के ठीक पहले तीन तलाक के मुद्दे का गरमाना साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाएगा. काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया क्या होती है. यदि सभी दल इसके पक्ष में आएंगे तो इसकी राजनीतिक गरमी बढ़ नहीं पाएगी. चूंकि पार्टियों के बीच समान नागरिक संहिता के सवाल पर असहमति है, इसलिए इस मामले को उससे अलग रखने में ही समझदारी होगी.

इस मामले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी का बीजेपी और शिवसेना ने स्पष्ट रूप से समर्थन किया है. कांग्रेस ने भी उसका स्वागत किया है. लेकिन कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अदालत से धर्म के मामले में दखलअंदाजी न करने की अर्ज की है. ऐसी टिप्पणियाँ आती रहीं तो बेशक यह मामला यूपी के चुनाव को गरमाएगा.

दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया है, "मैं बड़ी विनम्रतापूर्वक अदालतों से अनुरोध करना चाहूंगा कि उन्हें धर्म और धर्मों के रीति रिवाज में दखलंदाजी नहीं करना चाहिए.” दरअसल सवाल ही यही है कि यदि कभी मानवाधिकारों और सांविधानिक उपबंधों और धार्मिक प्रतिष्ठान के बीच विवाद हो, तब क्या करना चाहिए. दिग्विजय सिंह यदि कहते हैं कि धार्मिक प्रतिष्ठान की बात मानी जानी चाहिए, तब उन्हें इस सलाह की तार्किक परिणति को भी समझना चाहिए. इस प्रकार की टिप्पणियाँ करके वे बीजेपी के काम को आसान बना देते हैं.

दिग्विजय सिंह का ट्वीट साफ तौर पर मुसलमानों के बड़े वर्ग के बीच लोकप्रियता हासिल करने के इरादे से किया गया है. स्वाभाविक रूप से इसपर विपरीत प्रतिक्रिया भी होगी. दिक्कत यह है कि सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने में कई तरफ से हवा दी जाती है. यही राजनीति चुनाव के वक्त विमर्श की अंतर्धारा का निर्माण करती है. तीन तलाक का मामला एक तरफ मानवाधिकार से जुड़ा है वहीं अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों से भी इसका वास्ता है.

हो सकता है कि ज्यादातर मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक के पक्ष में हों, पर कुछ न कुछ तो विरोध कर ही रहीं हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ‘ट्रिपल तलाक’ और समान नागरिक संहिता के सवाल को मिलाकर देखता है और इसे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप मानता है, जैसाकि दिग्विजय सिंह ने लिखा. पर कोई तो संस्था होगी, जो इसकी सांविधानिकता और उपादेयता पर विचार करेगी.

पर्सनल लॉ बोर्ड ने विधि आयोग की प्रश्नावली का बहिष्कार करके यह भी स्पष्ट कर दिया कि उसे सरकार की मंशा पर यकीन नहीं है. पर यह सरकार की बात नहीं, भारतीय राष्ट्र-राज्य की बात है. यह नहीं मान लेना चाहिए कि भारतीय व्यवस्था में एकतरफा फैसले हो जाएंगे. हमारा सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा है. संसद पर भी हमें भरोसा करना चाहिए.

तीन तलाक से हटकर बहस पहले समान नागरिक संहिता पर जाती है, फिर ‘हिंदू राष्ट्र’ के अंदेशे पर. इससे मुस्लिम मन उद्विग्न होता है. दूसरी ओर भाजपाई राजनीति इसे ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ पर रोक लगाने की कोशिश बताती है. सन 1985 में जब शाहबानो का मामला उठा था, दिल्ली में कांग्रेस सरकार थी, जिसने प्रगतिशील मुसलमानों की बात नहीं सुनी थी. पर इस वक्त दिल्ली में उसके उलट व्यवस्था है. इसका वोट की राजनीति से जुड़े होना भी इसे समस्या का रूप देता है. उत्तर प्रदेश के चुनाव ऐसा ही एक मौका है. पर यह मामला उत्तर प्रदेश के चुनाव तक का ही नहीं है. यह उससे आगे भी जाएगा.

थोड़ी देर के लिए मसले को मानवाधिकार के नजरिए से भी देखें. पत्नी के भरण-पोषण के मामले में इस्लामी व्यवस्थाएं हैं, पर शाहबानो ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत न्याय माँगा था. पत्नी, नाबालिग बच्चों या बूढ़े मां-बाप, जिनका कोई सहारा नहीं है, और जिन्हें उनके पति/पिता ने छोड़ दिया है, वे धारा 125 के तहत भरण-पोषण की माँग कर सकते हैं. इसके तहत पति या पिता का जिम्मा बनता है.

अदालत ने जब फैसला किया तो राजीव गांधी की सरकार ने कानून ही बदल दिया. पर वह समस्या का समाधान नहीं था, बल्कि आधुनिक न्याय-व्यवस्था से पलायन था. समस्या के इस निराले समाधान के कारण राजीव गांधी पर संकीर्ण हिंदू जनमत का इतना भारी दबाव बना कि उन्हें खुश करने के लिए अयोध्या के मंदिर के ताले खुलवाए गए. यह दूसरी बड़ी गलती थी. एक पक्ष का मन रखने के चक्कर में दूसरे को नाराज करने और फिर दूसरे को खुश करने लिए पहले को नाराज करने वाली राजनीति यानी ‘भावनाओं की खेती’ ज्यादा बड़ी समस्या है.

पिछले साल काशीपुर की शायरा बानो द्वारा सुप्रीम कोर्ट में ‘तीन तलाक’ को चुनौती दिए जाने के बाद समान नागरिक संहिता का मामला भी उठ गया. उसी वक्त यह बात समझ में आने लगी थी कि 2017 के यूपी चुनाव में यह मसला भी शामिल हो जाएगा. वस्तुतः यह मूल सवाल नहीं है. यह एक बड़े मसले का हिस्सा है. ऐसे मसलों को सार्वजनिक रूप से उठाकर उनका समाधान नहीं खोजा जा सकता. इनके लिए समुदायों को बैठकर समझ बनानी चाहिए. नजरिया सुधार-परक और समस्या के समाधान का होना चाहिए.

सायरा बानो की याचिका आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जानना चाहा कि सरकार क्या कर सकती है. शायद सरकार को इसका ही इंतजार था. उसने इस मामले पर विधि आयोग से रिपोर्ट माँगी, जिसमें समान नागरिक संहिता को भी जोड़ लिया. विधि आयोग ने पिछले दिनों एक प्रश्नावली जारी की है, जिसका जवाब देने से पर्सनल लॉ बोर्ड ने इंकार कर दिया था. सरकार ने अदालत के सामने और दूसरे मंचों पर भी स्पष्ट किया है कि वह ‘तीन तलाक’ के खिलाफ है. सरकार का कहना है कि सउदी अरब, पाकिस्तान, बांग्लादेश और इराक जैसे मुस्लिम देशों में इसपर रोक है या बंदिशें हैं. भारत में ही शिया इसे सही नहीं मानते.

अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दो महिलाओं की याचिका पर कहा है कि महिलाओं को तीन तलाक देना क्रूरता है और असांविधानिक है. यह महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन है. हाई कोर्ट के अनुसार पवित्र कुरान में भी तलाक के इस तरीके को सही नहीं माना गया है. यह अदालत का ऑब्जर्वेशन है. कानूनी नजरिए से यह मामला भी अंततः सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा. पर यह टिप्पणी कानून लाने में केंद्र सरकार के हाथ मजबूत करेगी. अलबत्ता यदि सरकार कानून लाने की कोशिश करेगी तो उसकी प्रतिक्रिया भी वैसी ही होगी, जैसी दिग्विजय सिंह की है.

मानकर चलिए कि यह छोटे दौर की राजनीति नहीं है. और न यह उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद खत्म हो जाएगी. यह 2019 के चुनाव तक भी चले तो कोई आश्चर्य नहीं. अलबत्ता उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों के ठीक पहले इस विषय पर चर्चा एक तरफ भारतीय जनता पार्टी के लिए उपयोगी होगी, वहीं मुसलमानों के ध्रुवीकरण में भी यह मददगार होगी. मुस्लिम वक्फ बोर्ड पहले से इस बात पर जोर देता रहा है कि हमारे धार्मिक नियमों में राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए.

यह सवाल जब भी उठेगा तब उसे राजनीति से प्रेरित माना जाएगा. पर इसका समाधान इसी राजनीति को करना होगा. पर उसके पहले मुसलमानों को आत्मचिंतन करना चाहिए. पिछले दिनों पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने ‘ट्रिपल तलाक’ के संदर्भ में मुसलमानों से आग्रह किया था कि वे खुद को सुधारने के बारे में विचार करें. सारी धार्मिक मान्यताएं आधुनिक जीवन के साथ मेल नहीं खातीं. यह किसी एक धर्म की बात नहीं है.

व्यवस्था की बारीकियों पर विचार करने का वक्त भी आ रहा है. संविधान का अनुच्छेद 13(1) कहता है, ‘इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियाँ उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग के उपबंधों से असंगत हैं.’ जब इस अधिकार की बात आई तब सन 1952 में मुम्बई हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी कि अनुच्छेद 13 पर्सनल लॉ को कवर नहीं करता है. अब सरकार इस फैसले पर भी सुप्रीम कोर्ट की राय चाहती है.

याचिका दायर करने वाले ने पूछा था, पर्सनल लॉ के कारण कोई महिला प्रताड़ित होगी तो क्या किया जाएगा? इसपर अदालत ने कहा था, महिला प्रताड़ना को सामने रखेगी तो अदालत हस्तक्षेप करेगी. अदालत अब हस्तक्षेप कर रही है.
फर्स्ट पोस्ट में प्रकाशित आलेख का कुछ और विस्तारित रूप

1 comment:

  1. कांग्रेस तो ऐसे हर सुधार व कानून का विरोध करेगी जिस से उसे मुसलमानों के वोट मिलने की संभावना हो हालाँकि कांग्रेस ने अब तक मुसलमानों को दहशत में ला कर केवल उनका शोषण ही किया है मुसलमान इस बात को नहीं समझते वे बदलते परिवेश के साथ भी सुधरना नहीं चाहते उनके कठमुल्ले ठेकेदार उन आम मुस्लिमों को धर्म के नाम पर डरा धमका कर अपनी जागीर को बचाये रखना चाहते हैं , ऐसे में यदि सामाजिक शांति व सौहार्द्र भी बिगड़ता है तो भी कांग्रेस को परहेज नहीं

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