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Friday, June 3, 2016

कई पहेलियों का हल निकालना होगा राहुल को

कांग्रेस पार्टी की जिम्मेदारी अब राहुल गांधी के कंधों पर पूरी तरह आने वाली है. एक तरह से यह मौका है जब राहुल अपनी काबिलीयत साबित कर सकते हैं. पार्टी लगातार गिरावट ढलान पर है. वे इस गिरावट को रोकने में कामयाब हुए तो उनकी कामयाबी होगी. वे कामयाब हों या न हों, यह बदलाव होना ही था. फिलहाल इससे दो-तीन बातें होंगी. सबसे बड़ी बात कि अनिश्चय खत्म होगा. जनवरी 2013 के जयपुर चिंतन शिविर में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया था, तब यह बात साफ थी कि वे वास्तविक अध्यक्ष हैं. पर व्यावहारिक रूप से पार्टी के दो नेता हो गए. उसके कारण पैदा होने वाला भ्रम अब खत्म हो जाएगा.


सोनिया गांधी के अध्यक्ष बने रहने से पार्टी में संतुलन भी था. अब राहुल पूरी तरह पार्टी के अपने तरीके से चला सकेंगे. यह बदलाव नजर भी आना चाहिए तभी वे वोटर और अपने कार्यकर्ता का ध्यान खींच पाएंगे. अभी तमाम बातें साफ होंगी. कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों की औसत आयु इस समय 67 साल है. इसमें मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, एके एंटनी, मोतीलाल बोरा, अहमद पटेल और जनार्दन द्विवेदी जैसे वरिष्ठ नेता शामिल हैं. राहुल इनमें सबसे युवा हैं, जो इस महीने 46 साल के पूरे होंगे. इस टीम में युवा सदस्यों की संख्या बढ़ेगी. शायद राज्यों से निकल कर कुछ नए नेता दिल्ली की राजनीति में आएं.

पिछले साल 56 दिन के अवकाश से लौटने के बाद राहुल ने अपने सहयोगियों में फेर-बदल किया था. उनके करीबी हैं अजय माकन, रणदीप सुरजेवाला, अलवर वाले जीतेन्द्र सिंह, आरपीएन सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, विजेन्द्र सिंगला, रवनीत सिंह बिट्टू, सुष्मिता देव, गौरव गोगोई, प्रशांत किशोर, कौशल विद्यार्थी, कनिष्क सिंह, मोहन गोपाल वगैरह. उम्रदराज नेताओं में एके एंटनी, कमल नाथ, मधुसूदन मिस्त्री, के राजू, सैम पित्रोदा वगैरह से वे सलाह लेते रहे हैं. इस सलाह की भविष्य में भी उन्हें जरूरत होगी.

कांग्रेस का नकारात्मक पहलू यह नहीं है कि वह खानदानी पार्टी है. वामदलों और बीजेपी को छोड़ दें तो ज्यादातर दल परिवार केन्द्रित हैं. यह फैसला पार्टी को करना होता है कि नेता कौन होगा. पिछले 47 साल में पीवी नरसिम्हाराव राव के पाँच-छह साल को छोड़ दें तो पार्टी परिवार भरोसे ही रही है. कार्यकर्ता भी मानते हैं कि परिवार ही पार्टी को जोड़कर रखेगा. ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि क्या राहुल पार्टी की डूबती नैया को किनारे ला सकेंगे? यह बात वोटर से पहले कार्यकर्ता को समझ में आनी चाहिए.

राहुल की सफलता या विफलता भविष्य की बात है, फिलहाल उन्हें अध्यक्ष बनाने के अलावा पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं बचा था. सोनिया गांधी अनिश्चित काल तक कमान नहीं सम्हाल पाएंगी. राहुल के पास पूरी कमान होनी ही चाहिए. कांग्रेस अब बाउंसबैक करेगी तो श्रेय राहुल को मिलेगा और डूबेगी तब जिम्मेदारी भी उनकी होगी. इस हिसाब से उनकी राह आसान नहीं है.

सन 2014 में लोकसभा चुनाव में जबर्दस्त हार के बाद जब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई तब उम्मीद थी कि बड़े फैसले हो जाएंगे. ऐसा हुआ नहीं. पार्टी ने चुनाव में हार के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं माना. बैठक में कहा गया कि पार्टी ‘बाउंसबैक’ करेगी. पर यह नहीं बताया कि कैसे करेगी. पिछले दो साल में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे याद रखा जाए. सिवा इसके कि पार्टी ने अकेले चलने के बजाय मोदी और बीजेपी विरोधी ताकतों के साथ खड़े होने का फैसला किया है.

अतीत में कांग्रेस का वास्तविक बाउंसबैक केवल इंदिरा गांधी के जमाने में हुआ है. पर राहुल इंदिरा गांधी की तरह करिश्माई नेता नहीं हैं और न उनके पास गरीबी हटाओ जैसा कोई जादुई नारा है. आज में और साल 1977, 1989 और 1996 में एक और अंतर है. तब कांग्रेस की ताकत लोकसभा में कम होने के बावजूद राज्यों की विधानसभाओं में आज से बेहतर थी. तीसरे उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी जनता पार्टी, जनता दल या भारतीय जनता पार्टी इतनी ताकतवर पहले कभी नहीं थी, जितनी आज है. और नरेन्द्र मोदी के मुकाबिल कोई नेता भी पार्टी के पास नहीं है.  

कांग्रेस इस वक्त पस्त और हताश है. उसे उत्साहित करने वाले मौके की जरूरत है. उसके आंतरिक लोकतंत्र की दशा अच्छी नहीं है. भाजपा को कोसना अपनी जगह है, पर अरुणाचल में बगावत की जिम्मेदारी पार्टी के नेतृत्व पर जाती है. उत्तराखंड में 10 विधायकों ने पार्टी से बगावत की है, जिसमें एक पूर्व मुख्यमंत्री हैं. हिमाचल और मेघालय से भी बगावत की खबरें हैं. कर्नाटक में भी पार्टी अनुशासनहीनता की शिकार है. बताया जाता है कि असम में हिमंत बिश्व सरमा ने पार्टी इसलिए छोड़ी क्योंकि राहुल गांधी ने उनकी बात को नहीं सुना. भाजपा इन बातों का फायदा न उठाती तो करती क्या?

दो साल पहले कांग्रेस संसदीय दल ने सोनिया गांधी को जब अपना अध्यक्ष चुना तब सबको लगा कि स्वाभाविक रूप से लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व राहुल गांधी करेंगे. वे संसद के मंच का बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे. वहाँ से उनकी बात दूर तक सुनी जा सकती थी. ऐसा हुआ नहीं. लोकसभा की कमान मल्लिकार्जुन खड़गे को सौंपी गई. पार्टी ने राज्यसभा में कुछ सरकारी विधेयकों को रोकने के अलावा ऐसा कोई काम नहीं किया जिसे याद रखा जाए.

सच यह है कि पार्टी ने 2014 की हार को गम्भीरता से नहीं लिया. उसे लेकर उस स्तर का अंतर्मंथन नहीं किया गया, जिसकी दरकार थी. फिलहाल पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती है लगातार होती पराजय को रोकना, संगठन को मजबूत करना और पार्टी को नया वैचारिक आधार प्रदान करना. सन 1991 में उदारीकरण की शुरूआत करने वाली पार्टी ने सन 2004 में वाममोर्चे की मदद से यूपीए-1 बनाया और नीतियों को बाएं बाजू मोड़ा. अब कभी वह वामपंथी है और कभी दक्षिणपंथी. उसे देश को समझ में आने वाला वैचारिक सूत्र खोजना होगा.

वह वैचारिक रूप से देश के गरीबों और मध्यवर्ग के बीच के अंतर्विरोधों को सुलझाने में नाकामयाब रही. राहुल गांधी ने 2014 में पार्टी के महासचिवों से कहा था कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी के रूप में देखी जा रही है. पिछले दो दशक में बीजेपी ने कांग्रेस के दुर्ग में सेंध लगाकर उसके ही वोटरों को छीन लिया है. उसके  सामाजिक आधार को दूसरी पार्टियाँ ले उड़ीं. ऐसा क्यों हुआ? राहुल को इस पहेली का हल भी निकालना होगा.

प्रभात खबर में प्रकाशित

1 comment:

  1. आज भी कमान कमोबेश राहुल के पास ही है , सोनिया तो कभी कभी ही संतुलन बनाने के लिए ही दखल करती हैं , ऐसे में राहुल ने कौन सा तीर मार लिया है ?लगभग सभी चुनावों में राहुल को पूर्ण रूप से खुला हाथ दिया गया है , लेकिन कांग्रेस को पराजय के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा है , इस बात को स्वीकार करने में हिचक होती हो कि राहुल में राजनीतिक प्रतिभा की कमी है , लेकिन यह सत्य है इसे स्वीकार कर लेना चाहिए , लोकसभा में खड़गे को नेता बनाना राहुल को सुरक्षित करने का एक दूरगामी कदम था जो सोनिया के थिंक टैंक द्वारा दिया गया था ,वर्ना अब तक कोंग्रेसकी हालत और भी दुर्बल हो जाती , वैसे भी नेता की बात छोड़ दे , राहुल को लोक सभा में बोलने से किस ने रोका है , पर अब तक वह जब भी बोले हैं , कितनी बार अपना प्रभाव छोड़ पाये हैं , यह भी देखने योग्य है , उनका राजनीतिक पर्यटन , व जनता की स्वीकार्यता उनके लिए अड़चन रही है तो उनकी भाषा शैली भी प्रभावित करने में असमर्थ रही है , पहले इन को सुधारने की जरुरत है , और यह एक जन्मजात गुण होता है ,

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