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Monday, May 30, 2016

कश्मीर की इस तपिश के पीछे कोई योजना है

कश्मीर में कई साल बाद हिंसक गतिविधियाँ अचानक बढ़ीं हैं. सोपोर, हंडवारा, बारामूला, बांदीपुरा और पट्टन से असंतोष की खबरें मिल रहीं है. खबरें यह भी हैं कि नौजवान और किशोर अलगाववादी युनाइटेड जेहाद काउंसिल के नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं. सुरक्षा दलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए अलगाववादियों की लाशों के जुलूस निकालने का चलन बढ़ा है. इस बेचैनी को सोशल मीडिया में की जा रही टिप्पणियाँ और ज्यादा बढ़ाया है. नौजवानों को सड़कों पर उतारने के बाद सीमा पार से आए तत्व भीड़ के बीच घुसकर हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं.


इसके पीछे साजिश भी नजर आती है. यह योजना पाकिस्तानी सेना और आईएसआई मुख्यालय से तैयार हुई है. खासतौर से सुरक्षा बलों को निशाना बनाने के प्रयास तेज हो रहे हैं. सन 1947 से पाकिस्तानी सेना छिपकर वार करती रही है. इसबार भी यह छिपा हुआ वार है. हंडवारा की घटनाएं इसका उदाहरण है. सेना के बंकरों में आग लगाने और सेना को कार्रवाई करने के लिए उकसाने के पीछे माहौल को बिगाड़ने का इरादा है. कोशिश यह भी है कि सेना का ध्यान राज्य के अंदरूनी इलाकों पर जाए और सीमा पर से हटे, जिससे घुसपैठियों को प्रवेश करने में आसानी हो.

उधर अलगाववादियों को लग रहा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत के धागे फिर से जुड़ने जा रहे हैं. ऐसे में वे अलग-थलग पड़ जाएंगे. वे अपनी महत्ता को बनाए रखने के लिए पुरजोर कोशिश करेंगे. भीड़ को उकसाकर वे अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं. सन 2010 की गर्मियों में सैयद अली शाह गिलानी में किशोरों को भड़काकर इस प्रकार का आंदोलन चलाया था, जिसकी वजह से स्कूल कॉलेज लम्बे अरसे तक बंद रहे. हासिल उससे कुछ हुआ नहीं.

सन 2010 के असंतोष के बाद केंद्र सरकार ने एक संसदीय टीम को कश्मीर भेजा और एक विशेष कार्यदल कश्मीर गया. हालांकि उससे निष्कर्ष कुछ नहीं निकला. पर माहौल को सुधारने की सम्भावनाओं ने जन्म लिया था. कुछ महीने पहले भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत का माहौल बना था, पर पठानकोट हमले के बाद से वह सब ठप पड़ गया है. राज्य में पीडीपी-बीजेपी सरकार भी पहल करके बड़ा कदम आगे बढ़ सकती है. उसके लिए अलगाववादी तैयार नहीं होंगे. इसलिए कुल मिलाकर स्थितियाँ निराशाजनक लगती हैं.

इस दौरान भारतीय सेना पर देश के प्रगतिशील तबके ने भी हमले बोले हैं. इससे अलगाववादियों के हौसले बढ़े हैं. दिल्ली में जेएनयू के घटनाक्रम ने कश्मीर में सेना की उपस्थिति को और कमजोर किया है. एक समय तक सेना का जो डर था वह कम होता जा रहा है. सेना की  जिस चौकी के बंकर को जलाया गया वहाँ से पाँच सड़कों पर एक साथ नजर रखी जा सकती थी. आसानी से समझ में आता है कि सेना को टार्गेट बनाने वालों की मंशा क्या है. इसका राजनीतिक फलितार्थ भी है. महबूबा मुफ्ती के मुख्यमंत्री बनने के बाद ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं. यानी अलगाववादियों को लोकतांत्रिक गतिविधियाँ रास नहीं आतीं.  

दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना का एक धड़ा कतई नहीं चाहता कि दोनों देशों के बीच संवाद कायम हो. पठानकोट की घटना ठीक ऐसे मौके पर हुई जब सचिव स्तर की बातचीत का माहौल बन रहा था. और जैसे ही पठानकोट की जाँच करने पाकिस्तान की टीम भारत आई कुलभूषण जाधव का मामला खड़ा कर दिया गया.

इधर जम्मू कश्मीर सरकार ने पूर्व सैनिकों के लिए सैनिक कॉलोनी बनाने की घोषणा की है. इसके साथ ही कश्मीरी पंडितों को वापस बुलाकर उन्हें बसाने की योजना बनाई जा रही है. इन दोनों कार्यक्रमों का विरोध शुरू हो गया है. हुर्रियत कांफ्रेंस का अपेक्षाकृत उदारवादी धड़ा भी इसके विरोध में है. विरोध की वजह वही है जिसके कारण घाटी से पंडितों को खदेड़ा गया था. अलगाववादी नहीं चाहते कि घाटी में उनके सामने खड़े होकर बात करने वाला कोई तबका रह सके.

कश्मीर की हिंसा को केवल कश्मीर तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए. इसके पीछे पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान की रणनीति को समझना चाहिए. पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने अब जैशे मोहम्मद और लश्करे तैयबा को भारतीय सेना पर सीधे हमलों के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. इसमें उन्हें चीन सरकार का संरक्षण प्राप्त है, वरना संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जैश के खिलाफ कार्रवाई रुक न पाती.

पठानकोट पर हमले के फौरन बाद पाकिस्तान की नागरिक सरकार ने जैश के खिलाफ कार्रवाई का संकेत दिया था, पर कुछ हुआ नहीं. पाकिस्तानी सेना की रणनीति है कि जिस तरह तहरीके तालिबान पाकिस्तानी सेना के खिलाफ हमले बोल रहा है उसी तरह कश्मीरी जेहादी भारतीय सेना को टार्गेट बनाएं. पाकिस्तानी सेना ने इसके साथ-साथ भारत पर बलूचिस्तान में गड़बड़ी करने का आरोप लगाना शुरू कर दिया है. पाकिस्तानी सेना की जन सम्पर्क शाखा आईएसपीआर के ट्वीट इस बात की गवाही देते हैं.

पाकिस्तान के पंजाब सूबे के मंत्री राणा सनाउल्ला ने हाल में स्वीकार किया कि जैश-ए-मुहम्मद और जमात-उद-दावा जैसे संगठनों को सरकार का समर्थन हासिल है। आज उन पर भले पाबंदी लगा दी गई हो, लेकिन उनकी हरकतों के लिए उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. हालांकि इन समूहों पर सरकारी तौर पर प्रतिबंध है, पर यह प्रतिबंध दुनिया को दिखाने के लिए है.

घाटी में इसबार पर्यटकों की संख्या बढ़ी है. माहौल ठीक रहा तो यह संख्या और बढ़ेगी. सरकार कोशिश कर रही है कि देशी-विदेशी सैलानी आएं. फिल्म निर्माता यहाँ शूटिंग करने आएं. सन 2015 में यहाँ सवा नौ लाख पर्यटक आए थे जिनमें 28 हजार से ज्यादा विदेशी थे. यह उत्साहजनक खबर थी. पर अचानक श्रीनगर से खबर आई कि तीन पुलिस वालों की गोली मारकर हत्या कर दी गई. दो हत्याएं घात लगाकर की गईं और तब की गईं जब पुलिस वाले चाय पी रहे थे.

किसी कार्रवाई से नाराज होकर ये हत्याएं नहीं की गईं. इन दो हत्याओं की खबरें फैल ही रही थी कि श्रीनगर के एक और इलाके से तीसरे पुलिस वाले की हत्या की खबर आई, जिसकी रायफल भी हत्यारे छीन ले गए. इन हत्याओं के बाद स्वाभाविक है कि सैलानियों के मन में दहशत फैलेगी. कश्मीर के युवाओं को भड़काना अब काफी आसान है, पर यह आंदोलन किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचेगा. सन 1947 से आजतक पाकिस्तान की कश्मीर नीति हिंसा, हत्या और विश्वासघात की रही है. इस समस्या का समाधान संवाद से ही होगा. यह संवाद पाकिस्तान से ही होना चाहिए, पर पाकिस्तानी प्रतिष्ठान को समझना होगा कि बंदूक की नोक पर बात नहीं होती.  
  
प्रभात खबर में प्रकाशित

1 comment:

  1. पाकिस्तान का तो हाथ है ही , हमारे देश में भी बहुत से आतंकवादी गत वर्षों में चिप कर बैठे हुए हैं औरन उन्हें स्थानीय लोगों द्वारा संरक्षण प्राप्त है , पिछले सैलून में सीमा पर सख्त कार्यवाही नं होने के कारण ऐसा सम्भव हुआ है , अब यह सरदर्द बनता जा रहा है , वर्तमान में मुफ़्ती सरकार भी अब्दुल्ला सरकार की तरह ढुलमुल नीति अपनाए हुए है , रही सही कसर इस समय विपक्ष , मानवाधिकार आयोग पूरी कर देते हैं

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