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Sunday, July 31, 2016

केजरीवाल की बचकाना राजनीति

अरविंद केजरीवाल सायास या अनायास खबरों में रहते हैं। कुछ बोलें तब और खामोश रहें तब भी। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ आग लगाने वाले बयान देकर वे दस दिन की खामोशी में चले गए हैं। शनिवार को उन्होंने नागपुर के अध्यात्म केंद्र में 10 दिन की विपश्यना के लिए दाखिला लिया है, जहाँ वे अखबार, टीवी या मीडिया के संपर्क में नहीं रहेंगे। हो सकता है कि वे सम्पर्क में नहीं रहें, पर यकीन नहीं आता कि उनका मन मुख्यधारा की राजनीति से असम्पृक्त होगा।

केजरीवाल के पिछले तीन साल के व्यवहार ने देश के संजीदा लोगों के बीच उनकी साख को क्रमशः कम किया है। इन बातों से वे अपनी राजनीति को किस हद तक सफल बनाएंगे इसका एक संकेत पंजाब के चुनावों में मिलेगा। पर हाल में कुछ बयान उनके बारे में धारणा बदलने को मजबूर कर रहे हैं। बेशक दिल्ली की जनता ने उनके भीतर एक नए किस्म के राजनेता की झलक देखी थी और उन्हें सिर-आँखों पर बैठाया। पर वे जिस राजनीति के खिलाफ खड़े थे उसके ही लटकों-झटकों पर चलना शुरू कर दिया है।
पिछले हफ्ते एक वीडियो संदेश में अरविंद केजरीवाल ने नरेन्द्र मोदी पर आरोप लगाया 'वह इतने बौखलाए हुए हैं कि मेरी हत्या तक करवा सकते हैं।' इसके पहले केजरीवाल ने मोदी को मनोरोगी बताया था। कायर और मास्टरमाइंड भी। और यह भी कि मोदी मुझसे घबराता है। हो सकता है कि मोदी के मन में ये सब बातें हों, पर मानने को मन नहीं करता कि उनके पास सुबह से शाम तक सिवाय केजरीवाल के कोई और मसला ही नहीं है वास्तव में यह भारत के लोकतंत्र को कलंकित करने की बात है कि देश का प्रधानमंत्री किसी मुख्यमंत्री के बारे में इस तरह सोचता है और यह बात मुख्यमंत्री को पता है। यह अति है। दूसरे शब्दों में मोदी मैनिया।
नरेन्द्र मोदी या उनकी पार्टी की घृणित योजना है या नहीं यह बात जनता भी देख और समझ रही है। दिल्ली की आप सरकार सोशल मीडिया की मदद से जीतकर आई है। उसका अनुमान है कि जनता के मन में धीरे-धीरे कोई बात बैठाई जा सकती है। मोदी को रास्ते से हटाने के बाद क्या केजरीवाल को 'चंद्र खिलौना' मिल जाएगा? दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर केजरीवाल जो सवाल उठा रहे हैं वे मोदी और केजरीवाल के सवाल नहीं हैं। वे देश की राजधानी की व्यवस्था से जुड़े सवाल हैं। केजरीवाल इस व्यवस्था के अंग हैं। इस बात को सही फोरम पर सही तरीके से उठाया जाना चाहेिए।
यह सच है कि दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार के बीच शक्तियों के विभाजन में तराजू का पलड़ा केन्द्र की तरफ झुका है। यह भी सच है कि दिल्ली सरकार के अधीन पुलिस नहीं होने के कारण कई तरह की दिक्कतें हैं, पर किया क्या जाए? यह भी मान लिया कि दिल्ली पुलिस आप सरकार को परेशान करने के हर मौके का इस्तेमाल कर रही है। पिछले कुछ दिनों में उसके 11 विधायकों की गिरफ्तारी से ऐसा लगता है। ऐसा है तो यह केन्द्र सरकार की नादानी है। इस बात को मोदी और अमित शाह से बेहतर कौन समझेगा कि सरकारी एजेंसियों के इस्तेमाल से विरोधियों को खत्म नहीं किया जा सकता। यदि वे इसी तरीके से काम करेंगे तो भुगतेंगे।
पर यह एकांगी सच है। पुलिस की एकतरफा कार्रवाई की पोल अदालती हस्तक्षेप से खुल भी सकती है। जिन विधायकों की गिरफ्तारी हुई उनमें से कुछ मामले विश्वसनीय भी हैं। पुलिस की भूमिका असंतुलित है तो इसका राजनीतिक नुकसान बीजेपी को जरूर होगा। थोड़ा धीरज रखिए। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि केजरीवाल सरकार ने दिल्ली पुलिस से पंगा लेने में कभी कोई कमी नहीं की। दिल्ली के पहले कानून मंत्री सोमनाथ भारती जिस तरह से रातों में छापे मार रहे थे और दरोगाओं को फटकार लगा रहे थे, उसे भी जनता ने देखा।
आप सरकार खुद को प्रताड़ित साबित करके सत्ता में आई है। पर अब वह सत्तारूढ़ दल है। उसका प्रताड़ित कार्ड ज्यादा देर तक नहीं चलेगा। अब वह सत्ता-प्रतिष्ठान का हिस्सा है, आंदोलनकारी नहीं। आंदोलनकारी और सत्ता संचालन की राजनीति एक साथ नहीं चलती। कल्पना कीजिए पंजाब में आप सरकार बन जाएगी तब क्या होगा? तब पुलिस भी उसके पास होगी। उसके बाद उसकी सही परीक्षा होगी।
केन्द्र के साथ विक्टिम कार्ड तब भी खेला जा सकेगा, पर प्रदेश की जनता की उम्मीदों को भी पूरा करना होगा। राज्य के हित में केन्द्र के साथ रिश्ते बनाने होंगे। केजरीवाल मुख्यमंत्री होते हुए धरने पर बैठे थे। वे आज भी धरने पर बैठ सकते हैं, पर पंजाब में उन्हें उन्हीं विपरीत स्थितियों का सामना कर पड़ेगा, जिन्हें वे दिल्ली में तैयार कर रहे हैं। दीर्घकालीन राजनीति के लिए संजीदगी की जरूरत होगी। बीजेपी को भी अपनी कुछ गलतियों की कीमत चुकानी पड़ रही है। यूपीए के दौर में भारतीय जनता पार्टी ने विरोध के जो तरीके अपनाए, वे पलट कर उसके सामने आ रहे हैं। बीजेपी अब कभी दुबारा विपक्ष में आएगी तो उसे अपने व्यवहार के बारे में सोचना होगा।
बहरहाल केजरीवाल जल्दबाजी में हैं। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मोर्चा उन्होंने ही खोला है। गुजरात और बनारस चुनाव लड़ने वे ही गए थे। शायद मोदी के समांतर खड़े होने से भी वे बड़े नेता बने या उनकी समझ है कि यह फॉर्मूला कामयाबी दिलाएगा। बेशक वे बड़े नेता बने भी हैं, पर बड़प्पन बनाए रखने की जरूरत है। मोदी-मोदी करने से काम नहीं होगा। मोदी की डिग्री की पड़ताल करने के लिए आम आदमी पार्टी के नेताओं के दस्ते का दिल्ली विश्वविद्यालय पर छापे मारना बचकाना था। केजरीवाल का ताजा वीडियो उस बचकानेपन की इंतहा है। मोदी अपराजेय नहीं हैं, पर उन्हें परास्त करना है तो मौलिक और संजीदा तरीके अपनाइए। जीवन और समाज के तमाम सत्य सामने लाए जा सकते हैं।
जिस राजनीति के सहारे आप आए थे उसे ही कायदे से चलाते रहते तो ठीक था। पर आप को जल्दी है। इस जल्दबाजी में आप भटक गए हैं। लम्बे समय तक राजनीति में रहना हैं तो उसकी संजीदगी को भी समझें। सन 1971 में इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ की आंधी लेकर आईं थीं। चार साल के भीतर अलोकप्रिय हो गईं। उम्मीदें पैदा करना आसान है, पूरा करना मुश्किल। मोदी सरकार के सामने भी भँवर हैं। उनकी गतिशीलता को समझिए। बच्चों जैसी हरकतें मत कीजिए। आंधियाँ तेज हों तो बरगदों को भी जड़ समेत उखाड़ ले जाती हैं। मोदी की राजनीति ध्वस्त हो सकती है, और आपकी भी।
हरिभूमि में प्रकाशित

अरविंद केजरीवाल ने आज सुबह ही एक ट्वीट किया है जिसमें ट्रिब्यून के प्रधान सम्पादक हरीश खरे के साप्ताहिक कॉलम के एक अंश का इमेज नत्थी किया है। वह अंश मैं नीचे दे रहा हूँ। उसे भी पढ़ा जाना चाहिएः-

I am not an admirer of the Aam Aadmi Party. Nor do I particularly care for Arvind Kejriwal’s kind of politics of constant protest and confrontation. Nor has the party notched up any record of substantive governance in Delhi. But somehow, I find it a tad unfair that all other political parties are ganging up on Kejriwal and his party.

There is something very wrong in the manner in which the BJP, the Congress and the Akalis pooled their lung power and parliamentary numbers to hound Bhagwant Mann in Parliament.

Mann was being plainly foolish in videographing his parliamentary persona. But it takes quite a bit of imagination –and, mal-intent — to suggest that he would have compromised ‘security’ at the Parliament House. In this age of “Google map” when anyone can buy satellite images of any building, this issue of ‘security’ at the Parliament House is laughable. Security of a building depends, invariably and always, on the professional alertness of those guarding it.

All these three established parties find themselves rattled because of the kind of traction the AAP is getting in rural Punjab. Of course, they are under no obligation to give a free passage to the AAP, simply because it claims itself to be an ‘anti-corruption’ outfit.

The AAP is a product of a certain kind of dissatisfaction with what the conventional political parties have had to offer to the people of India. Its astounding victory in Delhi may be a source of discomfort to the Congress and the BJP, but its success has only deepened the Indian democracy.

The manner in which the Central government is using the Delhi Police and other agencies to harass and hound the AAP MLAs should be a matter of concern to all democratic voices. There is something blatantly unfair and unwholesome about this witch-hunting.
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1 comment:

  1. लेकिन केजरीवाल तो लाख समस्याओं का एक ही हल मानते हैं मोदी सर पर ठीकरा फोड़ना , ऐसा लगता है चुनाव पूर्व वह इसी योजना सोच चुके थे , अब जनता समझने लगी है , और मोदी जाप से दुबारा नाव पार नहीं लगने वाली है , जनता चाहती है चाहे सरकार किसी भी पार्टी की क्यों न हो

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