रीता बहुगुणा जोशी के कांग्रेस से पलायन का निहितार्थ
क्या है? एक विशेषज्ञ का कहना है कि इससे न तो भाजपा को फायदा होगा और न कांग्रेस को
कोई नुकसान होगा। केवल बहुगुणा परिवार को नुकसान होगा। उनकी मान्यता है कि विजय
बहुगुणा और रीता बहुगुणा का राजनीतिक प्रभाव बहुत ज्यादा नहीं है। यह प्रभाव है या
नहीं इसका पता उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के चुनावों में लगेगा। मेरी समझ से
फिलहाल इस परिघटना को राहुल गांधी के कमजोर होते नेतृत्व के संदर्भ में देखना
चाहिए। पार्टी छोड़ने के बाद रीता बहुगुणा ने कहा, ‘कांग्रेस को विचार करना
चाहिए कि उसके बड़े-बड़े नेता नाराज़ क्यों हैं? क्या कमी है पार्टी में? क्या कांग्रेस की
कार्यशैली में बदलाव आ गया है?’ यह बात केवल एक नेता की
नहीं है। समय बताएगा कि कितने और नेता इस बात को कहने वाले हैं।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की तबाही के लिए
कौन से कारण जिम्मेदार है? देश का सबसे बड़ा राज्य है उत्तर
प्रदेश। दिल्ली की सत्ता का दरवाजा यहाँ से खुलता है। सन 1991 के बाद से पार्टी ने
उत्तर प्रदेश के अपने वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा शुरू कर दी थी। राजीव गांधी ने मुलायम
सिंह के हाथों प्रदेश को पूरी तरह सौंप दिया। फिर मायावती से गठजोड़ हुआ। और
पार्टी खत्म होती चली गई। और अब जब इसे बचाने की कोशिशें हो रहीं हैं तो धक्के पर
धक्के लग रहे हैं।
हाल के वर्षों में कांग्रेस के लिए सबसे उत्साहवर्धक
परिणाम 2009 के लोकसभा चुनाव में मिले। देश में ही नहीं उत्तर प्रदेश में भी। उस
चुनाव में पार्टी को 80 में से 21 सीटें मिलीं। इस अप्रत्याशित
सफलता से प्रेरित होकर राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश को अपना समय देना शुरू कर
दिया। पर 2012 के विधानसभा चुनाव में उनके मंसूबे ढेर हो गए। क्या वजह थी 2009 की
सफलता और 2012 की विफलता की?
कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने स्थानीय
कार्यकर्ता के महत्व को समझना लम्बे अर्से से छोड़ दिया है। उसकी दिलचस्पी
प्रादेशिक नेतृत्व को खड़ा करने में नहीं है। अब वह प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की
तरह काम कर रही है। रीता बहुगुणा जोशी ने तमाम बातें अपनी हिफाजत में कही हैं, पर
उनकी दो बातों पर ध्यान देना चाहिए। एक, प्रशांत किशोर की हैसियत नेताओं से बड़ी हो गई है। और दूसरे
राहुल गांधी नेतृत्व करने में विफल रहे हैं। सोनिया गांधी हम लोगों की बातें सुना
करती थीं।
बुनियादी सवाल है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस स्थानीय
नेताओं के कारण डूबी केन्द्रीय नेतृत्व के कारण या दोनों के कारण? बात रीता बहुगुणा की ‘गद्दारी’ की नहीं है। बेशक
वे बहुत बड़ी नेता नहीं हैं। पर उनका असर कहीं न कहीं पड़ेगा। वे पाँच साल तक
उत्तर प्रदेश में पार्टी की अध्यक्ष रहीं। यह बात भी आसानी से समझ में नहीं आती कि
उनके असंतोष की जानकारी पार्टी को नहीं थी। वे शायद उतनी विस्फोटक साबित नहीं हों,
जितने असम में हिमंत विश्व सरमा साबित हुए। पर होगा कुछ वैसा ही।
पार्टी के कई बड़े नेता राहुल से नाराज हैं। उनके खिलाफ 2014 के चुनाव परिणाम
आते ही बयान शुरू हो गए थे। इसकी शुरुआत मिलिंद देवड़ा, प्रिया दत्त, सत्यव्रत चतुर्वेदी जैसे नेताओं ने सौम्य तरीके से की थी।
इसके बाद केरल के वरिष्ठ नेता मुस्तफा और राजस्थान के विधायक भंवरलाल शर्मा और
आंध्र के नेता किशोर चंद्र देव ने इसे कड़वे ढंग से कहा। पार्टी की केरल शाखा ने
केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ प्रस्ताव पास करने की तैयारी कर ली थी, जिसे अंतिम क्षण में रोका गया।
इस साल मई में पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने एक ट्वीट में कहा, ‘पार्टी को बड़ी सर्जरी की जरूरत है।’ उसी वक्त समझ में आने लगा था कि नए और पुराने नेतृत्व में टकराव है। शशि थरूर
ने परिणाम आने के बाद दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस से कहा, ‘आत्ममंथन का समय गुजर गया, अब कुछ करने का
समय है...नजर आने वाले बदलाव होने चाहिए।...अब वक्त है कि कुछ निष्कर्ष निकाले
जाएं और कार्रवाई की जाए।’
उसी वक्त दिग्विजय सिंह की यह बात मीडिया में आई कि सन 2014
की पराजय के बाद राहुल गांधी ने पार्टी के सीनियर नेताओं से कहा था कि वे अपनी
रिपोर्ट बनाकर दें कि अब आगे क्या किया जाए। रिपोर्ट देने की आखिरी तारीख थी 20
फरवरी 2015। आज 2016 हो गया सबको कार्रवाई का इंतजार है। सीनियर लीडर मानते हैं कि
असम में हार को टाला जा सकता था। हिमंत विश्व सरमा को बाहर जाने से रोकना चाहिए
था। पार्टी सूत्रों का कहना है कि अहमद पटेल और दिग्विजय सिंह चाहते थे कि असम में
गोगोई को हटाकर हिमंत विश्व सरमा को उनकी जगह लाया जाए। पर राहुल गांधी ने बात
नहीं मानी।
अभी तक भाजपा के बाद दूसरे नम्बर की ताकत है कांग्रेस। क्या यह स्थिति 2019 के
चुनाव तक रहेगी? क्या कोई और ताकत तो दूसरे नम्बर पर आकर बैठ नहीं
जाएगी? 2019 के चुनाव में कांग्रेस राहुल के नेतृत्व में
उतरेगी या सोनिया के नेतृत्व में? दोनों बातों में गुणात्मक अंतर है।
सोनिया गांधी पार्टी की पिछड़ी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहीं हैं। तमाम सीनियर
नेता उनके सहारे हैं। क्या ये नेता राहुल के साथ भी हैं?
अगले साल हिमाचल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव होंगे। इन चुनावों में कांग्रेस
पुनर्जीवित नहीं हुई तो एक नई ताकत देश में खड़ी होने लगेगी। इसमें नीतीश, ममता,
नवीन पटनायक, केजरीवाल वगैरह-वगैरह शामिल होंगे। भाजपा-विरोधी यह ताकत मूल रूप से
कांग्रेस-विरोधी साबित होगी। कांग्रेस का लक्ष्य केवल बीजेपी को कमजोर करने का ही
नहीं है। उसे खुद को बचाना भी है।
पिछले ढाई साल में कांग्रेस को हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश, जम्मू-कश्मीर,
असम और केरल में हार का मुँह देखना पड़ा है। इस दौरान उसे अकेली जीत अरुणाचल में
मिली थी, जहाँ बगावत के बाद वह सरकार भी हाथ से गई। यह
कहानी उत्तराखंड में भी दोहराई गई, पर वह बगावत विफल हो गई। अब
कांग्रेस के पास कर्नाटक ही बड़ा राज्य बचा है। शेष हैं उत्तराखंड, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और पुदुच्चेरी का
केन्द्र शासित क्षेत्र। इनमें कांग्रेस का प्रदर्शन उसके भविष्य को तय करेगा।
पिछले साल के अंतिम दिनों में अरुणाचल में पार्टी के भीतर
बगावत की खबरें आने के बाद भी केन्द्रीय नेतृत्व बेफिक्र रहा। वहाँ के बागी विधायक
तीन हफ्ते तक दिल्ली में पड़े रहे। राहुल गांधी से उनकी मुलाकात नहीं हुई और बगावत
अपनी तार्किक परिणति तक पहुँची। अरुणाचल हाथ से गया। उत्तराखंड में बगावत हुई और
दस विधायक बीजेपी के साथ चले गए। कोई गारंटी नहीं कि आज कांग्रेस की
तरफ से रीता बहुगुणा को कोसने वाले बयान जारी करने वाले नेता किसी रोज पाला बदल
नहीं बदल लेंगे।
हरिभूमि में प्रकाशित
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