सेना ने जब ‘सर्जिकल स्ट्राइक’
की घोषणा की थी तो एकबारगी देश के सभी राजनीतिक दलों ने उसका स्वागत किया था। इस
स्वागत के पीछे मजबूरी थी और अनिच्छा भी। मजबूरी यह कि जनमत उसके साथ था। पर परोक्ष रूप से यह मोदी सरकार का समर्थन था, इसलिए अनिच्छा भी थी। भारतीय जनता पार्टी ने संयम बरता होता और इस कार्रवाई को भुनाने की कोशिश नहीं की होती तो शायद विपक्षी प्रहार इतने तीखे नहीं होते। बहरहाल अगले दो-तीन दिन में जाहिर
हो गया कि विपक्ष बीजेपी को उतनी स्पेस नहीं देगा, जितनी वह लेना चाहती है। पहले अरविन्द केजरीवाल ने पहेलीनुमा सवाल फेंका। फिर कांग्रेस के संजय निरूपम
ने सीधे-सीधे कहा, सब फर्जी है। असली है तो प्रमाण दो। पी चिदम्बरम, मनीष तिवारी
और रणदीप सुरजेवाला बोले कि स्ट्राइक तो कांग्रेस-शासन में हुए थे। हमने कभी श्रेय
नहीं लिया। कांग्रेस सरकार
ने इस तरह कभी हल्ला नहीं मचाया। पर धमाका राहुल गांधी ने किया। उन्होंने नरेन्द्र मोदी पर ‘खून की दलाली’
का आरोप जड़ दिया।
इस राजनीतिकरण की जिम्मेदारी बीजेपी पर भी है।
सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा होते ही उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में पोस्टर लगे।
हालांकि पार्टी का कहना है कि यह सेना को दिया गया समर्थन था, जो देश के किसी भी
नागरिक का हक है। पर सच यह है कि पार्टी विधानसभा चुनाव में इसका लाभ उठाना चाहेगी।
कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के लिए यह स्थिति असहनीय है। वे बीजेपी के लिए
स्पेस नहीं छोड़ना चाहते। हालांकि अभी यह बहस छोटे दायरे में है, पर बेहतर होगा कि हमारी संसद इन सवालों पर गम्भीरता से विचार करे। बेशक देश की सेना या सरकार कोई भी जनता के सवालों के दायरे से बाहर नहीं है, पर सवाल किस प्रकार के हैं और उनकी भाषा कैसी है यह भी चर्चा का विषय होना चाहिए। साथ ही यह भी देखना होगा कि सामरिक दृष्टि से किन बातों को सार्वजनिक रूप से उजागर किया जा सकता है और किन्हें नहीं किया जा सकता।
बीजेपी के दावों में छिद्र खोजना विपक्ष की जिम्मेदारी
भी है। पर ऐसा करते वक्त उन्हें ध्यान देना होगा कि सीधे सेना की आलोचना न करें।
करें भी तो उसका तार्किक आधार हो। क्या वे कहना चाहते हैं कि सर्जिकल स्ट्राइक हुआ
ही नहीं? क्या सेना का डीजीएमओ सरकार के दबाव में गलत बयान दे रहा है?
जाने-अनजाने राजनीतिक दल पाकिस्तानी पाले में जाकर खड़े हो गए। अब वे सफाई दे रहे
हैं कि हम सेना की आलोचना नहीं कर रहे हैं। बीजेपी जो गैर-वाजिब फायदा उठाने की
कोशिश कर रही है, उसका विरोध कर रहे हैं।
भारतीय राजनीति में युद्ध की महत्वपूर्ण
भूमिका रही है। सन 1962 की लड़ाई से नेहरू की लोकप्रियता में कमी आई थी। जबकि 1965
और 1971 की लड़ाइयों ने लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी का ऊँचा किया था। पर
क्या कांग्रेस ने इन दोनों लड़ाइयों का राजनीतिक दोहन नहीं किया? और क्या करगिल युद्ध के दौरान भी
अटल सरकार के खिलाफ ऐसा ही रवैया नहीं अपनाया जैसा आज है? करगिल युद्ध के दौरान
कांग्रेस कार्यसमिति ने सरकार की इस बात के लिए आलोचना की कि उसे पता ही नहीं लगा
कि दुश्मन सिर पर बैठा है।
हालांकि करगिल विजय के जश्न में
कांग्रेस भी शामिल हुई, पर उसके राजनीतिक दोहन का मलाल उसके मन में जरूर रहा होगा।
पर इस वक्त पार्टी संशय में है। ऐसा नहीं कि संजय निरुपम ने अपने मन से कुछ भी बोल
दिया होगा। यह सायास हुआ है, पर असावधानी के साथ. सेना की इस कार्रवाई के बाद
गुरुवार 29 सितम्बर को हुई सर्वदलीय बैठक में विपक्षी दलों ने एक स्वर से इस
ऑपरेशन का समर्थन किया था। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया
गांधी के पास जाकर, जो कुछ समय से अस्वस्थ चल रहीं हैं, उन्हें इस कार्रवाई से
अवगत कराया। सोनिया गांधी ने न केवल सेना को बधाई दी, बल्कि यह भी कहा कि इस मामले
में हम सरकार के साथ खड़े हैं।
इन बातों से सरकार का रंग चोखा
साबित होता जा रहा था। अब राहुल गांधी ने स्टैंड लिया है, इसलिए उम्मीद नहीं कि वे
पीछे हटेंगे। पर इतना स्पष्ट है कि भारतीय मुहावरों का इस्तेमाल करने के मामले में
वे कच्चे हैं। यह दोष राहुल का ही नहीं कांग्रेस के नई पीढ़ी के ज्यादातर नेताओं
का है। हाल में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने संसद के अपने भाषण में कश्मीर में ‘रायशुमारी’ का समर्थन किया। उनका यह आशय नहीं था, पर ज़ाहिर था
कि वे देशी मुहावरों से अपरिचित हैं।
हाल में कम से कम तीन मौकों पर
कांग्रेस असमंजस में फँसी है। पहला मौका था कश्मीर में ‘पत्थर मारो आंदोलन।’ संसद के भीतर और बाहर कांग्रेस ने सरकार का समर्थन
किया, पर पैलेट गन के इस्तेमाल और नौजवानों से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर सरकार
की आलोचना की। इस वजह से उत्तर भारत में उसे जनता की आलोचना का शिकार होना पड़ा।
दूसरा मौका था नरेंद्र मोदी के 15
अगस्त के भाषण में पीओके और बलूचिस्तान का जिक्र। भाषण खत्म हुआ नहीं कि पूर्व विदेश मंत्री
सलमान खुर्शीद का बयान टीवी पर आया कि मोदी ने बलूचिस्तान का जिक्र करके गलती की
है। यह कांग्रेस पार्टी की सुविचारित प्रतिक्रिया नहीं थी। इसके बाद पार्टी
प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने इसकी सफाई दी। हाल में भारत और अमेरिका के बीच लिमोआ
(लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट) पर दस्तखत हुए तो रणदीप सुरजेवाला ने
कहा, भारत ने ‘सामरिक-सैनिक तटस्थता’ की नीति का त्याग कर दिया है। व्यावहारिक बात यह है
कि इस समझौते की पृष्ठभूमि में यूपीए सरकार की भूमिका भी थी।
‘सर्जिकल स्ट्राइक’
का फैसला राजनीतिक है और बीजेपी उसका लाभ लेगी। पर उसका तरीका फूहड़ नहीं होना
चाहिए। जनता जानती है कि किसे श्रेय देना चाहिए और किसे नहीं देना चाहिए। पठानकोट
और उड़ी पर हमले होते हैं तो सरकार को आलोचना सुनती पड़ती है। हमला होगा तो उसकी
आलोचना होगी, तो जब पलटवार होगा तो वह उसका लाभ भी लेगी। रक्षा से जुड़े बहुत से मामले सार्वजनिक रूप से खोले नहीं जा सकते। यही बात सर्जिकल
स्ट्राइक से जुड़े सबूतों के साथ भी जुड़ी है।
हमारे पास कार्रवाई के विवरण उपलब्ध नहीं हैं। पर एक साथ आठ
टीमों का काम करना, एवॉक्स और सैटेलाइट-इंटेलिजेंस का सहारा लेना, पैरा कमांडो,
ड्रोन फोटोग्राफी और हथियारों का इस्तेमाल नई बातें हैं। इसके साथ तकनीक और रणनीति
के मामले जुड़े हैं, जिनकी गोपनीयता बनाकर रखनी होती है। इनके विश्लेषण के लिए कुछ
इंतजार करना होगा। भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा संदेश दिया है कि आतंकी
समूहों पर भविष्य में सीधी कार्रवाई सम्भव है।
यह घोषणा इसलिए नहीं की गई है कि बीजेपी का ढिंढोरा पीटा
जाए। यह सेना का फैसला है, सरकार का नहीं। कांग्रेस जिन पुराने मामलों का जिक्र कर
रही है, उनकी सार्वजनिक रूप से तब घोषणा नहीं की गई तो उसके भी कारण रहे होंगे।
ऐसा नहीं कि कांग्रेस को ढिंढोरा पीटे जाने पर एतराज है। इन बातों के राजनीतिक
निहितार्थ हैं और सामरिक भी। इनकी सीमा रेखाओं को समझना चाहिए। यह काम परिपक्व
राजनीति का है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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