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Tuesday, October 11, 2016

समस्या ‘हाथी’ से ज्यादा बड़ी है

नब्बे के दशक में जब लखनऊ में पहली बार आम्बेडकर उद्यान का निर्माण शुरू हुआ था, तब यह सवाल उठा था कि सार्वजनिक धन के इस्तेमाल को लेकर क्या राजनीतिक दलों पर मर्यादा लागू नहीं होती? जवाब था कि चुनाव के वक्त यह जनता तय करेगी कि सरकार का कार्य उचित है या नहीं? आम्बेडकर स्मारक काफी बड़ी योजना थी। उसे दलितों के लिए प्रेरणा स्थल के रूप में पेश किया गया।
देश में इसके पहले भी बड़े नेताओं के स्मारक बने हैं। सार्वजनिक धन से भी बने हैं। उसपर भी बात होनी चाहिए कि देश में एक ही प्रकार के नेताओं के स्मारकों की भरमार क्यों है। पर हाथी राजनीतिक प्रतीक है और बीएसपी का चुनाव चिह्न। यह सरासर ज्यादती है। लखनऊ में और उत्तर प्रदेश के कुछ दूसरे स्थानों पर भी हाथियों की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ खड़ी की गईं। क्या यह चुनाव प्रचार में मददगार नहीं?

यह सवाल सन 2012 के विधानसभा चुनाव के वक्त उठा भी था और चुनाव आयोग के निर्देश पर हाथियों की प्रतिमाओं को ढक दिया गया था। हाथियों की ढकी मूर्तियाँ तब मनोरंजन का कारण बनी थीं। पर मामला केवल हाथी तक सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश में फिर चुनाव होने वाले हैं। चुनाव आयोग ने निर्देश दिया है कि कोई भी राजनीतिक दल सरकारी मशीनरी और पैसे का इस्तेमाल अपने या अपने चुनाव चिन्ह के प्रचार के लिए नहीं करेगा।
इस निर्देश का उल्लंघन करने पर पार्टी की मान्यता तक रद्द हो सकती है। यह निर्देश दिल्ली हाईकोर्ट के दो महीने पुराने फैसले के संदर्भ में है। कॉमन कॉज नाम के एक एनजीओ संगठन ने दिल्ली हाईकोर्ट से बहुजन समाज पार्टी के चुनाव चिह्न ‘हाथी’ को खारिज करने की मांग की थी। उसने आरोप लगाया था कि बसपा प्रमुख मायावती ने मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी पार्टी के चुनाव चिह्न के प्रचार के लिए सरकारी धन का इस्तेमाल करते हुए जगह-जगह हाथी की मूर्तियां लगाईं थीं।
अदालत ने इसपर चुनाव आयोग से कहा था कि इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए साफ-साफ दिशानिर्देश जारी होने चाहिए। आयोग ने इस सिलसिले में राजनीतिक दलों से मशवरा भी किया, जिसके बाद ये निर्देश जारी किए हैं। इस फैसले का संदर्भ बसपा के चुनाव चिह्न से जुड़ा जरूर है, पर प्रकारांतर से यह हमारी राजनीति के कुछ बुनियादी सवाल उठाता है, जिनका जवाब देना आसान नहीं।
हाथी ही क्यों, बसपा सरकार के दौरान उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम की बसों का रंग नीला हो गया था। प्रदेश में सपा सरकार आने के बाद उनका रंग दूसरा हो गया। उसका भी राजनीतिक अर्थ है। इतना ही नहीं, तकरीबन हर राज्य में सरकारी कार्यक्रमों के नाम राजनेताओं के नाम से जुड़े हैं। सबसे ज्यादा योजनाएं नेहरू-गांधी नाम से हैं। सारे चुनाव चिह्नों में राजनीति है। कहाँ तक इन प्रवृत्तियों को रोका जा सकता है?
स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने आयोग के इस निर्देश का स्वागत करते हुए कहा कि आयोग चुनाव के दौरान आखिरी हफ्ते में सक्रिय होता है, जबकि सरकारें चार साल ग्यारह महीने तक अपनी पार्टी के प्रचार के लिए सरकारी धन का दुरुपयोग करती रहती हैं। उन्होंने पार्टी का प्रचार करने वाले सरकारी विज्ञापनों पर भी सख्ती से रोक लगाने की मांग की। शायद उनका संदर्भ दिल्ली सरकार के विज्ञापनों से है।
मामला विज्ञापनों और प्रचार तक ही सीमित नहीं है। एकबार जीत जाने के बाद पार्टियाँ सबसे पहले अपने कार्यकर्ताओं को प्रसाद देना शुरू करती हैं। उत्तर प्रदेश में कितने कॉरपोरेशन, निगम और परिषद हैं? उनके पदों पर कौन लोग बैठे हैं? चुनाव आयोग उनके मामले में कुछ नहीं कर सकता। वस्तुतः यह राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी और जवाबदेही का सवाल है।
पार्टियाँ दावा करती हैं कि हम जनता के प्रतिनिधि हैं। वे जनता की ओर से राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करती हैं। उनका काम सेवा का है। पर व्यावहारिक रूप से वे खुद को जनता से ऊपर मानती हैं। सत्तारूढ़ नेता फिर-फिर जिन्हें रेवड़ी देते हैं उनमें से ज्यादातर ताकतवर लोग होते हैं। उनकी काबिलीयत इतनी है कि वे चुनाव जिताने में मददगार हैं। वे चंदा भी जमा कराते हैं। यह राजनीति ताकतवर लोगों का गठजोड़ बनकर रह गई है।
दिक्कत यह है कि पार्टियाँ इस व्यवस्था को सुधारना भी नहीं चाहतीं। देश के छह प्रमुख राष्ट्रीय दलों ने जनता के सूचना पाने के अधिकार के तहत खुद को पब्लिक अथॉरिटी मानने से इनकार कर दिया। सन 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने इन दलों को आरटीआई के तहत लाने के आदेश जारी किए थे। इन पार्टियों ने आदेश नहीं माना और सरकार ने उनका साथ दिया। सूचना आयोग के आदेश को निष्प्रभावी करने के लिए उसी साल सरकार ने संसद में एक विधेयक भी पेश किया, पर जनमत के दबाव में उसे स्थायी समिति के हवाले कर दिया गया।
यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है। उसे तार्किक परिणति तक पहुँचना चाहिए। राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा सार्वजनिक पड़ताल के दायरे में होना चाहिए। यह बात ढकी-छिपी नहीं है कि भारतीय चुनाव दुनिया में काले धन के सहारे चलने वाली सबसे बड़ी गतिविधि है। ये पार्टियाँ आयकर नहीं देतीं, क्योंकि वे सार्वजनिक सेवा करती हैं। ठीक है वे देश की जनता के पक्ष में काम करते हैं। उनकी आय देश की जनता के नाम है, पर आय का जरिया तो पारदर्शी होना चाहिए। कोई उन्हें चंदा देता है तो क्यों?
संयोग से इस मामले में सारे के सारे दल एक साथ हैं। मुश्किल यह है कि चुनाव आयोग के पास इसे ठीक करने के अधिकार नहीं हैं। पार्टियाँ केवल 20,000 रुपए से ऊपर के चंदे का विवरण देने को बाध्य हैं, पर उन्होंने व्यवस्था को इस तरह बनाया है कि उन्हें ज्यादातर चंदा 20,000 से छोटी रकम में मिलता है। चूंकि चंदे का विवरण उपलब्ध नहीं है, इसलिए यह साबित करना सम्भव नहीं कि सरकार ने किस कारोबारी समूह के पक्ष में क्या फैसला किया, जिसके बदले में उसे कितना चंदा मिला। समस्या हाथी नहीं मगरमच्छ हैं।





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