देश के तकरीबन पाँच करोड़ लोग किसी न किसी रूप में वेतन-भत्तों, पेशन, पीएफ जैसी सुविधाओं का लाभ प्रप्त कर रहे हैं। इनमें से कुछ को स्वास्थ्य सेवा या स्वास्थ्य बीमा का लाभ भी मिलता है. हमारी व्यवस्था जिन लोगों को किसी दूसरे रूप में सामाजिक संरक्षण दे रही है, उनकी संख्या इसकी दुगनी हो सकती है. यह संख्या पूरी आबादी की की दस फीसदी भी नहीं है. इसका दायरा बढ़ाने की जरूरत है. कौन बढ़ाएगा यह दायरा? यह जिम्मेदारी पूरे समाज की है, पर इसमें सबसे बड़ी भूमिका उस मध्य वर्ग की है, जिसे सामाजिक संरक्षण मिल रहा है. केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन-भत्तों का बढ़ना अच्छी बात है, पर यह विचार करने की जरूरत है कि क्य हम इतना ही ध्यान असंगठित वर्ग के मजदूरों, छोटे दुकानदारों, कारीगरों यानी गरीबों का भी रख पा रहे हैं. देश का मध्य वर्ग गरीबों और शासकों को बीच की कड़ी बन सकता है, पर यदि वह अपनी भूमिका पर ध्यान नहीं देगा तो वह शासकों का रक्षा कवच साबित होगा. व्यवस्था को पारदर्शी और कल्याणकारी बनाने में उसकी भूमिका बड़ी है. केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में सुधार की खुशखबरी कुछ अंदेशों को जन्म भी देती है.
वित्त मंत्री अरुण जेटली पिछले दिसम्बर में कहा था कि कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में वृद्धि को बनाए रखने के लिए देश को एक से डेढ़ प्रतिशत की अतिरिक्त आर्थिक संवृद्धि की जरूरत है. दुनिया का आर्थिक विकास जब ठहरने लगा है तब भारत की विकास दर में जुंबिश दिखाई पड़ रही है. ट्रिकल डाउन के सिद्धांत को मानने वाले कहते हैं कि आर्थिक विकास होगा तो ऊपर के लोग और ऊपर जाएंगे और उनसे नीचे वाले उनके बराबर आएंगे. नीचे से ऊपर तक सबको लाभ पहुँचेगा. पर इस सिद्धांत के साथ तमाम तरह के किन्तु परन्तु जुड़े हैं. इस वेतन वृद्धि से अर्थ-व्यवस्था पर तकरीबन एक फीसदी का बोझ बढ़ेगा और महंगाई में करीब डेढ़ फीसदी का इजाफा भी होगा. इसकी कीमत चुकाएगा असंगठित वर्ग. उसकी आय बढ़ाने के लिए भी कोई आयोग बनना चाहिए.
केन्द्रीय कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि भारतीय मध्यवर्ग के लिए खुशखबरी लेकर आई है. पैसा मिलने के पहले ही करीब एक करोड़ से ऊपर परिवारों ने खर्च की योजनाएं बना ली हैं. देश में तकरीबन 55 लाख केन्द्रीय कर्मचारी और 58 लाख पेंशन भोगी हैं. तकरीबन एक लाख करोड़ रुपया बाजार में आएगा. इस खबर के साथ जितनी खुशखबरी जुड़ी है, उतने ही अंदेशे भी हैं. रिजर्व बैंक ने अप्रैल में कहा था कि इस साल वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद महंगाई में डेढ़ फीसदी का इजाफा हो जाएगा.
एक अंदाजा है कि इस साल हम आठ फीसदी की विकास दर हासिल कर लेंगे. मॉनसून ठीक रहा तो खेती से जुड़े लोगों के पास भी पैसा आएगा. गाड़ी ठीक चली तो अगले साल की सम्भावनाएं बेहतर बनेंगी. केन्द्रीय कर्मचारियों के साथ राज्य सरकारों के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि का दबाव भी बढ़ेगा. बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों और स्थानीय निकायों में भी वेतन संशोधन की प्रक्रिया शुरू होगी. इसके समांतर निजी क्षेत्र के उद्योगों में भी वेतन-भत्ते बढ़ेंगे. यानी कुल मिलाकर बीसेक करोड़ लोगों के जीवन में खुशियाँ आएंगी. इनके बाद बीसेक करोड़ लोग और होंगे जिनके जीवन पर इसका परोक्ष प्रभाव होगा. यह ट्रिकल डाउन तकरीबन सत्तर करोड़ से भी ज्यादा लोगों तक कैसे पहुँचेगा?
वेतन व बोनस में वृद्धि तभी हो सकती है जबकि सरकार और निजी क्षेत्र के पास उसके लिए संसाधन हों. इसके लिए एक खास तरह के संतुलन की जरूरत होती है. हमारा समाज बुरी तरह असंतुलित है. जब एक तबके का भला होता है तब देखना होगा कि किसी के लिए इस खुशखबरी में संकट का संदेश तो नहीं छिपा है. खाने-पीने और रोजमर्रा के सामान की कीमतों में वृद्धि गरीब तबके के लिए खराब संदेश ला सकती है. इसके विपरीत अतिरिक्त आमदनी का अंश नीचे तक पहुँचेगा तो उसका बेहतर प्रभाव भी पड़ेगा. इस काम में सरकारों की भूमिका है.
देश में पहला वेतन आयोग स्वतंत्रता के एक साल पहले 1946 में ही बना दिया गया था. सन 1947 में पहले वेतन आयोग जिस सिद्धांत से प्रेरित था, वह था कि कर्मचारियों को न्यूनतम जीवन-यापन के लिए वेतन मिलता चाहिए. उस दौर में हम इससे आगे नहीं सोच सकते थे. 1959 में दूसरे वेतन आयोग की अवधारणा थी कि वेतन का रिश्ता बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था से भी होना चाहिए. वह दौर था जब भारत सार्वजनिक उपक्रमों को खड़ा करने पर जोर दे रहा था. देश में निजी पूँजी की भारी कमी थी. सरकार की भूमिका बड़ी थी और सरकारी कर्मचारी की भी. सन 1973 में तीसरे वेतन आयोग ने सेवाओं को आकर्षक बनाने की बात कही. उस दौर में भी निजी क्षेत्र की सरकार से प्रतियोगिता नहीं थी.
सन 1994 में गठित पाँचवां वेतन आयोग देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद का पहला आयोग था. उस दौर में पाँच साल के भीतर कर्मचारियों के वेतन पर होने वाला खर्च दुगना हो गया. उसी दौर में कई राज्य सरकारों का जब सरकार को छोटा करने की मुहिम शुरू हुई, कम्प्यूटरीकरण शुरू हुआ और निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की बातें होने लगीं. पाँचवें वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद पूरे देश में बोझ को महसूस किया गया. ऐसा मौका भी आया जब एक दर्जन से ज्यादा राज्यों ने कहा कि हमारे पास वेतन देने के लिए पैसा नहीं है. वह दौर था जब नौजवान सरकारी नौकरियों के बजाय निजी क्षेत्र को पसंद करने लगे. आईटी सॉफ्टवेयर क्रांति ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की.
विश्व बैंक ने पाँचवें वेतन आयोग की सिफारिशों को सार्वजनिक वित्त व्यवस्था के लिए धक्का बताया था. इसके बाद ही सरकारी कर्मचारियों की संख्या कम करने की मुहिम शुरू हुई, नई भर्तियों पर रोक लगी. एक तरफ अर्थ-व्यवस्था ने तेजी पकड़ी, दूसरी तरफ सरकारी सेवाओं पर शिकंजा कसने लगा. छठे वेतन आयोग की रपट तब आई जब सन 2008 की वैश्विक मंदी ने सिर उठाना शुरू किया था.
यह बात धीरे-धीरे सिर उठा रही है कि हमें हर दस साल में वेतन-संशोधन की जरूरत क्या है? खासतौर से तब जबकि हम महंगाई से जोड़कर वेतन देते हैं. सरकारी व्यवस्था में औसतन तीन फीसदी बेसिक और पाँच फीसदी महंगाई भत्ते को मिलाकर साल में तकरीबन आठ फीसदी का इजाफा होता है. यह वृद्धि निजी क्षेत्र की वेतन वृद्धि से कम बैठती है. बावजूद इसके हाल के दिनों में सरकारी सेवाओं की और लोगों का रुझान बढ़ा है. सन 2008 की वैश्विक मंदी के बाद निजी क्षेत्र के बैंकों के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की नौकरियों में जाने का क्रेज भी बढ़ा है.
वेतन संशोधन केवल पैसा बढ़ाने के लिए नहीं होता. वेतन आयोग की भूमिका प्रशासनिक-कार्य व्यवहार में सुधार के सुझाव देना भी है. सरकारी काम-काम में तकनीक के इस्तेमाल से क्षमता बढ़ाई जा सकती है. जिस काम को दस व्यक्ति करते थे, वह दो व्यक्ति कर सकते हैं. मतलब यह भी नहीं कि नौकरियों को कम किया जाए. पर कार्य-क्षमता में सुधार होना ही चाहिए. केन्द्रीय वेतनमान बढ़ने पर अब राज्य सरकारों पर दबाव बढ़ेगा. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से राज्यों के पास अब पहले से बेहतर संसाधन हैं. उनकी जिम्मेदारी भी बनती है कि वे अपनी आय बढ़ाने के तरीकों को भी खोजें. पर असली सवाल असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों से जुड़ा है, जिनके संरक्षण के बारे में विचार किया जाना चाहिए. वेतन वृद्धि का बोझ गरीबों पर नहीं पड़ना चाहिए.
प्रभात खबर में प्रकाशित
वित्त मंत्री अरुण जेटली पिछले दिसम्बर में कहा था कि कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में वृद्धि को बनाए रखने के लिए देश को एक से डेढ़ प्रतिशत की अतिरिक्त आर्थिक संवृद्धि की जरूरत है. दुनिया का आर्थिक विकास जब ठहरने लगा है तब भारत की विकास दर में जुंबिश दिखाई पड़ रही है. ट्रिकल डाउन के सिद्धांत को मानने वाले कहते हैं कि आर्थिक विकास होगा तो ऊपर के लोग और ऊपर जाएंगे और उनसे नीचे वाले उनके बराबर आएंगे. नीचे से ऊपर तक सबको लाभ पहुँचेगा. पर इस सिद्धांत के साथ तमाम तरह के किन्तु परन्तु जुड़े हैं. इस वेतन वृद्धि से अर्थ-व्यवस्था पर तकरीबन एक फीसदी का बोझ बढ़ेगा और महंगाई में करीब डेढ़ फीसदी का इजाफा भी होगा. इसकी कीमत चुकाएगा असंगठित वर्ग. उसकी आय बढ़ाने के लिए भी कोई आयोग बनना चाहिए.
केन्द्रीय कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि भारतीय मध्यवर्ग के लिए खुशखबरी लेकर आई है. पैसा मिलने के पहले ही करीब एक करोड़ से ऊपर परिवारों ने खर्च की योजनाएं बना ली हैं. देश में तकरीबन 55 लाख केन्द्रीय कर्मचारी और 58 लाख पेंशन भोगी हैं. तकरीबन एक लाख करोड़ रुपया बाजार में आएगा. इस खबर के साथ जितनी खुशखबरी जुड़ी है, उतने ही अंदेशे भी हैं. रिजर्व बैंक ने अप्रैल में कहा था कि इस साल वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद महंगाई में डेढ़ फीसदी का इजाफा हो जाएगा.
एक अंदाजा है कि इस साल हम आठ फीसदी की विकास दर हासिल कर लेंगे. मॉनसून ठीक रहा तो खेती से जुड़े लोगों के पास भी पैसा आएगा. गाड़ी ठीक चली तो अगले साल की सम्भावनाएं बेहतर बनेंगी. केन्द्रीय कर्मचारियों के साथ राज्य सरकारों के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि का दबाव भी बढ़ेगा. बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों और स्थानीय निकायों में भी वेतन संशोधन की प्रक्रिया शुरू होगी. इसके समांतर निजी क्षेत्र के उद्योगों में भी वेतन-भत्ते बढ़ेंगे. यानी कुल मिलाकर बीसेक करोड़ लोगों के जीवन में खुशियाँ आएंगी. इनके बाद बीसेक करोड़ लोग और होंगे जिनके जीवन पर इसका परोक्ष प्रभाव होगा. यह ट्रिकल डाउन तकरीबन सत्तर करोड़ से भी ज्यादा लोगों तक कैसे पहुँचेगा?
वेतन व बोनस में वृद्धि तभी हो सकती है जबकि सरकार और निजी क्षेत्र के पास उसके लिए संसाधन हों. इसके लिए एक खास तरह के संतुलन की जरूरत होती है. हमारा समाज बुरी तरह असंतुलित है. जब एक तबके का भला होता है तब देखना होगा कि किसी के लिए इस खुशखबरी में संकट का संदेश तो नहीं छिपा है. खाने-पीने और रोजमर्रा के सामान की कीमतों में वृद्धि गरीब तबके के लिए खराब संदेश ला सकती है. इसके विपरीत अतिरिक्त आमदनी का अंश नीचे तक पहुँचेगा तो उसका बेहतर प्रभाव भी पड़ेगा. इस काम में सरकारों की भूमिका है.
देश में पहला वेतन आयोग स्वतंत्रता के एक साल पहले 1946 में ही बना दिया गया था. सन 1947 में पहले वेतन आयोग जिस सिद्धांत से प्रेरित था, वह था कि कर्मचारियों को न्यूनतम जीवन-यापन के लिए वेतन मिलता चाहिए. उस दौर में हम इससे आगे नहीं सोच सकते थे. 1959 में दूसरे वेतन आयोग की अवधारणा थी कि वेतन का रिश्ता बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था से भी होना चाहिए. वह दौर था जब भारत सार्वजनिक उपक्रमों को खड़ा करने पर जोर दे रहा था. देश में निजी पूँजी की भारी कमी थी. सरकार की भूमिका बड़ी थी और सरकारी कर्मचारी की भी. सन 1973 में तीसरे वेतन आयोग ने सेवाओं को आकर्षक बनाने की बात कही. उस दौर में भी निजी क्षेत्र की सरकार से प्रतियोगिता नहीं थी.
सन 1994 में गठित पाँचवां वेतन आयोग देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद का पहला आयोग था. उस दौर में पाँच साल के भीतर कर्मचारियों के वेतन पर होने वाला खर्च दुगना हो गया. उसी दौर में कई राज्य सरकारों का जब सरकार को छोटा करने की मुहिम शुरू हुई, कम्प्यूटरीकरण शुरू हुआ और निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की बातें होने लगीं. पाँचवें वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद पूरे देश में बोझ को महसूस किया गया. ऐसा मौका भी आया जब एक दर्जन से ज्यादा राज्यों ने कहा कि हमारे पास वेतन देने के लिए पैसा नहीं है. वह दौर था जब नौजवान सरकारी नौकरियों के बजाय निजी क्षेत्र को पसंद करने लगे. आईटी सॉफ्टवेयर क्रांति ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की.
विश्व बैंक ने पाँचवें वेतन आयोग की सिफारिशों को सार्वजनिक वित्त व्यवस्था के लिए धक्का बताया था. इसके बाद ही सरकारी कर्मचारियों की संख्या कम करने की मुहिम शुरू हुई, नई भर्तियों पर रोक लगी. एक तरफ अर्थ-व्यवस्था ने तेजी पकड़ी, दूसरी तरफ सरकारी सेवाओं पर शिकंजा कसने लगा. छठे वेतन आयोग की रपट तब आई जब सन 2008 की वैश्विक मंदी ने सिर उठाना शुरू किया था.
यह बात धीरे-धीरे सिर उठा रही है कि हमें हर दस साल में वेतन-संशोधन की जरूरत क्या है? खासतौर से तब जबकि हम महंगाई से जोड़कर वेतन देते हैं. सरकारी व्यवस्था में औसतन तीन फीसदी बेसिक और पाँच फीसदी महंगाई भत्ते को मिलाकर साल में तकरीबन आठ फीसदी का इजाफा होता है. यह वृद्धि निजी क्षेत्र की वेतन वृद्धि से कम बैठती है. बावजूद इसके हाल के दिनों में सरकारी सेवाओं की और लोगों का रुझान बढ़ा है. सन 2008 की वैश्विक मंदी के बाद निजी क्षेत्र के बैंकों के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की नौकरियों में जाने का क्रेज भी बढ़ा है.
वेतन संशोधन केवल पैसा बढ़ाने के लिए नहीं होता. वेतन आयोग की भूमिका प्रशासनिक-कार्य व्यवहार में सुधार के सुझाव देना भी है. सरकारी काम-काम में तकनीक के इस्तेमाल से क्षमता बढ़ाई जा सकती है. जिस काम को दस व्यक्ति करते थे, वह दो व्यक्ति कर सकते हैं. मतलब यह भी नहीं कि नौकरियों को कम किया जाए. पर कार्य-क्षमता में सुधार होना ही चाहिए. केन्द्रीय वेतनमान बढ़ने पर अब राज्य सरकारों पर दबाव बढ़ेगा. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से राज्यों के पास अब पहले से बेहतर संसाधन हैं. उनकी जिम्मेदारी भी बनती है कि वे अपनी आय बढ़ाने के तरीकों को भी खोजें. पर असली सवाल असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों से जुड़ा है, जिनके संरक्षण के बारे में विचार किया जाना चाहिए. वेतन वृद्धि का बोझ गरीबों पर नहीं पड़ना चाहिए.
प्रभात खबर में प्रकाशित
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