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Sunday, March 27, 2016

अंतर्विरोधों से घिरी है जनता-कांग्रेस एकता

बारह घोड़ों वाली गाड़ी

चुनावी राजनीति ने भारतीय समाज में निरंतर चलने वाला सागर-मंथन पैदा कर दिया है। पाँच साल में एक बार होने वाले आम चुनाव की अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। हर साल किसी न किसी राज्य की विधानसभा का चुनाव होता है। दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का हस्तक्षेप बढ़ा है। गठबंधन बनते हैं, टूटते हैं और फिर बनते हैं। यह सब वैचारिक आधार पर न होकर व्यक्तिगत हितों और फौरी लक्ष्यों से निर्धारित होता है। किसी के पास दीर्घकालीन राजनीति का नक्शा नजर नहीं आता।
अगले महीने हो रहे विधानसभा चुनाव के पहले चारों राज्यों में चुनाव पूर्व गठबंधनों की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है। बंगाल में वामदलों के साथ कांग्रेस खड़ी है, पर तमिलनाडु और केरल में दोनों एक-दूसरे के सामने हैं। यह नूरा-कुश्ती कितनी देर चलेगी? नूरा-कुश्ती हो या नीतीश का ब्रह्मास्त्र राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का एक विरोधी कोर ग्रुप जरूर तैयार हो गया है। इसमें कांग्रेस, वामदलों और जनता परिवार के कुछ टूटे धड़ों की भूमिका है। पर इस कोर ग्रुप के पास उत्तर प्रदेश का तिलिस्म तोड़क-मंत्र नहीं है।
ताजा खबर यह है कि जनता परिवार को एकजुट करने की तमाम नाकाम कोशिशों के बाद जदयू, राष्ट्रीय लोकदल, झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) और समाजवादी जनता पार्टी (रा) बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में विलय की संभावनाएं फिर से टटोल रहे हैं। नीतीश कुमार, जदयू अध्यक्ष शरद यादव, रालोद प्रमुख अजित सिंह, उनके पुत्र जयंत चौधरी और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की 15 मार्च को नई दिल्ली में इस सिलसिले में हुई बैठक में बिहार के महागठबंधन का प्रयोग दोहराने पर विचार किया गया।

उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव की यह पृष्ठपीठिका है, पर निगाहें 2019 के लोकसभा चुनाव पर हैं। दिक्कत यह है कि दिल्ली की कुर्सी उत्तर प्रदेश की इजाजत के बगैर नहीं मिलेगी। यह प्रदेश महत्वपूर्ण परीक्षण स्थल बनने वाला है। इधर राहुल गांधी की कांग्रेस ने प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए प्रशांत किशोर को रणनीतिकार के रूप में नियुक्त किया है, जो नीतीश कुमार के सलाहकार भी हैं। उनकी सलाह पर कांग्रेस छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन बनाने की ओर बढ़ रही है। नीतीश कुमार की पहल पर प्रस्तावित नई पार्टी में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की जेडीएस और ओमप्रकाश चौटाला की इनेलो के भी विलय की कोशिश है।
विलय की इस नई कवायद में मुलायम सिंह तो नहीं हैं, लालू यादव भी सामने नजर नहीं आते। उधर प्रशांत किशोर की सलाह पर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस छोटी पार्टियों की तरफ हाथ बढ़ा रही है। छोटी पार्टियाँ माने छोटे सामाजिक आधार वाली पार्टियाँ। कांग्रेस ने महान दल और पीस पार्टी से सम्पर्क किया है। प्रशांत किशोर चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन जैसा कुछ होना चाहिए। पर किसके सहारे? रालोद क्या सीटें दिलाएगा? उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा और भाजपा के बाद बचे-खुचे समूहों को जोड़ने में कांग्रेस कामयाब हो जाए तो वह सफलता होगी, पर फिलहाल यह बड़ी ताकत बनती नजर नहीं आती।
उत्तर प्रदेश में जनता दल का जो परम्परागत आधार था वह अब सपा के पास है। राष्ट्रीय लोकदल भी जनता परिवार से निकला है, पर आज वह कमजोर है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट वोट पर भी उसका असर घट गया है। अपने पैर पसारने की कोशिश में नीतीश कुमार ने असम में बद्रुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन किया है। वे कांग्रेस को भी उस गठबंधन में शामिल करना चाहते थे, पर कांग्रेस की असम इकाई इसके लिए तैयार नहीं है। चुनाव के बाद इस गठबंधन की भूमिका किंग मेकरके रूप में हो सकती है। वह गठबंधन मुस्लिम वोटों पर आधारित है। इससे नीतीश की मुस्लिम-हितैषी छवि बनेगी। पर क्या इससे उत्तर प्रदेश में फायदा होगा?  
समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में ओबीसी के बाद सबसे बड़ा सहारा मुसलमान वोट हैं। कहना मुश्किल है कि उत्तर प्रदेश का मुसलमान वोटर असम का अनुसरण करे। कांग्रेस बेशक अपनी धर्म-निरपेक्ष छवि को बनाए रखने के लिए मुसलमान वोटर के साथ रिश्ते बनाएगी, पर यूपी में सवर्ण वोटर भी महत्वपूर्ण है। नीतीश की पहल पर बन रहा गठबंधन फिलहाल उत्तर प्रदेश में एक चौथी ताकत को जरूर खड़ा करेगा, पर इससे भाजपा-विरोधी राजनीति विभाजित भी होगी।
एक सैद्धांतिक सवाल भी है। क्या कांग्रेस और जनता परिवार के धड़े एक साथ आ सकते हैं? मूल रूप में गैर-कांग्रेसवाद के आधार पर बना जनता परिवार अब गैर-भाजपावाद पर केन्द्रित है। यह पैराडाइम शिफ्ट है, यानी व्यवस्था पर अब कांग्रेस की जगह भाजपा काबिज़ है। कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों के पास जाना पड़ रहा है इससे उसकी दीनता का पता लगता है। वह भाजपा के विजय रथ को रोकने में सफल भी हुई तो बदले में उसकी वापसी होगी, ऐसा मानने के कारण भी अभी नजर नहीं आते।
जनता एकता की सम्भावना बिहार और उत्तर प्रदेश के अलावा कर्नाटक में भी है। पर वहाँ कांग्रेस और जेडीएस का सीधा टकराव है। इस मिली-जुली परियोजना में दूसरे अंदरूनी पेच भी हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव आने तक बिहार का गठबंधन कायम जरूर रहेगा, पर क्या नीतीश कुमार और लालू यादव के रिश्ते वैसे ही हैं, जैसे पिछले साल सरकार बनने के पहले थे? अस्तित्व-रक्षा की राजनीति के कारण वे एक-दूसरे के करीब आ गए हैं, पर यह चिर-स्थायी नहीं है।
इस गठबंधन को लेकर सबसे ज्यादा दिलचस्पी नीतीश कुमार, राहुल गांधी और सीताराम येचुरी की है। तीनों के सामने अस्तित्व का संकट है। सन 2019 में भाजपा नहीं हारी तो तीनों के जीरो होने का खतरा है। मोदी के विकल्प में पिछले साल लालू, मुलायम, नीतीश की त्रिमूर्ति उभरी थी, वह तिरोहित हो चुकी है। अब राहुल, नीतीश और येचुरी की त्रिमूर्ति है। पर बिहार में खुली धर्म-निरपेक्ष छतरी सार्वदेशिक नहीं है, बल्कि इसका विस्तार उत्तर प्रदेश तक भी नहीं है। दूसरी बात अभी पार्टियों के विलय की बात है, जिसे लेकर अभी संशय है। बिहार में ही विलय नहीं हुआ। विलय और गठबंधन में फर्क होता है।
मोदी के आभा मंडल को खत्म करने के लिए छतरी की परिकल्पना बिहार में अगस्त 2014 में हुए उप-चुनाव में सफल हुई थी, जब मोदी लहर के उस दौर में बीजेपी-विरोधी गठबंधन 10 में से 6 सीटें निकाल ले गया। इसके बाद सितम्बर 2014 में उत्तर प्रदेश में 11 सीटों पर उपचुनाव हुए, जिनमें भाजपा को केवल तीन सीटें मिलीं। समाजवादी पार्टी के खाते में आठ सीटें गईं। इसके पहले ये सभी 11 सीटें भाजपा की थीं। पर उत्तर प्रदेश और बिहार में फर्क है। बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भाजपा-विरोधी मोर्चा नहीं था। फिर बसपा ने चुनाव में अपने प्रत्याशी नहीं उतारे थे। सपा की जीत का सबसे बड़ा कारण बसपा की अनुपस्थिति थी।
राष्ट्रीय स्तर पर जनता परिवारों की एकता तभी सम्भव है जब समाजवादी पार्टी और बीजू जनता दल भी उसमें शामिल हों। साथ ही मजबूत केन्द्रीय नेतृत्व की धुरी हो। तृणमूल कांग्रेस का समर्थन भी उसके साथ हो। फिलहाल तो यह सम्भव नहीं, क्योंकि इस गड्ड-मड्ड में शामिल कई नेताओं और ताकतों का एक-दूसरे से छत्तीस का आँकड़ा है। कांग्रेस पार्टी की विफलता का बड़ा कारण है नेतृत्व का अत्यधिक केन्द्रीय होना। और जनता राजनीति के बिखराव की वजह है अतिशय विकेन्द्रीकरण। कांग्रेस के पास क्षेत्रीय नेता नहीं हैं और जनता परिवार के पास नेता ही नेता हैं।

बहरहाल 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा के खिलाफ एक स्थिर और सुगठित ताकत तैयार हुई तो यह चमत्कार होगा। देखें होता क्या है। सन 1977 में जनता पार्टी आनन-फानन बनी थी और देखते ही देखते बिखर भी गई। यह मंथन अभी चलेगा।

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