पिछले हफ्ते वित्तमंत्री
अरुण जेटली ने ट्वीट किया, जीएसटी बिल को देश के 50 फीसदी राज्यों की विधानसभाओं
ने पास कर दिया है। अब उसे राष्ट्रपति के पास दस्तखत के लिए भेजा जा सकता है। उसके
बाद जीएसटी काउंसिल के गठन की अधिसूचना जारी होगी। यह काउंसिल टैक्स रेट वगैरह तय
करेगी। सरकार 1 अप्रैल 2017 से जीएसटी लागू करना चाहती है। आजादी के बाद
अप्रत्यक्ष कर क्षेत्र में इसे सबसे बड़ा सुधार माना जा रहा है। यह बदलते भारत का
बड़ा संकेतक है।
सन 1991 से शुरू
हुआ उदारीकरण वस्तुतः व्यवस्था में सुधारों की प्रक्रिया है। संसद ने पिछले सत्र
में जीएसटी कानून को पास करके बदलाव की जो लहरें पैदा की हैं उन्हें समझने की
जरूरत है। अब सरकार अगले साल का बजट समय से पहले पेश करने की पहल कर रही है। बजट फरवरी
के अंतिम दिन पेश किया जाता है। अब इसे पीछे
खिसकाकर जनवरी के अंत में लाने की कोशिश हो रही है, ताकि नए वित्त
वर्ष की शुरुआत से पहले बजट से जुड़े काम पूरे हो जाएं। सरकार का विचार है कि बजट
गतिविधियां 31 मार्च तक समाप्त हो जानी चाहिए।
वर्तमान व्यवस्था
में बजट पास करने का काम दो चरणों में फरवरी से मई के बीच होता है। वास्तविक बजट
उपबंध यानी वित्त विधेयक मई में पास होता है। जरूरी खर्च के लिए संचित निधि में से
धन निकालने के लिए सरकार अनु्छेद-116 के अंतर्गत संसद से अनुदान मांगें पास कराती
है। पूरा बजट पास होने में विलम्ब होने से उसे लागू करने में देर होती है। सरकारी
व्यय का विवरण देने वाले दस्तावेज बताते हैं कि वित्त वर्ष के पहले दो महीनों में
खर्च कम होता है। इससे सामाजिक कल्याण की योजनाओं से लेकर हाईवे और अस्पताल बनाने
तक का काम दो महीने विलम्ब से शुरू होता है। दरअसल अक्तूबर से मार्च के बीच ज्यादा
काम होता है, हड़बड़ी में होता है।
अब जब एक साल का
काम पूरा हो रहा होगा तभी अगले साल के कामों का फैसला हो रहा होगा, जिससे निरंतरता
बनेगी। प्रक्रिया जल्दी शुरू हो तो लेखानुदान पारित कराने की जरूरत नहीं होगी और
पूरा बजट एक चरण में 31 मार्च से पहले पास हो जाएगा।
काम के लिए पूरे बारह महीने मिलेंगे। बदलाव इतना ही नहीं है। सरकार योजनागत और
गैर-योजनागत व्यय को एक में मिलाना चाहती है। जीएसटी लागू होने से बजट का फॉर्मेट
भी बदलेगा। दस्तावेज छोटे हो जाएंगे। इससे बजट का पार्ट बी छोटा हो जाएगा। इसमें
केवल प्रत्यक्ष करों का विवरण होगा। इसका असर राज्यों के बजटों पर भी पड़ेगा।
अभी तक रेल बजट
और आम बजट अलग-अलग पेश होते रहे हैं। पहले रेल बजट उसके बाद आम बजट पेश करने की
परंपरा रही है। लगता है कि 92 साल से चली आ
रही यह परम्परा भी इस साल खत्म हो जाएगी। रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने संसद के पिछले
सत्र में इसका संकेत देते हुए राज्यसभा में कहा था कि वित्तमंत्री से उन्होंने रेल
बजट को सामान्य बजट में शामिल करने की बात की है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक
वित्त मंत्रालय ने पांच सदस्यों की समिति बनाई है, जो दोनों बजट का अध्ययन कर विलय
पर काम करेगी।
रेलवे का अलग बजट
बनाने की परम्परा सन 1924 से शुरू हुई थी। इसके लिए 1920-21 में बनाई गई विलियम एम
एकवर्थ कमेटी ने रेल बजट को सामान्य बजट से अलग पेश करने का सुझाव दिया था।
1920-21 मे सरकार का कुल बजट 180 करोड़ का था, जिसमें 82 करोड़ रु का केवल रेल बजट ही था। अकेला रेल विभाग
देश की अकेली सबसे बड़ी आर्थिक गतिविधि संचालित करता था। इसलिए उसका बजट अलग तैयार
करने का सुझाव दिया गया। अब उसकी जरूरत नहीं रही।
रेल बजट का
राजनीतिक इस्तेमाल भी खूब हुआ। गठबंधन सरकारें मजबूरी में सहयोगी पार्टियों को
रेलवे देती थीं, जो अपनी छवि चमकाने के लिए उसका इस्तेमाल करती थीं।
किराया-मालभाड़ा बढ़ाने पर यूपीए सरकार के रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी की ममता
बनर्जी ने हाथों-हाथ छुट्टी की थी। ऐसे प्रहसन शायद इस साल खत्म हो जाएंगे। नीति
आयोग के सदस्यों बिबेक देब्रॉय और किशोर देसाई ने अलग से रेल बजट पेश करने को खत्म
करने कहा था।
नए कानूनों को बनाने के साथ पुराने गैर-जरूरी कानूनों को खत्म करना भी जरूरी
है। मोदी सरकार ने पिछले दो साल में 1,159 पुराने कानूनों को खत्म किया है। इसके
पहले पिछले 64 साल में देश ने 1,301 कानूनों को खत्म किया गया था। तमाम कानून ऐसे
थे जो अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे थे और जिनकी आज कोई उपयोगिता नहीं रही। इस कवायद को शुरू करने के
पहले सरकार ने लगभग 1,741 पुराने कानूनों की पहचान की थी, जिन्हें खत्म किया जाना
था।
अब नए कानूनों की
जरूरत है। मसलन नागरिकों के अधिकार से जुड़े कानून चाहिए, सरकारी सेवाएं सुनिश्चित
करने वाले कानूनों की जरूरत है। ह्विसिल ब्लोवर संरक्षण कानून जो अभी संसद में विचाराधीन
है। आईपीसी और सीआरपीसी के गैर-जरूरी प्रावधानों के अलावा मोटर वाहन कानून में
बदलाव की जरूरत भी है। मॉनसून सत्र में संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया
गया था। उम्मीद है कि वह शीत सत्र में पास हो जाएगा। यह कानून जिस दौर में बना था तब सिर्फ अंग्रेज
और देसी रजवाड़ों की मोटरें ही होती थीं। वाहन मालिकों को बचाने के मकसद से कानून
में लापरवाही को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया। इससे चालक को तुरंत थाने से
ही जमानत मिल जाती है। ‘हिट एंड रन’ के मामलों में पैसे वाले आसानी से छूट जाते हैं।
सरकार ने वित्त
मंत्रालय के पूर्व आर्थिक सलाहकार डॉ. शंकर आचार्य की अध्यक्षता में चार सदस्यीय
समिति का गठन किया है, जो सुझाव देगी कि वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल वाला ही रखा जाए या
1 जनवरी वाला कैलेंडर वर्ष। समिति की रिपोर्ट 31 दिसम्बर तक आएगी। यदि भविष्य में
1 जनवरी से नया वित्त वर्ष शुरू हुआ तो बजट अक्तूबर में पेश होगा। भारत में मॉनसून
का असर अर्थ-व्यवस्था पर होता है। अभी का बजट मॉनसून के अनुमानों पर होता है। यदि
अक्तूबर में बजट पेश होगा तो मॉनसून गुजर जाने के बाद का होगा। भारत बदल रहा है। उम्मीद
है कि संसद की सक्रियता बढ़ेगी ताकि बदलाव जल्दी आए।
हरिभूमि में प्रकाशित
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