राहुल गांधी के तेवर अचानक बदले हुए नजर आते हैं। उन्होंने बुधवार को नरेंद्र
मोदी पर सीधा हमला बोलकर माहौल को विस्फोटक बना दिया है। उन्हें विपक्ष के कुछ
दलों का समर्थन भी हासिल हो गया है। इनमें तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी शामिल हैं। हालांकि
बसपा भी उनके साथ नजर आ रही है, जबकि दूसरी ओर यूपी में कांग्रेस और सपा के गठबंधन
की अटकलें भी हैं। बड़ा सवाल फिलहाल यह है कि राहुल ने इतना बड़ा बयान किस बलबूते
दिया और वे किस रहस्य पर से पर्दा हटाने वाले हैं? क्या उनके पास ऐसा कोई तथ्य है जो
मोदी को परेशान करने में कामयाब हो?
बहरहाल संसद का सत्र खत्म हो चुका है और राजनीति का अगला दौर शुरू हो रहा है। नोटबंदी के कारण पैदा हुई दिक्कतें भी अब क्रमशः कम होती जाएंगी। अब सामने पाँच राज्यों के चुनाव हैं। देखना है कि राहुल इस दौर में अपनी पार्टी को किस रास्ते पर लेकर जाते हैं।
पिछले हफ्ते राहुल गांधी से प्रेस
कांफ्रेंस में किसी ने पूछा कि आप क्या नोटबंदी से जुड़ी कोई बात कहना चाहते हैं? इसपर राहुल ने कहा, मेरे पास प्रधानमंत्री
के बारे में जानकारी है। मैं उसे लोकसभा में रखना चाहता हूँ। राहुल ने लोकसभा में
ही जानकारी रखने की बात क्यों कही? संसद के बाहर कहने में क्या दिक्कत है? लगता है कि बीजेपी भी नहीं चाहती
कि वे लोकसभा में कुछ बोलें। संसद के शीत सत्र का आज आखिरी दिन है। लगता नहीं कि
आज भी कुछ हो पाएगा। सवाल है कि बीजेपी उन्हें कुछ बोलने से रोकना क्यों चाहती है?
पिछले हफ्ते पूर्व वायुसेनाध्यक्ष
एसपी त्यागी की गिरफ्तारी के बाद अचानक उछले अगस्ता मामले से इसका कोई रिश्ता तो
नहीं? इटली की अदालत में
पेश किए गए कुछ दस्तावेजों में सांकेतिक अक्षरों में जो विवरण हैं, उन्हें भारत के
राजनेताओं के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। बताया जा रहा है कि राहुल गांधी किसी
मामले से जुड़े दस्तावेजों को रिकॉर्ड में दर्ज कराना चाहते हैं। इनमें नरेंद्र
मोदी का नाम है।
लोकसभा में इस बात को दर्ज कराने
के पीछे उनका एक उद्देश्य यह हो सकता है कि सांसद के विशेषाधिकारों का उन्हें लाभ
मिले और वे संसद के बाहर की कानूनी बंदिशों से बचे रहें। पिछले हफ्ते सुप्रीम
कोर्ट में सहारा-बिड़ला डायरी का प्रसंग उठा था। बुधवार को अदालत ने प्रशांत भूषण से
कहा कि पुख्ता सबूतों के साथ शुक्रवार को कोर्ट आएं। कोर्ट ने उनसे कहा, ये आरोप
गंभीर हैं। आप देश के प्रधानमंत्री पर भी आरोप लगा रहे हैं। राहुल क्या इन्हीं दस्तावेजों
को संसद के रिकॉर्ड में लाना चाहते थे?
पिछले हफ्ते जब राहुल ने कहा था कि
मैं संसद में बोलूँगा तो भूकंप आ जाएगा। उनके पास इसके अलावा और ऐसी क्या चीज है
जो भूकंप ला सकती है? नब्बे के दशक में
जैन-हवाला डायरी की ऐसी ही प्रविष्टियों से देश में राजनीतिक भूकंप आया था। उसके
पहले बोफोर्स मामला भी तकरीबन ऐसा था। ऐसे दस्तावेज राजनीतिक छींटा-कशी के काम तो
आते हैं, पर उनका स्थायी महत्व नहीं होता। राहुल की बातों में कितनी संजीदगी है
इसका पता अगले कुछ दिनों में लगेगा। यदि वे कोई बड़ी जानकारी नहीं दे पाए तो यह
बयान उनके गले उल्टा पड़ेगा।
देखना यह होगा कि कांग्रेस की फौरी और दीर्घकालीन
राजनीति क्या है? अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में उसे पंजाब
और उत्तराखंड में जीतने की उम्मीद है। वह उत्तर प्रदेश में भी अपनी स्थिति को
सुधरता देख रही है। स्थिति सुधारने के अलावा वह बीजेपी को कमजोर करना चाहती है,
भले ही इसके लिए उसे अपने दूसरे प्रतिस्पर्धियों से समझौता करना पड़े। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन का इशारा
भी किया है। यह फौरी योजना है। दीर्घकालीन योजना सन 2019 के लोकसभा चुनाव को जीतने
की या कम से कम अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की होगी।
कांग्रेस तमिलनाडु में अद्रमुक के
साथ गठबंधन की तैयारी कर रही है, जो उसके नए नजरिए का परिचायक है। जिस तरह सन 2004
के पहले पार्टी ने दूसरे दलों के साथ गठबंधन के बारे में सोचना शुरू किया था, उसी
तरह अब पार्टी अब देशभर में अपने लिए सहयोगियों की तलाश कर रही है। पार्टी को
सहयोगियों के अलावा अपने संगठन की भी फिक्र है, क्योंकि पिछले ढाई साल में ही
पार्टी का हाथ से कई राज्य निकल गए हैं, जहाँ उसका संगठन भी कमजोर हुआ है।
बहरहाल राहुल ने नरेंद्र मोदी पर सीधे आरोप लगाकर अपनी उस राजनीति को आगे
बढ़ाने की कोशिश की है जिसे उन्होंने पिछले साल दो महीने के अज्ञातवास के दौरान
ईजाद किया था। वे अचानक आते हैं, बादलों की तरह बरसते हैं और फिर बिखर जाते हैं।
पिछले साल संसद के मॉनसून सत्र में भी उन्होंने इसे अपनाया।
यह राजनीति संजीदा संसदीय विमर्श का विकल्प नहीं है। दूसरे यह उनके सबसे बड़े
प्रतिस्पर्धी नरेंद्र मोदी की देन है। बीजेपी और कांग्रेस के तौर-तरीके एक नहीं हो
सकते। दोनों के सामाजिक आधार में अंतर है और दोनों के नीचे की जमीन फर्क है।
कांग्रेस एक ढहते दुर्ग को बचा रही है और बीजेपी अपने क्षेत्र का विस्तार कर रही
है। देश को कांग्रेस की जरूरत है, खासतौर से मजबूत विपक्ष के रूप में पर यह पार्टी
फिलहाल उस भूमिका को निभाती नजर नहीं आ रही है।
मई 2014 में दिल्ली में मोदी सरकार आने के बाद से कांग्रेस यह तय नहीं कर पाई
है कि उसे सत्ताच्युत क्यों होना पड़ा। तब से अबतक उसकी स्थिति ठहरने या सुधरने के
बजाय बिगड़ी ही है। संसद के शीत सत्र पर नजर डालें तो आप पाएंगे कि पार्टी ने
नोटबंदी के कारण पैदा हुई जनता की शिकायतों का फायदा उठाने के बजाय मौकों को
गँवाया है। पार्टी नोटबंदी पर चर्चा किस नियम के तहत हो, इसे लेकर ही बहस में उलझी
रही।
मोदी सरकार ने हाल में सर्जिकल स्ट्राइक और फिर नोटबंदी के दो बड़े फैसले किए।
दोनों मौकों पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया आने में देर हुई। दोनों मौकों पर पार्टी
यह समझ नहीं पाई कि जनता की राय क्या है। नोटबंदी का असर समाज के अलग-अलग वर्गों
पर अलग-अलग रहा है। यह सच है कि अर्थ-व्यवस्था पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ा है।
छोटे कारोबारियों, दिहाड़ी मजदूरों और नकदी पर काम करने वाले बुरी तरह प्रभावित
हुए हैं। बावजूद इसके मध्यवर्ग ने अभी तक इस फैसले की आलोचना नहीं की है।
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
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