मोदी सरकार के ढाई साल पिछले महीने पूरे हो गए. अब ढाई साल बचे हैं. सन
2008-09 की वैश्विक मंदी के बाद से देश की अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर वापस लौटाने
की कोशिशें चल रहीं हैं. यूपीए सरकार मनरेगा, शिक्षा के अधिकार और खाद्य सुरक्षा
जैसे लोक-लुभावन कार्यक्रमों के सहारे दस साल चल गई, पर भ्रष्टाचार के आरोप उसे ले
डूबे. मोदी सरकार ‘विकास’ के नाम पर सत्ता में आई है. अब उसका
मध्यांतर है, जब पूछा जा सकता है कि विकास की स्थिति क्या है?
पिछले ढाई साल में सरकार की उपलब्धियों के रूप में ‘स्वच्छ भारत’ और ‘बेटी बचाओ’ जैसे कार्यक्रमों को विकास
नहीं कहा जा सकता. ‘मेक इन इंडिया’ के परिणाम आने में कुछ
समय लगेगा. इनमें से ज्यादातर योजनाएं रक्षा उद्योगों से जुड़ी हैं. स्मार्ट सिटी
जैसे कार्यक्रम भविष्योन्मुखी हैं, पर वे लोगों के रोजगार की गारंटी नहीं देते.
हमें हर साल डेढ़ करोड़ लोगों को नए रोजगार देने हैं. कैसे देंगे?
अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए पूँजी निवेश
बड़ी समस्या है. भारत सरकार ने राजमार्ग निर्माण और रेलवे पर निवेश के साथ काम
शुरू किया है. हाल में जारी आँकड़ों के अनुसार भारत में अप्रैल, 2000 से सितंबर, 2016 तक 300 अरब अमेरिकी डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आया है. इसमें से करीब 33 प्रतिशत मॉरिशस के रास्ते आया है. औद्योगिक नीति एवं संवर्धन
विभाग के आंकड़ों के मुताबिक मौजूदा वित्तवर्ष की पहली छमाही (अप्रैल-सितंबर) में देश
में 21.62 अरब डॉलर का एफडीआई हुआ है.
औद्योगिक उत्पादन के आँकड़े अभी उत्साहवर्धक नहीं
हैं. अक्तूबर की आईआईपी ग्रोथ ने काफी निराश किया है, जो नकारात्मक (-1.9 फीसदी) हो
गई. सितंबर में वह 0.7 फीसदी थी. साल दर साल आधार पर अप्रैल-अक्टूबर में आईआईपी
ग्रोथ 4.8 फीसदी से घटकर -0.3 फीसदी हो गई. ऊपर से नवंबर में हुई नोटबंदी इस दर
में और गिरावट लाएगी.
मोदी सरकार देश के भीतर और बाहर अपनी छवि को लेकर संवेदनशील
है. वह रेटिंग एजेंसियों से बेहतर रेटिंग की मांग कर रही है ताकि विदेशी निवेश बढ़े.
सरकार ने अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज़ से बाकायदा लॉबीइंग की. पर मूडीज़ ने
रेटिंग नहीं बढ़ाई. उसने भारत पर चढ़े विदेशी कर्ज और बैंकों की दुर्दशा पर चिंता
व्यक्त करते हुए अपग्रेड से इनकार कर दिया है.
साल 2014 में सत्ता में आने के
बाद से मोदी ने निवेश बढ़ाने, मुद्रास्फीति की दर को
नीचे रखने और चालू खाते व राजस्व घाटे को कम करने के लिए कदम उठाए हैं. लेकिन दुनिया
की तीन बड़ी वैश्विक रेटिंग एजेंसियां अपग्रेड करने को तैयार नहीं हैं. ये तीन
एजेंसियाँ हैं स्टैंडर्ड एंड पुअर, मूडीज़ और फिच. ये तीनों अमेरिका की हैं.
सन 2008 के वैश्विक वित्तीय क्रैश का अनुमान ये एजेंसियाँ
नहीं लगा पाईं थीं. इसके लिए इनकी काफी आलोचना हुई थी. अलबत्ता वैश्विक वित्तीय
बाजार इनकी साख पर चलता है. ब्रिक्स देशों द्वारा स्थापित नव विकास बैंक एनडीबी के
अध्यक्ष केवी कामथ ने हाल में कहा था कि ब्रिक्स समूह की मदद से एक नयी केडिट
रेटिंग एजेंसी खड़ी करने की बहुत जरूरत है, क्योंकि मौजूदा तीन बड़ी वैश्विक रेटिंग
एजेंसियां जो पद्धतियां अपनाती हैं वे उभरती अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि में अड़चन
बन रही हैं.
बहरहाल भारत सरकार के मनुहार के बावजूद किसी ने भी हमारी रेटिंग
को अपग्रेड नहीं किया. अक्तूबर के महीने में सरकार और मूडीज़ के बीच खतो-किताबत
हुआ. सरकार ने कहा कि भारत के कर्ज में लगातार कमी हो रही है. आप देश के
विकास को नजरंदाज कर रहे हैं. मूडीज़ ने
कहा कि स्थिति उतनी अच्छी नहीं है जितनी सरकार बता रही है. उसके अनुसार देश के
बैंकों के 136 अरब डॉलर कर्ज के रूप में डूबे हुए हैं.
पिछले दो साल से भारत दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती
अर्थ-व्यवस्था है. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में भी वह अब सबसे आगे आ गया
है. पर ये एजेंसियाँ अभी आश्वस्त नहीं हैं. भारत का सकल राजस्व जीडीपी का 21 फीसदी
है, जो मूडीज़ के बीएए-रेटेड देशों के औसत राजस्व 27.1 फीसदी से कम है. भारत की
रेटिंग बीएए3 है. इस रेटिंग के कारण भारत को बॉण्ड निवेशकों का लाभ नहीं मिल पाता
है. यदि इससे एक ऊपर की रेटिंग मिले तो उसे पूँजी प्राप्त करने में आसानी हो.
सितंबर में मूडीज़ के प्रतिनिधियों ने दिल्ली में वित्त
मंत्रालय के अधिकारियों से मुलाकात की थी. उसके उनके सूत्रों ने मीडिया को बताया
था कि भारत का रेटिंग अपग्रेड फिलहाल एक-दो साल बाद ही होगा. स्टैंडर्ड एंड पुअर
की भी यही राय है. भारत सरकार ने जापान और पुर्तगाल का उदाहरण दिया, जिनपर उनकी
अर्थव्यवस्था का दोगुना उधार है. उनकी रेटिंग्स भारत से बेहतर हैं. सन 2004-05 में
भारत पर कर्ज जीडीपी का 79.5 फीसदी था, जो अब 66.7 फीसदी हो चुका है.
भारत सरकार का यह भी कहना है कि ये देश विकास की जिस अवस्था
में हैं, भारत अभी उसपर नहीं है, फिर भी हमारे लिए ये मानक अपनाए जा रहे हैं, जबकि
हमने अर्थ-व्यवस्था को बेहतर बनाया है. मूडीज़ ने पिछला अपग्रेड 2004 में किया था,
तब आर्थिक संवृद्धि और विदेशी मुद्रा भंडार को आधार बनाया गया था. आज दोनों की
स्थिति बेहतर है.
हाल में स्टैंडर्ड एंड पुअर ने कहा था कि भारत सरकार आर्थिक सुधारों में तेजी
लाए और कर्ज को जीडीपी के 60 फीसदी के नीचे ले आए तो संभावनाएं बन सकती हैं. इस
संस्था ने देश में जीएसटी लागू होने की प्रक्रिया को सकारात्मक माना है. वह चाहती
है कि देश में व्यापारिक माहौल बने, श्रमिकों से जुड़े कानूनों में सुधार हो और
ऊर्जा सेक्टर में सुधार लाए जाएं.
फिलहाल देखना यह है कि नोटबंदी के बाद अर्थ-व्यवस्था
पर कैसे प्रभाव होंगे. क्या कर राजस्व बढ़ेगा, जिसकी आशा की जा रही है?
देश में लगभग सवा करोड़ लोग ही आयकर देते हैं, जबकि अनुमान है कि इसके दुगुने लोगों
को आयकर देना चाहिए. आधे इसके दायरे से बाहर हैं. इस साल बेहतर मॉनसून का प्रभाव
भी अगले कुछ महीनों में स्पष्ट होगा. इस साल अनुमानित राजस्व संग्रह का लक्ष्य
पूरा हुआ या नहीं, यह भी इस साल की आर्थिक समीक्षा से स्पष्ट होगा, जो बजट के ठीक
पहले पेश की जाएगी. उससे यह भी पता लगेगा कि राजकोषीय घाटे में कितनी कमी आई है.
प्रभात खबर में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-12-2016) को मांगे मिले न भीख, जरा चमचई परख ले-; चर्चामंच 2569 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
As usual शानदार पोस्ट .... Bahut hi badhiya .... Thanks for this!! :) :)
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