प्रमोद जोशी
इस साल अप्रैल में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए क़ानून बनने की राह निजी विधेयक की मदद से खुली थी. राज्यसभा ने द्रमुक सांसद टी शिवा के इस आशय के विधेयक को पास किया.
ये विधेयक इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि लगभग 45 साल बाद किसी सदन ने निजी विधेयक पास किया था. पिछले हफ़्ते राज्यसभा में 14 निजी विधेयक पेश किए गए और लोकसभा में 30. इनमें सरकारी हिंदी को आसान बनाने, बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगाने, मतदान को अनिवार्य करने से लेकर इंटरनेट की 'लत' रोकने तक के मामले हैं.
राज्यसभा सदस्य कनिमोझी सदन में मृत्युदंड ख़त्म करने से जुड़ा विधेयक लाना चाहती हैं जिसके प्रारूप पर अभी विचार-विमर्श हो रहा है. कांग्रेस सांसद शशि थरूर धारा 377 में बदलाव के लिए विधेयक ला रहे हैं.
निजी विधेयक सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं और सरकार का ध्यान किसी ख़ास पहलू की ओर खींचते हैं.
जागरूकता के प्रतीक रहे भारतीय संसद के पहले 18 साल में 14 क़ानूनों का निजी विधेयकों की मदद से बनना और उसके बाद 45 साल तक किसी क़ानून का नहीं बनना किस बात की ओर इशारा करता है? क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी धीरे-धीरे सरकार के पास चली गई है.
निजी विधेयक क़ानून बनाने से ज़्यादा सामाजिक जागरुकता की ओर इशारा करते हैं और इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है.
भारतीय संसद क़ानून बनाती है. शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर वह कार्यपालिका से स्वतंत्र है, पर उस तरह नहीं जैसी अमरीकी अध्यक्षात्मक प्रणाली है.
हमारी संसद में सरकारी विधेयकों के अलावा सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से विधेयक पेश करने का अधिकार है लेकिन विधायिका का काफ़ी काम कार्यपालिका यानी सरकार ही तय करती है. एक तरह से पार्टी लाइन ही क़ानूनों की दिशा तय करती है.
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