अरुणाचल में उठा-पटक ने नए किस्म की राजनीति का मुज़ाहिरा
किया है। इसके अच्छे या बुरे परिणामों के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। बीजेपी को
खुशी होगी कि उसने एक और प्रदेश को ‘कांग्रेस मुक्त’ कर दिया, पर यह ढलान
पर उतरती राजनीति का एक पड़ाव है। अभी तक बीजेपी इसमें प्रत्यक्ष रूप से शामिल
नहीं है और इसे कांग्रेस की गलतियों का परिणाम बता रही है, पर वह अपने हाथ को छिपा
नहीं पाएगी। इससे पूर्वोत्तर में बीजेपी का रास्ता और आसान हो गया है, पर जिस हास्यास्पद
तरीके से यह हुआ है, उससे भविष्य को लेकर शंकाएं पैदा होती हैं।
अरुणाचल में पहले कांग्रेस सरकार जिस तरीके से गिरी और
गैर-कांग्रेस सरकार बनी, उसपर सवालिया निशान थे। अदालती आदेश से उसकी वापसी होते
ही पार्टी छोड़कर जाने वाले नाटकीय तरीके से वापस आ गए। फिर पूर्व मुख्यमंत्री की
आत्महत्या का दुखद प्रसंग हुआ। जुलाई में अदालत ने सरकार की पुनर्स्थापना करते हुए
राज्यपाल के खिलाफ टिप्पणी की थी। वह टिप्पणी प्रकारांतर के केन्द्र सरकार के
खिलाफ भी थी, पर केन्द्र ने राज्यपाल को हटने का इशारा कर दिया। राज्यपाल भी अड़
गए और उनकी बर्खास्तगी की नौबत आ गई। अब वहाँ कांग्रेस के एक छोड़, सभी विधायकों
का चले जाना और भी नाटकीय है।
इस नाटकीयता के पीछे कुछ गहरे सवाल छिपे हैं। फरवरी 1987
में पूर्ण राज्य बनने के बाद से यह राज्य चर्चा में बहुत कम रहा है। लम्बे अरसे से वहाँ कांग्रेस की सरकारें बनती रहीं हैं। पर वह विचारधारात्मक
कांग्रेस न होकर सत्ता की सवारी भर थी। पेमा खांडू कह रहे हैं कि हमारी जनता की
आकांक्षाएं अलग किस्म की हैं। इन क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समझा जाना चाहिए। मतलब
यह कि दिल्ली की सरकार से टकराव मोल लेकर हम नहीं चल सकेंगे। सन 2014 के लोकसभा
चुनावों की मोदी लहर के बावजूद अरुणाचल विधानसभा में कांग्रेस जीती थी। शायद
परम्परा के कारण। इस लिहाज से वह कांग्रेस नहीं क्षेत्रीय नेताओं की व्यक्तिगत जीत
थी, जिन्होंने अब पलटी खाकर संतुलन कायम कर दिया। इसका मतलब यह भी है कि बीजेपी को
भी स्थानीय राजनीति के प्रति हमेशा सतर्क रहना होगा।
बीजेपी पूर्वोत्तर में पकड़ बनाना
चाहती है। असम के विधानसभा चुनाव में जीत के साथ वह पकड़ बनी भी है। बीजेपी इस
सरकार में शामिल होगी या नहीं इसका फैसला जल्द होगा। नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) के संयोजक
हिमंता बिस्व सरमा ने कहा है कि कोझीकोड में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की
बैठक में फैसला होगा कि खांडू सरकार को बाहर से समर्थन दें या सरकार में शामिल हों।
पीपीए के बीजेपी में विलय की बात भी की जा रही है।
पिछले साल नवम्बर में कांग्रेस में पहली बगावत
हुई। नबाम तुकी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार गिर गई और 26 जनवरी 2016 को
वहाँ राष्ट्रपति शासन लग गया था। फरवरी,
2016 में कांग्रेस के
बागी कालिखो पुल के नेतृत्व में नई सरकार बनी थी, जिसे भाजपा ने भी
समर्थन दिया। सरकार के इस बदलाव और राष्ट्रपति शासन को अदालत में चुनौती दी गई और
13 जुलाई 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने तुकी की सरकार को बहाल करने का आदेश दिया। इस
आदेश के छींटे राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा पर भी पड़े। हालांकि केन्द्र सरकार
ने राजखोवा को पद से हटा दिया, पर उनकी सिफारिशों पर अमल करने के पहले केन्द्र को
भी उसपर विचार करना चाहिए था। बोम्मई सिद्धांत के अनुसार वह गलत
फैसला था।
उत्तराखंड और अरुणाचल दो मामलों
में केन्द्र सरकार आलोचना के घेरे में आ गई है। कांग्रेस पार्टी सारा दोष बीजेपी
पर डालना चाहती है, जबकि खामी उसके संगठन और नेतृत्व में है। कुछ समय पहले
कांग्रेस इस बात से प्रसन्न थी कि नवम्बर में पार्टी छोड़कर गए सारे विधायक वापस आ
गए हैं। इस सारी चला-चली से बात यह साबित हुई कि जन-प्रतिनिधि पद के भूखे हैं।
पेमा खांडू सरकार ने 26 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया है।
अरुणाचल में सामान्य दल-बदल नहीं हुआ।
इसके कारण पार्टी व्यवस्था को लेकर सवाल उठे हैं। कांग्रेस के प्लेटफॉर्म पर जीतने
वाले लगभग सभी विधायकों का पार्टी छोड़ना अभूतपूर्व स्थिति है। सन 1967 में एक
पखवाड़े में एक विधायक के तीन बार पार्टी बदलने के कारण भारतीय राजनीति में ‘आया-राम, गया-राम’ मुहावरा बना था। इस मुहावरे को
नया आयाम मिला है। रातों-रात एक पार्टी को लुप्त होने और उसकी जगह दूसरी के खड़े
होने से दलीय प्रणाली को लेकर सवाल खड़े होते हैं। वोट प्रत्याशी को व्यक्तिगत और
पार्टी को संस्था के रूप में मिलता है। संगठन की नहीं, विचार की बात भी है। क्या
इसे विचारधारा का अंत माना जाए? हालांकि लोकतांत्रिक तरीके से सरकार बनी है, पर क्या यह हास्यास्पद नहीं है?
इस गलाज़त का श्रेय कांग्रेस को भी
जाता है। सन 1991 में अल्पसंख्यक होने के बावजूद कांग्रेस ने पाँच साल तक केन्द्र
में सरकार अपने इसी कौशल से चलाई। बीजेपी उसके ही बताए रास्ते पर है। अरुणाचल में
भी कांग्रेस ने 2014 का चुनाव जीतने के बाद पीपीए के जीते पाँचों विधायकों को अपनी
पार्टी में शामिल किया था। पूर्वोत्तर की संवेदनशील स्थिति को देखते हुए यह स्वस्थ
राजनीति नहीं है। राजनीति की जिम्मेदारी है कि वह जनता के मन में लोकतंत्र के
प्रति विश्वास पैदा करे। पर यह क्या है?
दल-बदल रोकने की कानूनी व्यवस्थाएं अब तक सफल नहीं हैं।
संविधान के 52 वें संशोधन ने व्यक्ति के स्थान पर सामूहिक दल-बदल का रास्ता खुला
रहने दिया। फिर इसमें कुछ बदलाव करके दलों के विलय की व्यवस्थाएं की गईं। अरुणाचल
में जो हुआ उसे परिभाषित करना कठिन है। जैसे-जैसे दल-बदल रोकने के लिए नियम कड़े
हुए है राजनेताओं ने नए तरीके खोज लिए। जन-प्रतिनिधि चुने जाने के बाद सामूहिक रूप
से फैसले करने लगे हैं जैसाकि अरुणाचल में हुआ। इससे व्यक्तिगत शुचिता और नैतिक सिद्धांत
कूड़ेदान में चले गए हैं। बाकी जो है सो समय बताएगा।
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
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