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Sunday, January 31, 2016

छोटे राज्यों की बड़ी राजनीति

आम आदमी पार्टी की निगाहें पंजाब और उत्तराखंड पर हैं। अभी वह दिल्ली में सत्तारूढ़ है। यदि उसे पंजाब और उत्तराखंड में सफलता मिले तो उसे राष्ट्रीय स्तर पर उभरने में बड़ी सफलता भी मिल सकती है। और वहाँ विफल रही तो आने वाले वक्त में दिल्ली से भी वह गायब हो सकती है। उसकी सफलता या विफलता के आधार दो छोटे राज्य बन सकते हैं। वाम मोर्चे की समूची राष्ट्रीय राजनीति अब केरल और त्रिपुरा जैसे दो छोटे राज्यों के सहारे है। कांग्रेस की राजनीति भी अब ज्यादातर छोटे राज्यों के भरोसे है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों का अपना महत्व है। वे लोकसभा में सीटें दिलाने का काम करते हैं, पर माहौल बनाने में छोटे राज्यों की भूमिका भी है। हाल में केरल और अरुणाचल इसीलिए महत्वपूर्ण बन गए हैं।

राजनीतिक दृष्टि से भारतीय जनता पार्टी की निगाहें इस वक्त देश के पूर्वोत्तर और दक्षिण पर हैं। लोकसभा चुनाव में भारी विजय के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और एक हद तक जम्मू-कश्मीर की सफलता को दिल्ली और बिहार में विफलता ने छिपा दिया। इस साल पाँच राज्यों में चुनाव होने हैं, जिनमें असम में भारतीय जनता पार्टी को उम्मीदें हैं। पश्चिम बंगाल में वह अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती है और तमिलनाडु तथा केरल में पैर जमाना चाहती है। माना जा रहा है कि इस महीने गुवाहाटी और शिलांग में होने जा रहा दक्षेस खेल समारोह एक प्रकार से केन्द्र की इस इलाके में उपस्थिति को जाहिर करने जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी की दिलचस्पी देश में कांग्रेस के राजनीतिक प्रभाव को यथा सम्भव कम करने में भी है। जिन पाँच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें से असम और केरल में कांग्रेस सरकारें हैं। इधर धुर दक्षिण के राज्य केरल और धुर पूर्वोत्तर के राज्य अरुणाचल की राजनीति देश की मुख्यधारा पर बड़ा असर डालने वाली साबित होने वाली है।

इस राजनीतिक परिदृश्य में अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन लागू होना और केरल में मुख्यमंत्री ओमन चांडी का सोलर स्कैम में घिरना भाजपा की रणनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण है। हालांकि ओमन चांडी को हाईकोर्ट से राहत मिल गई है और इनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने पर दो महीने के लिए रोक लग गई है, पर हाईकमान पर इस बात के लिए दबाव बढ़ता जा रहा है कि उन्हें पद से हटाया जाए। सोलर स्कैम पर एक न्यायिक आयोग जाँच कर रहा है। उसकी सुनवाई के कारण नित नई जानकारी सामने आ रही है। ऐसे में उन्हें मुख्यमंत्री पद पर बनाए रखना खतरे से खाली नहीं होगा। खासतौर से यह देखते हुए कि वहाँ विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। उन्हें हटाने का मतलब है भ्रष्टाचार के आरोपों को स्वीकार करना, जो केवल मुख्यमंत्री पर ही नहीं, पूरी सरकार पर हैं। चांडी के दो सहयोगियों को इसके पहले भ्रष्टाचार के दूसरे आरोपों के कारण पद से हटना पड़ा है। मुख्यमंत्री खिलाफ प्रदर्शन जारी हैं। तिरुवनंतपुर में बीजेपी कार्यकर्ता लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं।

ओमन चांडी का मामला कांग्रेस के लिए केवल केरल के चुनाव में ही भारी नहीं पड़ेगा, बल्कि संसद के बजट सत्र में सरकार पर उसके आक्रमणों की धार को भी हल्का कर देगा। पिछले दो सत्रों से कांग्रेस पार्टी भाजपा सरकार के मुख्यमंत्रियों पर आरोप लगाती रही थी। अब केरल और मई 2014 के बाद अरुणाचल में बनी सरकार पर रगे आरोप उसके लिए भारी पड़ेंगे। बीजेपी अब इसी प्रकार के आरोप असम की कांग्रेस सरकार के खिलाफ लगा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 19 जनवरी को कोकराझाड़ की रैली के साथ वहाँ चुनाव प्रचार की शुरुआत कर दी है। अब वहाँ मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में पार्टी ने केंद्रीय मंत्री सर्बानंद सोनोवाल के नाम की घोषणा करके अपनी आक्रामक नीति स्पष्ट कर दी है।

इस साल के पद्म पुरस्कारों पर भी पूर्वांचल की राजनीतिक छाया है। असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई ने दावा किया है कि इस साल राज्य सरकार द्वारा नामित 28 में से किसी भी व्यक्ति को पद्म पुरस्कार नहीं दिया गया। राज्य के जिन चार लोगों को अलंकृति किया गया है वे बीजेपी नामित है। यह सहकारी संघवाद की भावना के खिलाफ है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं ‘टीम इंडिया’ की बात करते हैं।

केरल के घटनाक्रम से कांग्रेस की आक्रामकता में कमी आएगी, पर अरुणाचल का घटनाक्रम उसकी मदद करेगा। अरुणाचल कांग्रेस की आंतरिक राजनीति हालांकि कांग्रेसी मुसीबत की असली वजह है, पर संघवाद के सिद्धांतों के कारण कांग्रेस को विपक्षी एकता कायम करने में मदद मिलेगी। संसद के बजट अधिवेशन में अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों पर विचार होना है। ऐसे में सरकार की कोशिश है कि गैर-कांग्रेस विपक्षी दलों से मदद ली जाए। पर राष्ट्रपति शासन का समर्थन अधिसंख्य विपक्षी दल नहीं करेंगे। शुक्रवार को बीजू जनता दल ने इस बात के संकेत दिए कि वह केन्द्र के इस फैसले से सहमत नहीं है। खासतौर से तब जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में था। अब देखना होगा कि अदालत का फैसला क्या होता है। अदालत ने राष्ट्रपति शासन के बारे में सरकारी दृष्टिकोण को स्वीकार किया तब स्थिति दूसरी होगी।

फिलहाल इस मामले पर विपक्ष सरकार के साथ नहीं है। पर इस मामले में कांग्रेस का दामन भी पाक नहीं है। 60 सदस्यों वाली अरुणाचल विधानसभा में कांग्रेस के 47 विधायक थे। इनमें से 21 विधायकों ने पिछले महीने बग़ावत कर दी। इसके बाद नाबाम टुकी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गई। इन लोगों ने भाजपा के 11 विधायकों के साथ मिल कर नाबाम टुकी सरकार को हटाने का प्रयास किया। पर कांग्रेस ने भी इसका मुकाबला परम्परागत तरीके से किया और उसके विधान सभा अध्यक्ष ने कांग्रेस के 14 विधायकों को अयोग्य करार दे दिया गया। इससे कुछ संवैधानिक सवाल खड़े हुए हैं, जिनका जवाब अदालत ही दे पाएगी। पर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के पहले अपना फैसला कर लिया।

मई 2014 में नई सरकार आने के बाद राज्यपालों की बर्खास्तगी और नियुक्ति को लेकर सवाल खड़े हुए हैं। इसी तरह राज्यपालों की भूमिका के सवाल भी सामने आए हैं। अरुणाचल के राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा ने राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए 15 जनवरी को प्रणब मुखर्जी को भेजी चार पेज की रिपोर्ट में 'गोहत्या' और पूर्व सीएम नबाम टुकी के उग्रवादी संगठन से संपर्क को रेखांकित किया है। राजखोवा ने यह भी लिखा है कि तीन बागी विधायकों ने टुकी पर उग्रवादी संगठन एनएससीएन (खापलांग गुट) से संपर्क में रहने का आरोप लगाया था। सिद्धांततः राज्यपालों से अपेक्षा की जाती है कि वे राजनीति से परे हटकर काम करेंगे। पर व्यवहार में ऐसा नहीं हो पाया। यह परम्परा कांग्रेसी राज की ही देन है, पर आज कांग्रेस को ही इस बात की शिकायत है। दूसरी ओर अरुणाचल के कांग्रेस विधायक दल के अंतर्विरोध भी हैं। बागी सदस्यों को अयोग्य करार देना इतना आसान नहीं होना चाहिए। इन छोटे राज्यों की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर इसबार बड़ा असर डालने वाली है।

हरिभूमि में प्रकाशित




2 comments:


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  2. प्रभाव और वर्चस्व, राजनीति अस्थिरता को प्रशस्थ है।

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