पठानकोट पर हुए हमले के बाद भारत में
लगभग वैसी ही नाराजगी है जैसी 26 नवम्बर 2008 के बाद पैदा हुई थी. बाद में खबरें
मिलीं कि तब भारत सरकार ने लश्करे तैयबा के मुख्यालय मुरीद्के पर हमले की योजना
बनाई थी. तब दोनों देशों के बीच किसी प्रकार सहमति बनी कि पाकिस्तान हमलावरों की
खोज और उन्हें सज़ा देने के काम में सहयोग करेगा. इसमें अमेरिका की भूमिका भी थी.
इस बार भी खबर है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने मंगलवार को भारतीय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया और एयरफोर्स बेस पर हुए हमले की जांच में
हर संभव मदद का आश्वासन दिया. उसके पहले पाकिस्तान सरकार ने औपचारिक रूप से इस
हमले की भर्त्सना भी की. बहरहाल टेलीफोन पर दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच
हुई बातचीत में नरेंद्र मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि हमले के जिम्मेदार लोगों के
खिलाफ तत्काल कार्रवाई की जाए. इससे पहले पाकिस्तानी विदेश विभाग ने सोमवार की रात
एक बयान में कहा था कि भारत द्वारा उपलब्ध कराए गए 'सुरागों' पर पाकिस्तान काम कर रहा है.
एक खबर यह भी है कि पाक अधिकृत कश्मीर
में स्थित करीब दर्जन भर आतंकवादी संगठनों के गठबंधन यूनाइटेड जिहाद काउंसिल ने हमले
की जिम्मेदारी ली है. यूजेसी में जम्मू कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी जैसे हिज्बुल
मुजाहिदीन वगैरह शामिल हैं. लगता यह है कि किसी ने जैशे-मुहम्मद की तरफ से ध्यान हटाने
के लिए यह बात कही है. भारत सरकार के सूत्र जैश की ओर इशारा कर रहे हैं. मुम्बई
हमले का आरोप लश्करे तैयबा पर था. देखना यह भी होगा कि लश्कर और जैश में किसी
किस्म का फर्क है या नहीं. कहा जा रहा है कि जैश का रिश्ता तहरीके तालिबान
पाकिस्तान के साथ भी अच्छा है, जो संगठन इन दिनों पाकिस्तान में आतंकी गतिविधियाँ
चला रहा है.
सवाल यह भी है कि क्या यह हमला
पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के अंतर्विरोधों की ओर इशारा कर रहा है? क्या इसमें सेना या आईएसआई की भूमिका नहीं है? भूमिका है तो क्या सेना ने नवाज शरीफ की पीठ में फिर से छुरा भोंका
है? क्या नवाज शरीफ का वादा फिर से झूठ का पुलिंदा
है? क्या पाकिस्तान की बात पर भरोसा नहीं किया
जाना चाहिए? पर क्या हम फौजी कार्रवाई करके समस्या का
समाधान कर पाएंगे? फिलहाल एक बड़ा सवाल है कि क्या 15 जनवरी को
प्रस्तावित सचिव स्तर की वार्ता होगी या नहीं.
पठानकोट हमले के कई पहलू हैं. पहला
भारत-पाक रिश्तों से जुड़ा है. दूसरा पहलू है आतंकवाद के खिलाफ हमारी रणनीति का.
तीसरा पहलू है इस हमले को लेकर आंतरिक राजनीति का. भारत के सोशल और इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया की सुनें तो लगता है कि देश की जनता हमले का जवाब हमले से देना चाहती है.
यह सोचे-समझे बगैर कि यह लड़ाई कहाँ तक जाएगी. मुम्बई हमले के मुकाबले इस वक्त
हालात बदले हुए हैं. पाकिस्तान सरकार ने इस बार काफी तेजी से प्रतिक्रिया व्यक्त
की है और कार्रवाई का आश्वासन दिया है. मुम्बई हमले के समय काफी अरसे तक पाकिस्तान
में संशय रहा. फरवरी 2008 के चुनाव के बाद बनी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार
एक लम्बे राजनीतिक ऊहापोह के बाद बनी थी. जनरल परवेज मुशर्रफ का प्रभाव हालांकि
पूरी तरह खत्म हो चुका था, पर सेना और नागरिक सरकार के रिश्तों में दरार कायम थी.
हालांकि मुम्बई हमले के एक साल पहले 13
ग्रुपों ने मिलकर तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का गठन कर लिया था, पर वह
पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के लिए बड़ा खतरा बनकर नहीं उभरा था. पाकिस्तानी
सिविल सोसायटी का प्रभाव हालांकि आज भी गहरा नहीं है, पर दिसम्बर 2014 में आर्मी
पब्लिक स्कूल, पेशावर के हत्याकांड ने नागरिकों के मन में खून-खराबे को लेकर आंशिक
वितृष्णा पैदा की है. पिछले साल 46 अरब डॉलर के चीन-पाकिस्तान कॉरीडोर के निर्माण
की योजना को लेकर पाकिस्तान काफी उत्साहित है. वहाँ आर्थिक विकास के प्रति
दिलचस्पी बढ़ी है. भारत से व्यापार बढ़ाने की कोशिशें वहाँ का व्यापारी समुदाय एक
अरसे से कर रहा है. सन 2011 से दोनों देशों ने व्यापारिक रिश्तों को बेहतर बनाने
की योजना पर काम शुरू कर दिया था. पर सीमा पर अचानक गतिविधियाँ बढ़ने से और भारत
में सत्ता परिवर्तन से सारे काम रुक गए.
भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध उस अंधेरे
रास्ते की तरह हैं. इसमें कई बार समतल जमीन मिलती है और कई बार ठोकरें. फिलहाल हमें
न तो आक्रामक उन्मादी होकर सोचना चाहिए और न खामोश रहकर. मोदी और नवाज शरीफ के बीच
बना सम्पर्क वक्त की जरूरत है. यह सम्पर्क होना ही चाहिए. यह सिर्फ संयोग नहीं है
कि पिछले दो महीने से सीमा पर एक बार भी गोलीबारी की घटना नहीं हुई है. सच यह है
कि दोनों देशों के रिश्तों में जो थोड़ा सा भी सुधार नजर आता है, वह व्यापारी
समुदाय के आपसी रिश्तों और दोनों देशों के बीच ट्रैक टू के सम्पर्कों के कारण है. आप
कल्पना करें कि ये सम्पर्क न होते तो इस वक्त क्या होता. यह सच है कि अटल बिहारी
वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद करगिल कांड हुआ, पर करगिल के बाद ही आगरा शिखर
सम्मेलन हुआ और सन 2003 का सीमा पर शांति बनाए रखने का समझौता हुआ. और यह भी कि लाहौर यात्रा नहीं हुआ होता और करगिल कांड होता तब उस लड़ाई का आयाम शायद कुछ और होता. इस बार बी लाहौर यात्रा न हुई होती और पठानकोट होता तो शायद भारत की प्रतिक्रिया कुछ और होती.
मुम्बई हमले के फौरन बाद 28 नवम्बर
2008 को एक फर्जी फोन करने वाले ने खुद को भारतीय विदेश मंत्रालय का प्रतिनिधि
बताते हुए पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़रदारी को फोन करके युद्ध की धमकी दे डाली थी.
सम्पर्क और बातचीत को जारी रखना दोनों देशों के हित में है. साथ ही हमें जेहादी
तत्वों के या तो कमजोर होने या उनपर पाकिस्तान सरकार का नियंत्रण साबित होने का
इंतजार करना होगा. पाकिस्तान लम्बे अरसे तक जेहादियों को छुट्टा छोड़ने की स्थिति
में अब नहीं है. उसके सामने भी दाएश या आईएस का खतरा है. चीन के साथ रिश्ते बेहतर
बनाए रखने के लिए भी उसे जेहादियों को काबू में रखना होगा.
पठानकोट प्रकरण का एक पहलू हमारी
सामर्थ्य से जुड़ा है. हमें अपनी कमजोरियों की ओर भी ध्यान देना चाहिए. हमलावरों
को हवाई अड्डे तक पहुँचने के काफी पहले उनकी स्थिति का पता लग चुका था. यह भी पता
लग चुका था कि वे कहाँ हैं. फिर भी वे भीतर घुसने में कामयाब हुए. बीएसएफ की थर्मल
इमेजिंग प्रणाली क्यों नहीं काम कर रही थी? इस
प्रकरण का एक और पहलू परेशान कर रहा है. वह है तस्करों और आतंकवादियों के सहयोग
का. अब यह तफतीश से पता लगेगा कि कहीं आतंकियों को स्थानीय अपराधियों या बब्बर
खालसा जैसे संगठनों से तो मदद नहीं मिली थी.
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