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Monday, August 8, 2016

डिफेंस मॉनिटर का ताजा अंक


डिफेंस मॉनिटर का ताजा अंक प्रकाशित हो गया है। यह अंक भारत के रक्षा उद्योग में निजी क्षेत्र की भागीदारी और पहली बार रक्षा सामग्री के निर्यात पर विशेष सामग्री के साथ सामने आ रहा है। इसके अलावा इसमें दक्षिण एशिया के बदलते परिदृश्य पर भी विशेष आलेख हैं। इस अंक की विशेष सामग्री का विवरण इस प्रकार है:-

रक्षा मंत्रालय को उद्योग जगत का समर्थन-जयंत डी पाटील
भारत-चीन के बीच सीमित युद्ध की आशंका-गुरमीत कँवल
रक्षा उद्योग में एफडीआई-बड़े अरमान से रखा है कदम-डॉ लक्ष्मण कुमार बेहरा
भारत की पाक नीति : निरंतरता और बदलाव की जरूरत-डॉ उमा सिंह
विमान दुर्घटनाएं : जाँच सजा के लिए नहीं, तथ्य जाँचने के लिए हो-एके चोपड़ा
अफगानिस्तान के राजदूत डॉ शैदा मोहम्मद अब्दाली से खास बातचीत
अन्य स्थायी स्तम्भों के साथ इस अंक में मझगाँव डॉक्स पर विशेष सामग्री है, जिससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि युद्ध पोत और पनडुब्बी निर्माण की तकनीक के साथ कितने बड़े सरंजाम की जरूरत होती है।

इस अंक में मेरा एक लेख बढ़ते भारत-चीन  गठजोड़ और कश्मीर के घाटी क्षेत्र में बदलते घटनाक्रम पर है, जिसे मैं नीचे भी दे रहा हूँः-

पाकिस्तान और चीन अब एक हैं
प्रमोद जोशी
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में हाल में चुनाव हुए हैं, जिनमें नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) को सफलता मिली है। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पिछले कुछ समय से अपने इलाज के सिलसिले में लंदन में थे। वहाँ से लौटने के बाद वे सबसे पहले पीओके में ही गए और वहां जाकर कहा, अब बहुत जल्द जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान बन जाएगा। उन्होंने यह बात जम्मू-कश्मीर में बुरहान वानी की मौत के बाद पैदा हुए हालात के संदर्भ में कही थी। इस बयान के जवाब में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने फौरन ही बयान जारी किया कि पाकिस्तान ऐसे सपने न देखे, वह दिन कभी नहीं आएगा।

बयानबाज़ी अपनी जगह है, पर पाकिस्तान ने पिछले दो साल में कश्मीर नीति के मद्देनजर वैश्विक मंच पर अपनी गतिविधियों को बढ़ाया है। सन 2008 से देश में फिर से बनी असैनिक सरकार धीरे-धीरे विदेश नीति से जुड़े अधिकार सेना को वापस करती जा रही है। 26 मई 2014 को दिल्ली में नरेन्द्र मोदी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह के लिए आए प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कश्मीर को लेकर एक शब्द नहीं कहा था। उन्होंने हुर्रियत कांफ्रेंस के प्रतिनिधियों से मुलाकात भी नहीं की। इसके बाद मोदी सरकार ने अगस्त में विदेश सचिव स्तर की वार्ता को केवल इस आधार पर रद्द कर दिया कि पाकिस्तान ने हुर्रियत से बातचीत की। फिर 10 जुलाई 2015 को रूस के उफा शहर में दोनों देशों के बीच बातचीत फिर से शुरू करने पर जो सहमति बनी उसके कागज में भी कश्मीर का जिक्र नहीं था।
लोकतांत्रिक सरकार की विफलता
वहाँ तक लगता था कि नवाज शरीफ अपनी मर्जी से चीजें तय कर रहे हैं। पर उफा की सहमति की खबर पाकिस्तान पहुँची नहीं कि तीखी प्रतिक्रियाएं शुरू हो गईं। परिणाम यह हुआ कि 13 जुलाई को सरताज अजीज को बयान देना पड़ा कि कश्मीर को एजेंडा में शामिल किए बगैर भारत के साथ बातचीत हो ही नहीं सकती। तब तक सरताज अजीज देश के सुरक्षा सलाहकार होते थे। उफा के बाद अब उन्हें हटाकर उनकी जगह एक रिटायर्ड जनरल नासर खान जंजुआ को सुरक्षा सलाहकार बनाया गया। यह किसका काम था? विदेश और रक्षा नीति दोनों पर सेना का दबदबा जाहिर हो गया।
पिछले दिनों नवाज शरीफ जब अपने इलाज के लिए लंदन गए हुए थे उनकी अनुपस्थिति में वित्त मंत्री इशाक दर सरकार के प्रमुख का काम कर रहे थे। उस दौरान 8 जून को रावलपिंडी स्थित सेना-मुख्यालय में सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ ने बैठक बुलाई जिसमें उनके सामने इशाक दर भी बैठे। बताते हैं कि उस बैठक में राहिल शरीफ ने वित्त मंत्री को फटकार भी लगाई। इतना जाहिर है पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार मरियल हाल में है। हाल में देश में पोस्टर लगाए गए हैं जिनमें आह्वान किया गया है कि सेना सत्ता सम्हाले। इधर 17 जुलाई को इस्लामगढ़ की एक रैली में तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के नेता इमरान खान ने कहा, देश में सेना सत्ता सम्हालेगी तो हम मिठाई बाँटेंगे। यह कैसा लोकतंत्र है?
जिया की देन है जेहादी राजनीति
अस्सी के दशक में कश्मीर में आतंकी गतिविधियों का बढ़ना नए पाकिस्तान का आइना था। इसकी भूमिका जनरल जिया-उल-हक बनाकर गए थे, जिन्होंने 1978 से 1988 के बीच शासन किया। उस दौर में पाकिस्तानी सेना के भीतर कट्टरपंथी तत्वों ने प्रवेश किया और तालिबान की अवधारणा भी उसी दौर की देन है। उसी दौर में अमेरिका ने सोवियत संघ को परास्त करने के लिए पाकिस्तानी कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया। उसी दौर में चीन ने पाकिस्तान के असली दोस्त के रूप में प्रवेश किया था।
उसके पहले निक्सन के दौर में अमेरिका ने चीन को रूस के मुकाबले खड़ा किया था। भारत-पाकिस्तान रिश्तों में अब चीन को शामिल करना भी उतना ही जरूरी हो गया है। हालांकि 1999 के करगिल युद्ध में चीन ने हस्तक्षेप नहीं किया, पर यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि भविष्य में वह हस्तक्षेप नहीं करेगा। तब उसकी ताकत वही नहीं थी जो अब है। बहरहाल दक्षिण एशिया के वर्तमान राजनय की दिशा को समझने के लिए हमें कम से कम तीन स्तर पर अपने रिश्तों को समझना होगा। ये तीन स्तर हैं-
·        वैश्विक आर्थिक-सामरिक समूहों में भारत
·        भारत-चीन-पाकिस्तान रिश्ते
·        भारत-पाकिस्तान रिश्ते, खासतौर से कश्मीर के मद्देनजर

सन 1998 के एटमी धमाकों के बाद अमेरिका ने भारत पर पाबंदियाँ लगाईं। उसके बाद दोनों देशों के बीच बातचीत के दौर चले। इसी दौरान इराक से लेकर अफगानिस्तान तक अमेरिका जेहादी राजनीति की लपेट में आ गया। अल-कायदा ने दुनिया के कई कोनों में अमेरिकी हितों को चोट पहुँचाना शुरू कर दिया। अमेरिका ने जिन अफगान समूहों की मदद की थी उन्होंने अल-कायदा का दामन थाम लिया। फिर 9/11 की घटना ने सारी अवधारणाएं बदल दीं। उधर पश्चिमी देशों के निवेश, तकनीक और बाजार के सहारे पनपे चीन ने एक समांतर शक्ति के रूप में उभरना शुरू कर दिया। अमेरिका ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा के बाबत सोचना शुरू किया।
भारत का उदय चीन को नामंजूर
भारत और अमेरिका के बीच 2005 में सामरिक सहयोग का समझौता हुआ। उसके बाद 2008 के न्यूक्लियर डील के साथ ही अमेरिका ने भारत को चार महत्वपूर्ण ग्रुपों का सदस्य बनवाने का वादा किया था। ये हैं, न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41 देशों का वासेनार अरेंजमेंट और चौथा ऑस्ट्रेलिया ग्रुप। ये चारों समूह सामरिक-तकनीकी विशेषज्ञता के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा अमेरिका ने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलाने के लिए पूरा समर्थन देने का वादा किया है। इन बातों से भारत की छवि एक महत्वपूर्ण देश की बनेगी। चीन को यह बात सुहाएगी नहीं।
हालांकि भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप ने नाभिकीय तकनीक के आदान-प्रदान की छूट दे दी है, पर पूर्ण सदस्यता के रास्ते में चीन ने अड़ंगा लगा दिया है। यह अड़ंगा हालांकि भारत के एनपीटी में शामिल न होने की बिना पर है, पर सच यह है कि चीन ने एनपीटी का खुला उल्लंघन किया है। उसने उत्तरी कोरिया और पाकिस्तान को नाभिकीय तकनीक दी। जिस वक्त यह काम हो रहा था, अमेरिका ने उसकी अनदेखी की। पर आज यह अनदेखी अमेरिका पर भारी पड़ रही है।
पाकिस्तानी पहल
सन 1962 की लड़ाई के बाद पाकिस्तान को समझ में आ गया कि भारत से निपटने में चीन की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उसने सबसे पहले अक्साईचिन की हजारों किलोमीटर जमीन चीन को दी। पाकिस्तान को चीन अपना ‘अकेला मित्र’ देश कहता है। पाकिस्तान ने चीन को अरब सागर तक का रास्ता दिया है और ग्वादर का बंदरगाह। पाकिस्तान की पहल पर अमेरिका ने चीन को अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका दी है। अफगान तालिबान के साथ भी चीन के गहरे रिश्ते हैं। धीरे-धीरे यह बात साफ होती जा रही है कि चीन-पाक दोस्ती भारत के प्रति इन दोनों देशों की नफरत का परिणाम है।
चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर भी सामरिक ज्यादा है, आर्थिक कम। दूसरी और पाकिस्तान ने भारत को अफगानिस्तान तक का जमीनी रास्ता देने से इनकार कर दिया है। हमें ईरान तक समुद्री रास्ता पकड़ना होगा, जिसके बाद जमीनी रास्ता बनाना होगा। भारत को मध्य एशिया से कारोबार करने के लिए रास्ते की जरूरत है, वैसे ही जैसे चीन को जरूरत है। उम्मीद थी कि अपने आर्थिक हितों को देखते हुए पाकिस्तानी जेहादियों को चीन काबू में रखेगा। फिलहाल यह भी नहीं लगता।
उफा से पठानकोट तक
पिछले साल उफा से शुरू हुई प्रक्रिया कुछ समय तक थमने के बाद बैंकॉक में भारत और पाकिस्तान के रक्षा सलाहकारों की बैठक के बाद फिर शुरू हुई। दिसम्बर 2015 में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में भाग लेने पाकिस्तान गईं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी काबुल यात्रा से वापसी के वक्त अनौपचारिक रूप से लाहौर में उतरे। माहौल फिर से खुशनुमा होने लगा था। तय हुआ कि जनवरी में दोनों देशों के विदेश सचिवों की बातचीत होगी, ताकि भविष्य का एजेंडा तय हो सके। पर उसके पहले ही पठानकोट हवाई अड्डे पर हमला हो गया।
पाकिस्तान के जेहादी प्रतिष्ठान की योजना कुछ और है। और इसमें सेना की भूमिका भी है। भारतीय खुफिया एजेंसियों के अनुसार पठानकोट हमले में जैशे-मुहम्मद का हाथ है। यह संगठन आईएसआई का सहयोगी है। इसके सरगना मसूद अज़हर को भारतीय जेल से छुड़ाने के लिए ही दिसम्बर 1999 में नेपाल से इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण किया गया था। उस पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की पाबंदियां लगने का मौका आया तो चीन ने तकनीकी अड़ंगा लगा दिया। क्या इससे ज़ाहिर नहीं होता कि पाकिस्तान में किसकी विदेश नीति चलती है? और चीन किसका सरपरस्त है?  
कश्मीर में पिछले कई महीनों से जो हालात बन रहे हैं, वे बताते हैं कि कोई ताकत सारी चीजों को अपनी दिशा में मोड़ रही है। भारत में इस वक्त सारी बहस पुलिस बलों की कार्रवाई और कश्मीरी किशोरों के गुस्से पर केन्द्रित है। पर पाकिस्तान इस मामले को नए सिरे से अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर उठाने की तैयारी कर रहा है। पाकिस्तान ने 20 जुलाई को जो काला दिवस मनाया वह इस योजना का ही हिस्सा था। काला दिन मनाने के साथ नवाज शरीफ ने कहा, अब कश्मीर के पाकिस्तान बनने की घड़ी नजदीक आ गई है।
संवाद की बातें बंद
नवाज शरीफ अब वही बोलेंगे जो सेना कहेगी। पाकिस्तान ने अपने तमाम दूतावासों को सक्रिय कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य देशों के साथ खासतौर से सम्पर्क साधा गया है। यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि कश्मीर घाटी में असाधारण जनांदोलन खड़ा हो गया है। इस बार की रणनीति नब्बे के दशक अलग है।
नब्बे के दशक की हिंसक रणनीति विफल होने और खासतौर से 9/11 के बाद सन 2000 से 2008 तक पाकिस्तानी रणनीति बातचीत के जरिए समझौते पर पहुँचने की थी। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने राम जेठमलानी समिति बनाई, जिसने हुर्रियत के साथ सम्पर्क साधा। तब लगने लगा था कि हुर्रियत चुनावों में भाग लेने के लिए तैयार हो जाएगी। इसके बाद सन 2004 में दिल्ली में यूपीए सरकार आने के बाद भी कश्मीर में संवाद चला। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर जाकर कहा कि हम अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा बदलने के पक्ष में नहीं हैं, पर कश्मीर में नियंत्रण रेखा को अप्रासंगिक बना देंगे। यानी उसके आर-पार आवाजाही और व्यापार को बढ़ावा देंगे।
यह वह दौर था जब पाकिस्तान में सत्ता का केवल एक केन्द्र था-परवेज मुशर्रफ। मुम्बई पर हमला मुशर्रफ के दौर की समाप्ति के बाद हुआ, जिससे दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य करने की कोशिशें रुक गईं और तबसे रुकी हुईं हैं। इसके बाद दूसरा दौर शुरू हुआ, जिसके तहत कश्मीर के आंदोलन को जनांदोलन में तब्दील करने की कोशिशें शुरू की गईं।
मई 2008 में कश्मीर सरकार ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड के साथ एक समझौता किया, जिसके तहत कुछ जमीन यात्रा के दौरान अस्थायी निर्माण के लिए दी जानी थी। इसके विरोध में शुरू हुआ आंदोलन किसी न किसी रूप में इसके बाद जारी रहा। सन 2010 की गर्मियों में कश्मीर घाटी में किशोरों का पत्थर मारोआंदोलन चला, जिसके पीछे सैयद अली शाह गिलानी का आह्वान था।
कश्मीर राजनीतिक समस्या है। ऐसा नहीं कि इसे राजनीतिक तरीके से सुलझाने की कोशिश नहीं की गई। 13 अक्तूबर, 2010 को भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने जम्मू कश्मीर की समस्या का अध्ययन कर उसका समाधान खोजने के लिए एक तीन सदस्यीय दल का गठन किया। इस दल में पत्रकार दिलीप पाडगाँवकर के अलावा शिक्षाविद राधा कुमार और एक पूर्व उच्च सरकारी अधिकारी एमएम अंसारी थे। इस टीम ने कश्मीर के अलगाववादियों से व्यापक बातचीत की। इसने 12 अक्तूबर, 2011 को अपनी रिपोर्ट सौंपी।
टीम की सिफारिश थी कि अनुच्छेद 370 को  अस्थायी  के बजाय ‘विशेष’  में परिवर्तित कर दिया जाए। वार्ताकारों ने 1952 के बाद लागू किए गए सभी कानूनों की समीक्षा के लिए एक संविधान समिति बनाने की अनुशंसा भी की। इस समिति के अलावा नई दिल्ली तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधि मण्डल कश्मीर घाटी गया। इस दल में भाजपा के अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, माकपा के सीताराम येचुरी, लोजपा के रामविलास पासवान सहित विभिन्न दलों के 38 सदस्य शामिल थे।
कश्मीर के हालात
इस टीम ने भी अलगाववादियों के साथ अनौपचारिक बातचीत की। ये सारी कोशिशें कश्मीर में हालात सामान्य बनाने के लिए थीं, पर व्यावहारिक सतह पर कुछ नहीं हुआ। सारी रिपोर्टें और सिफारिशें कागजों पर रखी रह गईं। पाकिस्तान अब नहीं चाहेगा कि भारत की सरकार और कश्मीर की जनता के बीच किसी प्रकार का मधुर रिश्ता बने। समस्या के कई तरह के समाधान अतीत में सुझाए गए हैं। इन सबका लब्बो-लुबाव है कि किसी तरह से माहौल को ठीक किया जाए और सीमा रेखा को छेड़े बगैर दोनों तरफ से आवागमन बढ़ाया जाए।
भारत के पूर्व राजनयिक और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार में पाकिस्तान मामलों के विशेष दूत सतिंदर के लाम्बा ने एक बार दावा किया था कि सुलझाने का ठोस फॉर्मूला मौजूद है। इस फॉर्मूले के तहत 2007 में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच डील करीब-करीब फाइनल हो चुकी थी। भारत इस बात पर राजी था कि वह कश्मीर में सेना की तैनाती में कटौती करेगा और पाकिस्तान इस बात पर सहमत था कि वह कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की जिद छोड़ देगा। दोनों देश बात मान चुके थे कि अब नए सिरे से बॉर्डर नहीं बनाया जा सकता, इसलिए आपस में लड़ने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। मुशर्रफ ने इस बारे में पाक फौज और आईएसआई को भरोसे में ले लिया था।
मनमोहन सिंह सरकार इस फॉर्मूले के बारे में कांग्रेस पार्टी और विपक्ष से चर्चा करने ही वाली थी कि पाकिस्तान में हालात बदल गए। मुशर्रफ के खिलाफ आंदोलन छिड़ गया, जिसके चलते उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी। फिर 26/11 के आतंकी हमलों के बाद दोनों देशों के बीच बातचीत बंद हो गई और तबसे बंद पड़ी है। और अब भारत की मौजूदा सरकार ने कोशिश की भी तो वह पठानकोट प्रकरण के बाद ठप हो गई है।

http://blogs.timesofindia.indiatimes.com/Globespotting/jewel-in-chinas-crown-pakistan-is-increasingly-looking-like-the-lynchpin-of-beijings-south-asia-strategy/

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