पंजाब ड्रग्स के कारोबार की गिरफ्त में है. और इस कारोबार में राजनेता भी
शामिल हैं. यह बात मीडिया में चर्चित थी, पर ‘उड़ता पंजाब’ ने इसे राष्ट्रीय बहस का विषय बना दिया. गोकि बहस अब
भी फिल्म तक सीमित है. केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को बोलचाल में सेंसर बोर्ड
कहते हैं. पर प्रमाण पत्र देने और सेंसर करने में फर्क है. फिल्म सेंसर को लेकर
लम्बे अरसे से बहस है. इसमें सरकार की भूमिका क्या है? बोर्ड सरकार का हिस्सा है या स्वायत्त संस्था? जुलाई 2002 में विजय
आनन्द ने बोर्ड का अध्यक्ष पद छोड़ते हुए कहा था कि सेंसर बोर्ड की कोई जरूरत नहीं.
तकरीबन यही बात श्याम बेनेगल ने दूसरे
तरीके से अब कही है.
मोदी सरकार बनने
के बाद फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट तथा फिल्म प्रमाणन बोर्ड को लेकर लगातार विवाद
खड़े हुए हैं. इन विवादों के पीछे राजनीति का हाथ भी है. पर इस बहस में कलात्मक
अभिव्यक्ति की रक्षा का सवाल पीछे रह जाता है. ‘उड़ता पंजाब’ के साथ यही हो रहा है. यह फिल्म एक ज्वलंत समस्या पर
केन्द्रित है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं. तय यह होना है कि सेंसर बोर्ड के
अधिकारों का दायरा कहाँ तक जाता है. मुम्बई हाईकोर्ट सम्भवतः उस सीमा पर भी आज
फैसला करेगा.
सूचना एवं
प्रसारण मंत्रालय ने फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया में सुधार को लेकर श्याम बेनेगल की
अध्यक्षता में एक समिति बनाई है, जिसने 26 अप्रैल को अपनी रिपोर्ट का पहला हिस्सा
सरकार को सौंपा था. रिपोर्ट का दूसरा हिस्सा वे जल्द सौंपने वाले हैं. इस रिपोर्ट
पर खुले विचार से बहस का इससे बेहतर मौका कोई और नहीं हो सकता था. बेनेगल रिपोर्ट
के पहले हिस्से में इस बात पर जोर दिया गया था कि केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड
केवल प्रमाणन निकाय होना चाहिए. इसे कुछ अपवादों को छोड़कर आयु एवं परिपक्वता के
आधार पर दर्शक वर्ग के लिए फिल्मों की उपयुक्तता की श्रेणी तय करनी चाहिए.
सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि हम अगले कुछ दिनों में सेंसर बोर्ड के सिस्टम
में बड़ा बदलाव करने जा रहे हैं. ‘उड़ता पंजाब’ से जुड़े सवाल एक तरफ
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से और दूसरी तरफ उस राजनीति से जुड़े हैं जो सामाजिक
अंतर्विरोधों का लाभ उठाना चाहती है. सिद्धांततः कलात्मक अभिव्यक्ति पर कोई पाबंदी
नहीं होनी चाहिए, पर क्या हमारे जैसे देश में यह स्वतंत्रता चल सकती है? तब क्या वजह है कि
प्रमाणपत्र मिलने के बाद भी फिल्मों का प्रदर्शन रोका जाता है? भावनाओं पर सबसे ज्यादा चोट शायद
हमारे देश में ही लगती है. सबसे ज्यादा किताबों और कलाकृतियों पर पाबंदी हमारे
यहाँ लगाई जाती है. संविधान के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ विवेक सम्मत
पाबंदियाँ भी हैं. उन बंदिशों की स्पष्ट व्याख्या भी है. फिर भी आजादी और बंदिशों के
नियमन का सवाल अक्सर उठता है.
हाल में वायुसेना
के पठानकोट बेस पर हुए हमले के पीछे एक अंदेशा यह भी था कि कहीं न कहीं नशे के
कारोबार का इससे रिश्ता है. अफगानिस्तान से होकर पाकिस्तान के रास्ते ड्रग्स का
कारोबार चलता है. 'उड़ता पंजाब' की पृष्ठभूमि में यही नशा है जिसने नौजवानों को
अपने शिकंजे में जकड़ रखा है. फिल्म को बोर्ड ने 'ए' सर्टिफिकेट दिया गया
है. साथ ही उसके 94 सीन में काट-छाँट की सलाह दी गई है. बोर्ड की नजर में यह फिल्म
पंजाब की छवि को बिगाड़ती है. बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने फिल्म बनाने
वालों की नीयत में भी खोट निकाला है. उधर आम आदमी पार्टी ने फिल्म प्रमाणन के पीछे
की राजनीति को उजागर करना शुरू कर दिया है और सारी बहस में राजनीति का प्रवेश हो
गया है. अगले साल पंजाब विधानसभा के चुनाव हैं.
क्या इस फिल्म का
संदेश राजनीतिक है? और है भी तो क्या यह अनैतिक है? इसमें फिल्म प्रमाणन बोर्ड को
हस्तक्षेप करने की जरूरत क्या है? श्याम बेनेगल ने
राज्य की 'असल समस्या' को उभारने के लिए फिल्म की तारीफ की है. बेनेगल को यह फिल्म खासतौर से दिखाई गई. बेनेगल
ने कहा, 'अच्छी फिल्म बनाई गई है. इसमें
उन दुर्भाग्यपूर्ण तथ्यों का जिक्र है कि कैसे ड्रग्स मध्य एशिया से अफगानिस्तान, वाया पंजाब रूट से भारत में आती है. पंजाब इस
घुसपैठ का आसान शिकार है. यह समस्या क्या सरकार की देन है? या इसके कारण कहीं और हैं?
यह सामाजिक बहस का विषय है. उस बहस को शुरू करने के लिए ऐसी फिल्में क्यों नहीं
बनाई जानी चाहिए? फिल्म प्रमाणन बोर्ड इसमें से
पंजाब के संदर्भों को निकाल कर क्या समस्या को दबाने का काम नहीं कर रहा है? बोर्ड ऐसी बातें उठा
रहा है, जिनका रिश्ता कलात्मक अभिव्यक्ति से भी नहीं है. शुक्रवार को हाइकोर्ट में फिल्म की सुनवाई के
दौरान सेंसर बोर्ड के वकील ने कहा कि फिल्म में काफी अश्लील दृश्य, गानों में गंदे बोल और गालियां हैं. इस पर
अदालत ने कहा कि भाषा किरदारों से तय होती है. किसी ट्रक ड्राइवर के किरदार की
भाषा बहुत शालीन नहीं हो सकती.
फिल्मों और
अभिव्यक्ति को लेकर लगातार सवाल उठते रहते हैं. बाधा केवल फिल्म बोर्ड ही नहीं हैं.
कुछ साल पहले कमलहासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ को दूसरे किस्म के विरोध का सामना करना
पड़ा. ‘विश्वरूपम’ हॉलीवुड जैसी एक्शनपैक्ड फिल्म थी. यह किसी प्रकार की
राजनीतिक-सांस्कृतिक अवधारणा को स्थापित नहीं करती थी. फिर भी उसका विरोध हुआ.
इसके प्रदर्शन को रोकने में राज्य सरकार और न्यायपालिका भी शामिल हुई. फिल्म का
लम्बे समय तक दक्षिण भारत के तीन राज्यों में प्रदर्शन रुका रहा.
फिल्मों को
प्रमाणपत्र मिल जाना भी प्रदर्शन की गारंटी नहीं है. पास हो जाने के बाद भी उन्हें
रोकने वाली ताकतें हमारे देश में मौज़ूद हैं. सरकारों के पास कानून-व्यवस्था बनाए
रखने का बहाना होता है. उनकी दिलचस्पी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में नहीं होती.
उन्हें उसका महत्व समझ में भी नहीं आता, क्योंकि उनकी उससे जुड़ी राजनीति में
दिलचस्पी होती है. सन 2011 में प्रकाश झा की फिल्म ‘आरक्षण’ के साथ ऐसा ही हुआ था.
उसके पहले फिल्म ‘राजनीति’ को लेकर इसी प्रकार की आपत्तियाँ थीं. दो दशक पहले
फिल्म मणिरत्नम की फिल्म ‘बॉम्बे’ के प्रदर्शन के समय भी ऐसा ही विरोध था. अंततः
यह सामाजिक सहनशीलता का सवाल है.
वास्तव में सेंसर बोर्ड की जरूरत है और हमेशा रहेगी। आजादी किसी भी क्षेत्र में हो, असीमित नहीं हो सकती। कोई भी आजादी अपनी जिम्मेदारी के बगैर पूरी नहीं होती। लेकिन सेंसरशिप के नाम पर तानाशाही भी नहीं होनी चाहिये। बदलते यग के साथ लोगों की सोच बदलती है, नैतिकताएं बदलती हैं, मान्यताएं बदलती हैं और संस्कृति और सभ्यता भी बदलती है। इस बदलाव के साथ सेंसरशिप में भी बदलाव जरूरी हैं।
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