राहुल गांधी ने
कहा, नोटबंदी पर फैसले को चुनौती देने वाला मेरा भाषण तैयार है, लेकिन संसद में मुझे
बोलने से रोका जा रहा है. मुझे बोलने दिया गया तो भूचाल आ जाएगा. सरकार की शिकायत
है कि विपक्ष संसद को चलने नहीं दे रहा. उधर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा है,
सांसद अपनी जिम्मेदारी निभाएं. आपको संसद में चर्चा करने के लिए भेजा गया है, पर
आप हंगामा कर रहे हैं. उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को गुजरात के
बनासकांठा में हुई किसानों की रैली में कहा, मुझे लोकसभा में बोलने नहीं दिया जाता, इसलिए मैंने जनसभा में बोलने का फैसला किया है.
पिछले हफ्ते
प्रधानमंत्री ने मुरादाबाद की रैली में गरीबों से कहा था, आपके जनधन खाते में
जिसने भी पैसा जमा किया वह पैसा मत निकालना. जिन लोगों ने गरीबों के खाते में पैसा
डाला है वे जेल जाएंगे. मैं इसके आगे की भी सोच रहा हूँ. मोदी के इस बयान से
सरकारी नीति का संकेत मिलता था. यह बात ऐसे मौके पर कही गई थी, जब
संसद का सत्र चल रहा था. उनके विरोधियों को इस बात पर आपत्ति होनी चाहिए थी कि
प्रधानमंत्री संसद के बाहर नीतिगत बयान दे रहे हैं. हैरत की बात है कि विपक्ष ने
ऐसी कोई आपत्ति व्यक्त नहीं की.
यह शोर का दौर है. सड़क पर संसद में और चैनलों में शोर है. जबकि जनता खामोशी से
कतारों में खड़ी है. सत्तापक्ष और विपक्ष के पास कहने के लिए बहुत कुछ है. पर समझ
में नहीं आता कि कौन क्या कह रहा है. कोई किसी की बात सुनना नहीं चाहता. विचार
करने, और सुनने का वक्त गया. अब सिर्फ शोर ही विचार और हंगामा ही कर्म है. लोकसभा
और राज्यसभा चैनलों में संसदीय कार्यवाही का सीधा प्रसारण यदि आप देखते हैं तो
असहाय पीठासीन अधिकारियों के चेहरों से आपको देश की राजनीति की दशा-दिशा का पता लग
सकता है.
देश का प्रधानमंत्री कहे कि मुझे बोलने नहीं दिया जाता. मुख्य विपक्षी दल का
नेता भी यही कहे, तो सिर पीटने के अलावा और कुछ बाकी नहीं रहता. संसद के हरेक सत्र
के पहले सर्वदलीय बैठकें होती हैं, कई बातों पर सहमतियाँ बनती हैं. फिर भी नेता अपनी
बात क्यों नहीं कह पा रहे हैं? उन्हें बोलने से किसने रोका है? संसद का शीत सत्र
16 नवंबर से शुरू हुआ है और उसे 16 दिसंबर तक चलना है. आज और कल अवकाश हैं. अब
केवल तीन दिन बचे हैं. सत्तापक्ष और विपक्ष मान भी जाएं तो कितना काम हो जाएगा? कितनी बहस हो जाएगी? और किन निष्कर्षों पर देश
पहुँचेगा?
सत्र के अभी तक
के पीआरएस आँकड़ों के अनुसार लोकसभा की उत्पादकता 16 और राज्यसभा की 19 फीसदी रही
है. हर सुबह शोर के साथ सदन शुरू होते हैं और कुछ देर बाद स्थगन की घोषणा हो जाती
है. सरकार का विचार इस साल बजट जल्द लाने का है, ताकि अगले साल की वित्तीय
गतिविधियाँ दूसरे वर्षों की तुलना में पहले शुरू हो सकें. अगले वित्तीय वर्ष से जीएसटी लगू होना है. वित्तमंत्री का कहना है कि जीएसटी से जुड़े जिन तीन विधेयकों को इस सत्र में पास कराने का विचार था, वह पूरा होता नजर नहीं आता है.
सरकार और विपक्ष की वरीयताएं अलग-अलग हैं. जनता की चिंता किसी को नहीं है. नोटबंदी से जनता परेशान
है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा है कि वह जनता को साफ-साफ बताए कि स्थिति क्या
है. सरकार अपना पक्ष रैलियों में बता रही है. वह कितनी रैलियाँ करेगी? और विपक्ष कितने 'आक्रोश दिवस' आयोजित करेगा? क्यों नहीं दोनों पक्ष आमने-सामने बैठकर पारदर्शी
तरीके से बातें करते हैं? क्यों नहीं राजनीति संजीदा तरीके से व्यवहार करती? क्यों हंगामे को राजनीति का नाम दे दिया गया है?
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संसद में चल रहे हंगामे को लेकर तीखी प्रतिक्रिया
व्यक्त की है. उन्होंने पिछले हफ्ते एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा, आप चर्चा के लिए चुने गए हैं. काम करने के लिए संसद भेजे गए
हैं. आपको अपना वक्त अपनी जिम्मेदारियां निभाने में लगाना चाहिए. अमूमन शिकायत इस बात
की होती है कि बहुसंख्यक सत्तापक्ष अल्पसंख्यक विपक्ष को बोलने नहीं देता. पर
राष्ट्रपति ने कहा, आप बहुमत की आवाज दबा रहे हैं. सिर्फ अल्पमत ही सदन के बीचों
बीच आता है, नारेबाजी करता है, कार्यवाहियां रोकता है और ऐसे हालात पैदा करता है कि
अध्यक्ष के पास सदन की कार्यवाही स्थगित करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता. ...बार-बार
हंगामा करके आप दिखाना चाहते हैं कि आप जख्मी हैं, नाराज हैं.
एक दिन पहले
लालकृष्ण आडवाणी ने भी ऐसी ही नाराजगी जाहिर की थी. उन्होंने सभी पक्षों और
पीठासीन अधिकारी को भी फटकार लगाई. सदन के स्थगित होने पर उन्होंने तमतमाते हुए
जोर से कहा कि यह बहुत शर्म की बात है. जो लोग सदन में बाधा डाल रहे हैं, उन्हें बाहर कर देना चाहिए. यहां तक कि उनकी
सैलरी भी काटनी चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष सदन नहीं चला पा रही हैं और संसदीय कार्य
मंत्री की भी सदन चलाने में कोई रुचि नहीं है. सदन अपने आप से ही चल रहा है. यह
अराजकता चिंता का विषय है. यही हमारी राजनीति है तब उससे बहुत उम्मीद रखना छोड़
देना चाहिए.
नोटबंदी को लेकर
लोकसभा में यही तय नहीं हो पाया कि चर्चा किस नियम के तहत हो. पाकिस्तान की ओर से
लगातार हो रही आतंकी गतिविधियों की फिक्र सांसदों को नहीं है. कश्मीर में अराजकता
खत्म नहीं हुई है. आतंकवादी उड़ी और नगरोटा जैसे हमले कर रहे हैं. देश में जीएसटी
लागू होने वाला है. इन सब बातों को छोड़कर जन-प्रतिनिधि शोर मचा रहे हैं. हंगामा
भी संसदीय राजनीति का एक तरीका है. पर यह तरीका तभी इस्तेमाल में लाया जाता है, जब
सारे विकल्प खत्म हो चुके हों. यह आखिरी विकल्प होता था, पर आज इसे संसदीय कर्म का
विकल्प मान लिया गया है.
राष्ट्रपति ने इस साल दूसरी बार इस बात को उठाया है. इस साल फरवरी में बजट
सत्र का आरंभ करते हुए उन्होंने याद दिलाया था ‘लोकतांत्रिक मिज़ाज का तकाजा बहस
एवं विमर्श है, न कि विघ्न और व्यवधान.’ उन्होंने
सांसदों से कहा था, संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं. उसमें गतिरोध
नहीं होना चाहिए. 2015 के शीत सत्र के अंतिम दिन राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने अपने
वक्तव्य में संसदीय कर्म के लिए ज़रूरी अनुशासन का उल्लेख किया था और इसमें आ रही
गिरावट पर अफसोस ज़ाहिर किया था. बेशक राजनीति संसद से सड़क तक होनी चाहिए. पर
संसद, संसद है. वह सड़क नहीं है. दोनों के फर्क को बनाए रखना जरूरी है.
प्रभात खबर में प्रकाशित
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