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Sunday, August 21, 2016

क्या राष्ट्रीय बनेगा दलित प्रश्न?

गुजरात में 15 अगस्त को पूर्ण हुई दलित अस्मिता यात्रा ने राष्ट्रीय राजनीति में एक नई ताकत के उभरने का संकेत किया है। दलितों और मुसलमानों को एक मंच पर लाने की कोशिशें की जा रहीं है। राजनीति कहने पर हमारा पहला ध्यान वोट बैंक पर जाता है। गुजरात में दलित वोट लगभग 7 फीसदी है। इस लिहाज से यह गुजरात में तो बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं बनेगी, पर राष्ट्रीय ताकत बन सकती है। बेशक इससे गुजरात के चुनाव पर असर पड़ेगा, पर फौरी तौर पर रैली का राष्ट्रीय निहितार्थ ज्यादा बड़ा है। 
इस ताकत को खड़ा करने के पहले कई किन्तु-परन्तु भी हैं। सच यह है कि सभी दबी-कुचली जातियाँ किसी एक मंच पर या किसी एक नेता के पीछे खड़ी नहीं होतीं। उनकी वर्गीय चेतना पर जातीय चेतना हावी रहती है। सभी जातियों के मसले एक जैसे नहीं हैं। प्रायः सभी दलित जातियाँ भूमिहीन हैं। उनकी समस्या रोजी-रोटी से जुड़ी है। दूसरी समस्या है उत्पीड़न और भेदभाव। जैसे मंदिर में प्रवेश पर रोक वगैरह। इन दोनों के समाधान पीछे रह जाते हैं और राजनीतिक दल इन्हें वोट बैंक से ज्यादा नहीं समझते।  

दलित-मुस्लिम गठजोड़ को वामपंथी दल, कांग्रेस और आप अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल करना चाहेंगे। ऊना में गो-रक्षकों के हाथों दलित युवकों की पिटाई ने ट्रिगर का काम किया। उस रोष को मुखर करने का काम दलित अस्मिता यात्रा ने किया। यह यात्रा भी साध्य नहीं साधन मात्र है। राजनीतिक दलों की अपनी समझ है, पर मूलतः यह देश के विकास-मॉडल पर गम्भीर टिप्पणी है। यह विकास समावेशी नहीं है। देखना होगा कि यह आंदोलन राष्ट्रीय राजनीति को कमजोर तबकों के हितों की दिशा में मोड़ पाता है या नहीं। प्रदर्शन में रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला और जेएनयू के कन्हैया कुमार भी शामिल हुए।
गुजरात में हाल के वर्षों में तीन युवा राजनेता सामने आए हैं। पहले हार्दिक पटेल ने ध्यान खींचा था। पाटीदार आंदोलन गुजरात के समर्थ भूस्वामियों का आंदोलन है। वे बड़ी राजनीतिक शक्ति भी हैं। अब आगे आए है जिग्नेश मेवाणी, जो ऊना दलित अत्याचार लड़त समिति (यूडीएएलएस) के संयोजक हैं। पिछले हफ्ते तक वे आम आदमी पार्टी (आप) की गुजरात इकाई के सदस्य भी थे। इस मार्च के बाद उन्होंने आम आदमी पार्टी को छोड़ दिया है। तीसरे हैं अल्पेश ठाकुर, जो पाटीदारों के जबाव में ओबीसी का प्रतिनिधित्व करते हैं। तीनों अलग-अलग रंगत की शक्तियाँ हैं। पर तीनों के सवाल रोजी-रोटी से जुड़े हैं। खेतिहर व्यवस्था खत्म हो रही है। उत्पादन के साधन बदल रहे हैं और लोग आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
जिग्नेश मेवाणी अरसे से दलित-अधिकारों को लेकर सक्रिय हैं। वे जन संघर्ष मंच (जेएसएम) से जुड़े रहे, जो भूमिहीनों और कॉरपोरेट मजदूरों के अधिकारों के लिए काम करता है। गुजरात कृषि भूमि चकबंदी कानून में अतिरिक्त सरकारी भूमि को भूमिहीन दलितों को आवंटित करने का प्रावधान है। मेवाणी के अनुसार इस कानून का कभी पालन नहीं किया गया। सरकार अतिरिक्त भूमि दलितों को नहीं दे रही है। अब उन्होंने कहा है कि यह जमीन दलितों को देने का काम शुरू नहीं किया गया तो हम 15 सितंबर से रेल रोको आंदोलन शुरू करेंगे। यानी अभी आंदोलनों का दौर शुरू होगा।  
ऊना के वीडियो ने देशभर को उद्वेलित किया था। इसके बाद अरविंद केजरीवाल, मायावती और राहुल गांधी जैसे नेताओं ने इस इलाके के दौरे किए। यह इसका राजनीतिक पहलू है। कांग्रेस गुजरात में अपनी पुरानी जमीन को वापस पाने के लिए बीजेपी को अपदस्थ करना चाहती है। इस लड़ाई में अब आम आदमी पार्टी भी शामिल हो गई है। दोनों का लक्ष्य एक है, पर हित टकराते हैं। पाटीदार आंदोलन बीजेपी के लोगों का ही आंदोलन है। दलित-आंदोलन और पाटीदार आंदोलन एकसाथ नहीं चल सकते। इन आंदोलनों के साथ बीजेपी की अंदरूनी लड़ाइयाँ भी गड्ड-मड्ड हो गई हैं। हाल में गुजरात में हुआ नेतृत्व परिवर्तन उसका प्रमाण है।  
इन सब बातों से दीगर दबे-कुचले दलित समुदाय के लिए यह सामाजिक सम्मान की लड़ाई है और आर्थिक सुरक्षा का सवाल भी। राष्ट्रीय स्तर पर दलित एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा की निगाहें अब दलितों से ज्यादा सवर्णों पर हैं। और बीजेपी की दलितों पर। देश में दलितों की संख्या 15 प्रतिशत है। पिछले लोकसभा चुनावों में उनके बड़े तबके का वोट भाजपा के पक्ष में गिरा।  इस बात को नरेन्द्र मोदी समझते हैं। इसीलिए रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उन्होंने मार्मिक संवेदना जताई थी। उन्हें उत्तर प्रदेश के दलित वोटरों की फ़िक्र है।  
हाल में नरेन्द्र मोदी ने कहा, ‘मैं देशवासियों को बताना चाहता हूं कि फर्जी गो-रक्षकों से सचेत रहें।’ और एक दिन बाद कहा, ‘अगर आप गोली मारना चाहते हैं तो मुझे मार दीजिए। लेकिन मेरे दलित भाइयों पर हमला बंद करो।’ दलितों से जुड़े प्रश्न अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी उठाए थे। जुलाई 2000 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने राज्यपालों की समिति बनाकर अजा-जजा कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से लागू करने की दिशा में सुझाव देने को कहा। समिति ने दलितों को भूमि वितरण में तेजी लाने का सुझाव दिया था। सरकारों के पास इतनी अतिरिक्त भूमि है कि हरेक दलित परिवार को जमीन दी जा सके।
हालांकि यह काम राज्य सरकारों का है, पर केन्द्र भी इसका भागीदार है। सन 2004 में बनी यूपीए सरकार ने दलितों को भूमि वितरण का काम अपने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में शामिल किया, पर दस साल में उस दिशा में कुछ हुआ नहीं। इधर अजा-जजा (अत्याचार निवारण) संशोधन विधेयक-2015 के पास होने के बाद दलित उत्पीड़न के मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित होनी चाहिए। उसकी प्रगति का पता नहीं। इन दिनों जो मामले उठ रहे हैं वे ज्यादातर उत्पीड़न से जुड़े हैं। पर वास्तविक समस्या आर्थिक है। क्या राजनीतिक दल संजीदगी से इसका निर्वाह कर पाएंगे? ज्यादा बड़ा सवाल यही है।



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