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Sunday, January 3, 2016

अभी कई तीखे मोड़ आएंगे राष्ट्रीय राजनीति में

भारतीय राज-व्यवस्था, प्रशासन और राजनीति के लिए यह साल बड़ी चुनौतियों से भरा है। उम्मीद है कि इस साल देश की अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि आठ फीसदी की संख्या को या तो छू लेगी या उस दिशा में बढ़ जाएगी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि संसद के बजट सत्र में क्या होता है। पिछले दो सत्रों की विफलता के बाद यह सवाल काफी बड़े रूप में सामने आ रहा है कि भविष्य में संसद की भूमिका क्या होने वाली है। देश के तकरीबन डेढ़ करोड़ नए नौजवानों को हर साल नए रोजगारों की जरूरत है। इसके लिए लगातार पूँजी निवेश की जरूरत होगी साथ ही आर्थिक-प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारना होगा। व्यवस्था की डोर राजनीति के हाथों में है। दुर्भाग्य से राजनीति की डोर संकीर्ण ताकतों के हाथ में रह-रहकर चली जाती है।


नए साल के पहले दिन पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा, "दुर्भाग्य से सरकार का कोई भी वादा पूरा होता नहीं दिख रहा। इसके विपरीत साल 2015 बेहद निराशाजनक प्रदर्शन के साथ समाप्त हो गया।...वर्ष 2015-16 के दौरान, जीडीपी के 7-7.3 से अधिक रहने की संभावना नहीं है। अर्थव्यवस्था एक गहरी खाई में अटक गई है।" इतना कहने के अलावा उन्होंने यह भी कहा कि केंद्र सरकार ने जीएसटी विधेयक पर विपक्ष के विचारों को शामिल करने के बारे में जिद्दी रुख अख्तियार कर लिया है।

एक तरफ चिदंबरम कांग्रेस की तीन आपत्तियों का जिक्र कर रहे हैं वहीं उनके दूसरे नेता आनन्द शर्मा शीत सत्र शुरू होने के पहले कह चुके थे, ‘विधेयक हमारी प्राथमिकता नहीं है। देश में जो हो रहा है उसे देखना हमारी प्राथमिकता है। संसदीय लोकतंत्र केवल एक या दो विधेयकों तक सीमित नहीं हो सकता।’ अब चिदंबरम कह रहे हैं कि संसद में कई महत्वपूर्ण विधेयक अटके पड़े हैं। अलबत्ता वे यह याद दिलाना जरूरी समझते हैं, "सरकार ने विश्वास के साथ अनुमान जाहिर किया था कि साल 2015-16 के दौरान आर्थिक विकास दर 8.1-8.5 रहेगी। चिदंबरम इस अनुपलब्धि से खुश हैं या दुःखी हैं? अर्थ-व्यवस्था के लक्ष्यों का पूरा न होना क्या देशहित में है?

लोकतांत्रिक राजनीति के अपने अंतर्विरोध हैं। सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के लक्ष्य एक जैसे नहीं होते। इस लिहाज से केंद्र सरकार के लिए यह साल कुछ बड़ी चुनौतियाँ लेकर आने वाला है। सबसे बड़ी चुनौती बजट प्रावधानों को लेकर है. दूसरी महत्वपूर्ण विधेयकों को पास कराने की और तीसरी चुनौती है इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी स्थिति को सम्हालने की। सन 2015 में भारतीय जनता पार्टी को दिल्ली और बिहार में जो धक्का लगा है उससे उसे उबरने की जरूरत होगी। इन दो चुनावों के आधार पर यह कहना गलत होगा कि भाजपा का पराभव शुरू हो चुका है। इस साल उसके पास पलटवार का बेहतर मौका है।

नए साल की पहली खबर थी पाकिस्तानी गायक अदनान सामी को भारतीय नागरिकता मिलना। तीन महीने पहले जिस देश में असहिष्णुता की बहस चल रही हो वहाँ पाकिस्तान के एक लोकप्रिय गायक का नागरिक बनने का अनुरोध प्रतीकात्मक ही सही, महत्वपूर्ण है। खबर यह भी है कि बड़ी संख्या में पाकिस्तान के अहमदिया मुसलमान भारत में शरण लेना चाहते हैं। इधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक लाहौर यात्रा पर जाकर भारत-पाक रिश्तों को नया मोड़ दे दिया है।

क्या यह बिहार चुनाव परिणाम का सबक है? ऐसा नहीं है, अलबत्ता सरकार की नीतियाँ किस दिशा में जाती हैं यह देखना होगा। यह भी कि असहिष्णुता का मसला इस साल के चुनावों पर कितना असर डालेगा। यह भाजपा की विचारधारा का सवाल बनेगा या नहीं। साल के अंत में अयोध्या के मंदिर में पत्थरों को लेकर भी खबरें गर्म थीं। यह अनायास था या सायास?

अप्रैल-मई 2016 में तमिलनाडु, पुदुच्चेरी, पश्चिम बंगाल, केरल और असम विधानसभाओं के चुनाव होने की सम्भावना है। इनमें से केवल केरल और असम में कांग्रेस मुकाबले में है। भारतीय जनता पार्टी असम में अपनी ताकत आजमाना चाहती है। नीतीश कुमार चाहते हैं कि असम में भी बिहार का फॉर्मूला आजमाया जाए। इसके लिए उन्होंने असम गण परिषद के नेता प्रफुल्ल कुमार महंत और बद्रुद्दीन अजमल से सम्पर्क स्थापित किया है। असम विधान सभा के 2011 के चुनाव में मौलाना बद्रुद्दीन अजमल के असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने 126 में से 18 सीटें जीतकर कांग्रेस के बाद दूसरा स्थान प्राप्त किया था।

असम में मुसलमान वोटरों की संख्या 30 फीसदी के आसपास है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने असम में 14 में से 7 सीटें जीतीं थीं। भाजपा की ताकत इस राज्य में बढ़ी है। उसे रोकने के लिए क्या कांग्रेस और बद्रुद्दीन अजमल का गठबंधन सम्भव है? राज्य में भारतीय जनता पार्टी और नौ जनजातीय मोर्चों के गठबंधन युनाइटेड पीपुल्स फ्रंट के बीच समझौता होने की सम्भावना है। हाल में वहाँ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हिमंत विश्व शर्मा पार्टी छोड़कर भाजपा में आए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 19 जनवरी को असम जाने वाले हैं। उधर कांग्रेस के तरुण गोगोई चुनाव में प्रशांत किशोर की सेवाएं ले रहे हैं, जिन्होंने बिहार में नीतीश कुमार को सेवाएं दी थीं। यानी सबसे पहले चुनाव का नगाड़ा असम में बजने वाला है।

भारतीय जनता पार्टी बंगाल में भी जोर आजमाना चाहती है। कहा जा रहा है कि बिहार से सबक सीखने के बाद पार्टी अब नरेंद्र मोदी का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल नहीं करेगा। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में भाजपा का वोट शेयर 6% से बढ़कर 17% हो गया था। पार्टी के पास तृणमूल सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार, सारदा चिटफंड घोटाला, बढ़ते अपराध और राज्य के विकास का मुद्दा है। उधर यह भी देखना है कि क्या तृणमूल और कांग्रेस के बीच गठबंधन होगा?
इस साल का एक बड़ा सवाल यह है कि तमिलनाडु और केरल में क्या भाजपा अपने पैर जमाने में कामयाब होगी? चुनावी राजनीति के लिहाज से अगला साल यानी सन 2017 भी बहुत महत्वपूर्ण होगा। उस साल हिमाचल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव होंगे। पंजाब में आम आदमी पार्टी सरकार बनाने के इरादे से उतरने वाली है। इन चुनावों की बुनियाद भी इस साल पड़ेगी।

सन 2017 में राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के चुनाव भी होंगे। उस साल राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव भी होंगे। ये सारी राजनीतिक गतिविधियाँ देश की दशा-दिशा बदलने वाली हैं। पिछले साल बिहार में जो महागठबंधन बना है, उसकी आधार भूमि कितनी मजबूत है, इसका पता इस साल लगेगा। वहाँ जेडीयू और आरजेडी के प्रवक्ताओं और बड़े नेताओं के बीच जुबानी जंग तेज होती जा रही है। हालांकि दोनों और से सुलह-सफाई भी हुई है, पर राजनीति में कब क्या होगा कहना मुश्किल है।


हरिभूमि में प्रकाशित

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