आप अपने बच्चे को जैसा बनाना चाहते हैं पहले खुद वैसा बनिए। यह बात बच्चों के व्यवहार पर किए जाने वाले अध्ययनों से जाहिर होती है। माता-पिता की गतिविधियों और बच्चों में पढ़ने की ललक के बीच गहरा सम्बन्ध पाया गया है (स्कौलेस्टिक, 2013). उदाहरण के लिए, नियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में 57% के माता-पिता ने अपने बच्चों के पढ़ने के लिए रोजाना अलग से समय निर्धारित किया हुआ है. इसके विपरीत अनियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में सिर्फ 17% के माता-पिता ने ही ऐसी व्यवस्था की है. आशुतोष उपाध्याय ने जॉर्डन सैपाइरो के इस लेख का अनुवाद करके भेजा है, जो पठनीय है
यह एक सांस्कृतिक मान्यता है कि आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बच्चों को किताबों से दूर कर रहे हैं. मैं जब दूसरे विश्वविद्यालयी प्राध्यापकों से मिलता हूं तो वे अक्सर शिकायत करते हैं कि विद्यार्थी अब पढ़ते नहीं हैं क्योंकि उनकी आंखें हर वक्त उनके फोन से चिपकी रहती हैं. टेक्नोफोब (टेक्नोलॉजी से भयभीत रहने वाले) जमात के लोग सोचते हैं कि हम एक ऐसी पीढ़ी को तैयार कर रहे हैं जो साहित्य की कीमत नहीं समझती. नए और पुराने के बीच ध्रुवीकरण जारी है. संभव है यह धारणा किसी स्क्रीन-विरोधी मानस की बची-खुची भड़ास हो जो टेलीविजन के स्वर्णकाल की परिधि से बाहर नहीं निकल पाता. यह पिटी-पिटाई मनगढ़ंत कहानी भी हो सकती है जो तकनीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ संग्राम में किताबों की हार पर छाती कूट-कूट कर कह रही है- कागज सच्चा नायक और गोरिल्ला ग्लास दुष्ट खलनायक!'कॉमन सेन्स मीडिया' की ताज़ा रिपोर्ट "बच्चे, किशोर और पढ़ने की आदत" अमेरिका में "बच्चों के पढ़ने की आदतों के बारे में एक बड़ी तस्वीर" पेश करती है और पड़ताल करती है कि हाल के दशकों में हुई तकनीकी क्रांति के दरम्यान ये आदतें किस कदर बदली हैं. यह तस्वीर बताती है:
सरकारी अध्ययन के मुताबिक 1984 से अब तक हफ्ते में एक बार पढ़ने वाले 13 वर्ष तक की आयु के बच्चों का प्रतिशत 70% से घटकर 53% हो गया है. सप्ताह में एक बार पढ़ने वाले 17 वर्ष के बच्चों में यह आंकड़ा 64% से लुढ़ककर 40% पर पहुँच गया. वहीं इस दरम्यान 17 वर्ष के बच्चों में, कभी नहीं या मुश्किल से कभी-कभी पढ़ने वालों की तादाद 9% से बढ़कर 27% हो गयी. बेशक ये आंकड़े झकझोर देने वाले हैं. लेकिन मुझे समझे में नहीं आता कि इनका टेक्नोलॉजी से क्या ताल्लुक है. यह आरोप मुझे निहायत बेतुका लगता है.
मुझे तो लगता है कि हम आज ऐसे सांस्कृतिक परिवेश में रह रहे हैं जो इतिहास के किसी भी दौर के मुकाबले कहीं ज्यादा पाठ-संपन्न है. लोग दिन भर पढ़ते रहते हैं. गूगल, ट्विटर और फेसबुक शब्दों का अम्बार लगाते रहते हैं. लोग अपनी आंखों को स्मार्टफोन से अलग नहीं कर पाते- जो मूलतः पाठ और सूचना बांटने वाली मशीन है. सच कहें तो हमारी समस्या हर वक्त पढ़ते ही रहने की है. लोग लगातार अपने ई-मेल या टेक्स्ट मैसेज चैक करते रहते हैं. कभी-कभी तो उन्हें शब्दों के इस जंजाल से बाहर निकालना भी मुश्किल हो जाता है.
फिर भी, लोग क्या पढ़ रहे हैं? ऐसा लगता है कि वे ढेर सारी किताबें नहीं पढ़ते. मैं बच्चों की नहीं बल्कि बड़ों की बात कर रहा हूं. यहां तक कि टेक्नोफोब भी किताबें नहीं पढ़ते. मैं ऐसे कई पढ़े-लिखे भद्रजनों से मिल चुका हूं जिन्होंने मुझे बताया कि उन्हें किताबें पढ़ने का समय ही नहीं मिलता. वे न्यूयॉर्क टाइम्स में छपने वाली पुस्तक समीक्षाओं को देख लेते हैं ताकि पार्टियों में होने वाली पुस्तक चर्चाओं में अपनी इज्जत बचा सकें. वे विमान में मिलने वाली पत्रिकाओं के पिछले पन्ने पर छपने वाले पुस्तक सारांश से काम चला लेते हैं. मैं हैरान रह जाता हूं जब कई लोग मुझसे मेरी किताबों के ऑडियो संस्करण की उपलब्धता के बाबत पूछते हैं.
यह समस्या क्या बच्चों के किताबें न पढ़ने की है या फिर किसी के भी किताबें न पढ़ने की? क्या हमारी संस्कृति घनघोर रूप से गैर-अकदामिक और बौद्धिकता विरोधी नहीं हो गयी है? हम पत्रिकाओं व ब्लॉग पढ़ने को तरजीह देते हैं. ये मानविकी, लिबरल आर्ट्स एजुकेशन या किताबों पर निर्भर विश्वविद्यालयी डिग्री के मूल्यों पर सतत सवाल खड़े करते हुए छुपे तौर पर आत्म-प्रचारात्मक होते हैं. चालू फैशन चीख रहा है कि आज हमें एसटीईएम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मैथ्स) शिक्षा- यानी ज्यादा इंजीनियरों, ज्यादा व्यवसायियों की दरकार है. परोक्ष रूप से हम एक पुस्तक विरोधी एजेंडे से घिरे हुए हैं और फिर भी हैरान हैं कि बच्चे पढ़ क्यों नहीं रहे हैं.
मैं यह स्वीकार करता हूं कि मैं पक्षपाती हूं. मैं एक अकादमिक हूं. मुझे पढ़ने के ही पैसे मिलते हैं. लेकिन मेरे बच्चे (6 और 8 वर्ष) भी खुद से खूब पढ़ते हैं. इसलिए नहीं कि मैं ऐसा चाहता हूं- वीडिओ गेम खेलना हो तो पहले 30 मिनट पढ़ो. इसलिए भी कि उनके डैड की पढ़ने की आदत उनके लिए मॉडल का काम करती है. डैड हमेशा नई-नई किताबें मंगाते रहते हैं; डैड हमेशा उन्हें पढ़ते हुए दिखाई देते हैं. मेरे घर में वयस्क होने का मतलब किताबों की सोहबत में रहने वाला होता है. परिपक्व होने का मतलब छपे हुए शब्दों के लम्बे रूपों से ज्यादा से ज्यादा अंतरंग होना.
कॉमन सेंस मीडिया की रिपोर्ट स्वीकार करती है कि- "माता-पिता पढ़ने की प्रेरणा दे सकते हैं." रिपोर्ट कहती है, "छपी हुई किताबें घर में रखने से, उन्हें खुद पढ़ने से और अपने बच्चों के लिए रोज पढ़ने का समय तय करने से पढ़ने की प्रेरणा जन्म ले सकती है."
माता-पिता की गतिविधियों और बच्चों में पढ़ने की ललक के बीच गहरा सम्बन्ध पाया गया है (स्कौलेस्टिक, 2013). उदाहरण के लिए, नियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में 57% के माता-पिता ने अपने बच्चों के पढ़ने के लिए रोजाना अलग से समय निर्धारित किया हुआ है. इसके विपरीत अनियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में सिर्फ 17% के माता-पिता ने ही ऐसी व्यवस्था की है.
जहां तक किताबों का सवाल है, अधिकांश अध्ययन बताते हैं कि पाठ प्रस्तुत करने की विधि की ख़ास प्रासंगिकता नहीं होती. पढ़ने में गहरी रूचि रखने वालों के लिए तकनीक कोई मुद्दा नहीं. ई-रीडर, टेबलेट, लैपटॉप स्क्रीन आदि सभी में लम्बे पाठ पढ़े जा सकते हैं. खरे पाठक के लिए किताब का कागजी रूप में होना बहुत मायने नहीं रखता. सच तो यह है कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने किताब तक पहुंचना और आसान बना दिया है. जोआन गैंज कूनी सेंटर की इस साल की शुरुआत में जारी एक रिपोर्ट कहती है कि 2 से 10 आयुवर्ग के अधिकतर बच्चों के पास पढ़ने की कोई न कोई इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस है: 55% के पास घर पर बहुउपयोगी टेबलेट है और 29% के पास अपना ई-रीडर (62% की इनमें से किसी एक तक पहुंच) है. घर पर इन उपकरणों में से किसी एक को रखने वाले बच्चों में आधे (49%) इलेक्ट्रॉनिक तरीकों से पढ़ते हैं, या अपने या फिर अपने माता-पिता (30%) के उपकरणों से. किताबें मायने रखती हैं मगर बच्चे उन्हें किस तरह पढ़ते हैं, यह नहीं.
मेरे बच्चे आई-पैड, ई-रीडर और कागज़, सभी तरीकों से किताब पढ़ते हैं. मैं यह सुनिश्चित करता हूं कि वे पढ़ें. मैं हर रात अपने बच्चों के लिए पढ़ता हूं. मैं दिन में भी उनके साथ पढ़ता हूं. मैं यह इसलिए करता हूं क्योंकि मैं इसे उनकी शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग समझता हूं. मैं अपने बच्चों की परवरिश को यूं ही किसी विशेषज्ञ को आउटसोर्स नहीं कर सकता. और फिर यह रोना नहीं रो सकता कि ये टीचर नाकामयाब हैं. मेरे लिए यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि बच्चों की पढ़ाई में माता-पिता की भूमिका ज़रूरी है. उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके बच्चे किताबें पढ़ लेते हैं.
बेशक किताब बनाम डिजिटल जैसी खबरें गढ़ना बहुत आसान है. इससे हमें अपने बच्चों के साथ जुटने से बचने का बहाना मिल जाता है. हम खुद को दोष देने के बजाय वीडिओ गेम्स या ऐप्स को कोसने लगते हैं. बच्चों को विवेकवान, संवेदनशील और खुले दिमाग वाले वयस्क के रूप में तैयार करने की ज़िम्मेदारी माता-पिता को लेनी होती है. किताबें शिक्षा का अहम् हिस्सा हैं. लेकिन अगर हम अपने जीवन से सारे के सारे डिजिटल उपकरण हटा दें तो भी बच्चे किताबें नहीं पढ़ेंगे, जब तक कि हम उन्हें यह अहसास न करा दें कि वयस्क बनने के लिए किताबें पढ़ना कितना ज़रूरी है.
अपने बच्चों को पढ़ने के लिए शिक्षित करें. और उन्हें शिक्षित करें कि जो कुछ वे पढ़ते हैं उससे फर्क पड़ता है. रेनेसां लर्निंग की वार्षिक रिपोर्ट "बच्चे क्या पढ़ रहे हैं" विस्तार से बताती है कि बच्चे आजकल क्या-क्या पढ़ रहे हैं और उनमें सबकुछ अच्छा नहीं है. यह भारी-भरकम अध्ययन किताबों की बिक्री या लाइब्रेरी के आंकड़े पेश नहीं करता. यह अमेरिका के 98 लाख छात्रों द्वारा पढ़ी गयी 31.8 करोड़ किताबों के आंकड़ों का अध्ययन है ताकि यह पता लगाया जा सके कि साल में कौन सी किताबें बच्चों के बीच सबसे लोकप्रिय रहीं. यह अमेरिका की सबसे विस्तृत रिपोर्ट है जो कक्षा 12 तक के बच्चों की पढ़ने की आदतों का खुलासा करती है.
तीन दिलचस्प निष्कर्ष:
1. लैंगिक रुझान की पढ़ाई पहली कक्षा से ही शुरू हो जाती है. बुनियादी कक्षाओं के लड़के "कैप्टन अंडरपेंट्स" के ढेर के ढेर पढ़ जाते हैं लेकिन ये किताबें लड़कियों की पसंद की शीर्ष 20 में भी जगह नहीं बना पातीं. हमें इन आंकड़ों के आधार पर यह समझाया जाता है कि लड़के और लड़कियों की प्राथमिकताएं, रुचियां और रुझान अलग-अलग तरह का होता है. मैं इस बात पर यकीन नहीं करता. इसके विपरीत हम इन आकड़ों को इस बात के सबूत के तौर पर भी ले सकते हैं कि हम लैंगिक आधार पर बांटी गई ऐसी दुनिया बनाते जा रहे हैं जहां भूमिकाएं व बौद्धिक अपेक्षाएं जैविक प्रजनन अंगों के आधार पर विभाजित हैं. अगर आप यही चाहते हैं तो येन केन प्रकारेण इसे जारी रखिये. अगर नहीं, ऐसी किताबों की कमी नहीं जिनमें लैंगिकता नहीं है; अपने बच्चों को जानने दीजिये कि आप इन सब से ऊपर सोच सकते हैं.
2. मिडिल स्कूल (खासकर कक्षा 6 के बच्चे) सबसे ज्यादा पढ़ते हैं. प्रति छात्र पढ़ी गयी औसत शब्द संख्या मिडिल स्कूल के दौरान बढ़ती है मगर हाईस्कूल आते-आते यह फिर से घटने लगती है. मैं इसे इस बात के प्रमाण के तौर पर समझता हूं कि माता-पिता अपने बच्चों को किताबों के बारे में गलत सन्देश दे रहे हैं. हम साक्षरता को भाव देते हैं और छोटे बच्चों के जल्द से जल्द पढ़ना सीख लेने पर खुश होते हैं. लेकिन यही बच्चे जब किशोर हो जाते हैं तब वे सीधे अपने बड़ों की आदतों का अनुसरण करने लगते हैं. अगर बड़े पढ़ते हुए नहीं दिखाई देते तो वे भी न पढ़ने को बड़े होने का गुण मान बैठते हैं.
3. ट्वीलाईट और हंगर गेम्स क्लासिकी साहित्य की तुलना में ज्यादा लोकप्रिय हैं. आजकल शिक्षक शेक्सपियर या डॉन क्विक्जोट की जगह इन किताबों को तरजीह देते हैं. ज्यादातर की दलील होती है कि हर तरह पाठ अच्छा होता है और ये किताबें छात्रों को ज्यादा आकर्षित करती हैं. एक ओर से देखने पर यह सही लगता है. लेकिन दूसरी ओर हमें याद रखना चाहिए कि इन लोकप्रिय किताबों के लिए कथ्य के बजाय बिक्री ज्यादा अहमियत रखती है. वे मूलतः पैसा कमाने के लिए लिखी गयी हैं और मानव परिस्थितियों का साहित्यिक अन्वेषण उनकी प्राथमिकताओं में सबसे आखीर में है. मेरा यह मतलब नहीं कि लोकप्रिय कहानियां बुरी होती हैं, लेकिन इस बात में भी दम है कि ऐसी किताबें अपने युग की आर्थिक, राजनीतिक और ज्ञानशास्त्रीय प्रवृत्तियों के पार नहीं देख पातीं.
और आखिरकार हमारे बच्चे कैसे पढ़ते हैं और क्या पढ़ते हैं, इस बात से किताबों के बारे में बच्चों के बजाय बड़ों के नज़रिए का ज्यादा पता चलता है. आप अपने बच्चों को जैसा देखना चाहते हैं, पहले व्यवहार और तौर-तरीकों से वैसा आदर्श तो पेश कीजिये.
सरकारी अध्ययन के मुताबिक 1984 से अब तक हफ्ते में एक बार पढ़ने वाले 13 वर्ष तक की आयु के बच्चों का प्रतिशत 70% से घटकर 53% हो गया है. सप्ताह में एक बार पढ़ने वाले 17 वर्ष के बच्चों में यह आंकड़ा 64% से लुढ़ककर 40% पर पहुँच गया. वहीं इस दरम्यान 17 वर्ष के बच्चों में, कभी नहीं या मुश्किल से कभी-कभी पढ़ने वालों की तादाद 9% से बढ़कर 27% हो गयी. बेशक ये आंकड़े झकझोर देने वाले हैं. लेकिन मुझे समझे में नहीं आता कि इनका टेक्नोलॉजी से क्या ताल्लुक है. यह आरोप मुझे निहायत बेतुका लगता है.
मुझे तो लगता है कि हम आज ऐसे सांस्कृतिक परिवेश में रह रहे हैं जो इतिहास के किसी भी दौर के मुकाबले कहीं ज्यादा पाठ-संपन्न है. लोग दिन भर पढ़ते रहते हैं. गूगल, ट्विटर और फेसबुक शब्दों का अम्बार लगाते रहते हैं. लोग अपनी आंखों को स्मार्टफोन से अलग नहीं कर पाते- जो मूलतः पाठ और सूचना बांटने वाली मशीन है. सच कहें तो हमारी समस्या हर वक्त पढ़ते ही रहने की है. लोग लगातार अपने ई-मेल या टेक्स्ट मैसेज चैक करते रहते हैं. कभी-कभी तो उन्हें शब्दों के इस जंजाल से बाहर निकालना भी मुश्किल हो जाता है.
फिर भी, लोग क्या पढ़ रहे हैं? ऐसा लगता है कि वे ढेर सारी किताबें नहीं पढ़ते. मैं बच्चों की नहीं बल्कि बड़ों की बात कर रहा हूं. यहां तक कि टेक्नोफोब भी किताबें नहीं पढ़ते. मैं ऐसे कई पढ़े-लिखे भद्रजनों से मिल चुका हूं जिन्होंने मुझे बताया कि उन्हें किताबें पढ़ने का समय ही नहीं मिलता. वे न्यूयॉर्क टाइम्स में छपने वाली पुस्तक समीक्षाओं को देख लेते हैं ताकि पार्टियों में होने वाली पुस्तक चर्चाओं में अपनी इज्जत बचा सकें. वे विमान में मिलने वाली पत्रिकाओं के पिछले पन्ने पर छपने वाले पुस्तक सारांश से काम चला लेते हैं. मैं हैरान रह जाता हूं जब कई लोग मुझसे मेरी किताबों के ऑडियो संस्करण की उपलब्धता के बाबत पूछते हैं.
यह समस्या क्या बच्चों के किताबें न पढ़ने की है या फिर किसी के भी किताबें न पढ़ने की? क्या हमारी संस्कृति घनघोर रूप से गैर-अकदामिक और बौद्धिकता विरोधी नहीं हो गयी है? हम पत्रिकाओं व ब्लॉग पढ़ने को तरजीह देते हैं. ये मानविकी, लिबरल आर्ट्स एजुकेशन या किताबों पर निर्भर विश्वविद्यालयी डिग्री के मूल्यों पर सतत सवाल खड़े करते हुए छुपे तौर पर आत्म-प्रचारात्मक होते हैं. चालू फैशन चीख रहा है कि आज हमें एसटीईएम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मैथ्स) शिक्षा- यानी ज्यादा इंजीनियरों, ज्यादा व्यवसायियों की दरकार है. परोक्ष रूप से हम एक पुस्तक विरोधी एजेंडे से घिरे हुए हैं और फिर भी हैरान हैं कि बच्चे पढ़ क्यों नहीं रहे हैं.
मैं यह स्वीकार करता हूं कि मैं पक्षपाती हूं. मैं एक अकादमिक हूं. मुझे पढ़ने के ही पैसे मिलते हैं. लेकिन मेरे बच्चे (6 और 8 वर्ष) भी खुद से खूब पढ़ते हैं. इसलिए नहीं कि मैं ऐसा चाहता हूं- वीडिओ गेम खेलना हो तो पहले 30 मिनट पढ़ो. इसलिए भी कि उनके डैड की पढ़ने की आदत उनके लिए मॉडल का काम करती है. डैड हमेशा नई-नई किताबें मंगाते रहते हैं; डैड हमेशा उन्हें पढ़ते हुए दिखाई देते हैं. मेरे घर में वयस्क होने का मतलब किताबों की सोहबत में रहने वाला होता है. परिपक्व होने का मतलब छपे हुए शब्दों के लम्बे रूपों से ज्यादा से ज्यादा अंतरंग होना.
कॉमन सेंस मीडिया की रिपोर्ट स्वीकार करती है कि- "माता-पिता पढ़ने की प्रेरणा दे सकते हैं." रिपोर्ट कहती है, "छपी हुई किताबें घर में रखने से, उन्हें खुद पढ़ने से और अपने बच्चों के लिए रोज पढ़ने का समय तय करने से पढ़ने की प्रेरणा जन्म ले सकती है."
माता-पिता की गतिविधियों और बच्चों में पढ़ने की ललक के बीच गहरा सम्बन्ध पाया गया है (स्कौलेस्टिक, 2013). उदाहरण के लिए, नियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में 57% के माता-पिता ने अपने बच्चों के पढ़ने के लिए रोजाना अलग से समय निर्धारित किया हुआ है. इसके विपरीत अनियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में सिर्फ 17% के माता-पिता ने ही ऐसी व्यवस्था की है.
जहां तक किताबों का सवाल है, अधिकांश अध्ययन बताते हैं कि पाठ प्रस्तुत करने की विधि की ख़ास प्रासंगिकता नहीं होती. पढ़ने में गहरी रूचि रखने वालों के लिए तकनीक कोई मुद्दा नहीं. ई-रीडर, टेबलेट, लैपटॉप स्क्रीन आदि सभी में लम्बे पाठ पढ़े जा सकते हैं. खरे पाठक के लिए किताब का कागजी रूप में होना बहुत मायने नहीं रखता. सच तो यह है कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने किताब तक पहुंचना और आसान बना दिया है. जोआन गैंज कूनी सेंटर की इस साल की शुरुआत में जारी एक रिपोर्ट कहती है कि 2 से 10 आयुवर्ग के अधिकतर बच्चों के पास पढ़ने की कोई न कोई इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस है: 55% के पास घर पर बहुउपयोगी टेबलेट है और 29% के पास अपना ई-रीडर (62% की इनमें से किसी एक तक पहुंच) है. घर पर इन उपकरणों में से किसी एक को रखने वाले बच्चों में आधे (49%) इलेक्ट्रॉनिक तरीकों से पढ़ते हैं, या अपने या फिर अपने माता-पिता (30%) के उपकरणों से. किताबें मायने रखती हैं मगर बच्चे उन्हें किस तरह पढ़ते हैं, यह नहीं.
मेरे बच्चे आई-पैड, ई-रीडर और कागज़, सभी तरीकों से किताब पढ़ते हैं. मैं यह सुनिश्चित करता हूं कि वे पढ़ें. मैं हर रात अपने बच्चों के लिए पढ़ता हूं. मैं दिन में भी उनके साथ पढ़ता हूं. मैं यह इसलिए करता हूं क्योंकि मैं इसे उनकी शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग समझता हूं. मैं अपने बच्चों की परवरिश को यूं ही किसी विशेषज्ञ को आउटसोर्स नहीं कर सकता. और फिर यह रोना नहीं रो सकता कि ये टीचर नाकामयाब हैं. मेरे लिए यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि बच्चों की पढ़ाई में माता-पिता की भूमिका ज़रूरी है. उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके बच्चे किताबें पढ़ लेते हैं.
बेशक किताब बनाम डिजिटल जैसी खबरें गढ़ना बहुत आसान है. इससे हमें अपने बच्चों के साथ जुटने से बचने का बहाना मिल जाता है. हम खुद को दोष देने के बजाय वीडिओ गेम्स या ऐप्स को कोसने लगते हैं. बच्चों को विवेकवान, संवेदनशील और खुले दिमाग वाले वयस्क के रूप में तैयार करने की ज़िम्मेदारी माता-पिता को लेनी होती है. किताबें शिक्षा का अहम् हिस्सा हैं. लेकिन अगर हम अपने जीवन से सारे के सारे डिजिटल उपकरण हटा दें तो भी बच्चे किताबें नहीं पढ़ेंगे, जब तक कि हम उन्हें यह अहसास न करा दें कि वयस्क बनने के लिए किताबें पढ़ना कितना ज़रूरी है.
अपने बच्चों को पढ़ने के लिए शिक्षित करें. और उन्हें शिक्षित करें कि जो कुछ वे पढ़ते हैं उससे फर्क पड़ता है. रेनेसां लर्निंग की वार्षिक रिपोर्ट "बच्चे क्या पढ़ रहे हैं" विस्तार से बताती है कि बच्चे आजकल क्या-क्या पढ़ रहे हैं और उनमें सबकुछ अच्छा नहीं है. यह भारी-भरकम अध्ययन किताबों की बिक्री या लाइब्रेरी के आंकड़े पेश नहीं करता. यह अमेरिका के 98 लाख छात्रों द्वारा पढ़ी गयी 31.8 करोड़ किताबों के आंकड़ों का अध्ययन है ताकि यह पता लगाया जा सके कि साल में कौन सी किताबें बच्चों के बीच सबसे लोकप्रिय रहीं. यह अमेरिका की सबसे विस्तृत रिपोर्ट है जो कक्षा 12 तक के बच्चों की पढ़ने की आदतों का खुलासा करती है.
तीन दिलचस्प निष्कर्ष:
1. लैंगिक रुझान की पढ़ाई पहली कक्षा से ही शुरू हो जाती है. बुनियादी कक्षाओं के लड़के "कैप्टन अंडरपेंट्स" के ढेर के ढेर पढ़ जाते हैं लेकिन ये किताबें लड़कियों की पसंद की शीर्ष 20 में भी जगह नहीं बना पातीं. हमें इन आंकड़ों के आधार पर यह समझाया जाता है कि लड़के और लड़कियों की प्राथमिकताएं, रुचियां और रुझान अलग-अलग तरह का होता है. मैं इस बात पर यकीन नहीं करता. इसके विपरीत हम इन आकड़ों को इस बात के सबूत के तौर पर भी ले सकते हैं कि हम लैंगिक आधार पर बांटी गई ऐसी दुनिया बनाते जा रहे हैं जहां भूमिकाएं व बौद्धिक अपेक्षाएं जैविक प्रजनन अंगों के आधार पर विभाजित हैं. अगर आप यही चाहते हैं तो येन केन प्रकारेण इसे जारी रखिये. अगर नहीं, ऐसी किताबों की कमी नहीं जिनमें लैंगिकता नहीं है; अपने बच्चों को जानने दीजिये कि आप इन सब से ऊपर सोच सकते हैं.
2. मिडिल स्कूल (खासकर कक्षा 6 के बच्चे) सबसे ज्यादा पढ़ते हैं. प्रति छात्र पढ़ी गयी औसत शब्द संख्या मिडिल स्कूल के दौरान बढ़ती है मगर हाईस्कूल आते-आते यह फिर से घटने लगती है. मैं इसे इस बात के प्रमाण के तौर पर समझता हूं कि माता-पिता अपने बच्चों को किताबों के बारे में गलत सन्देश दे रहे हैं. हम साक्षरता को भाव देते हैं और छोटे बच्चों के जल्द से जल्द पढ़ना सीख लेने पर खुश होते हैं. लेकिन यही बच्चे जब किशोर हो जाते हैं तब वे सीधे अपने बड़ों की आदतों का अनुसरण करने लगते हैं. अगर बड़े पढ़ते हुए नहीं दिखाई देते तो वे भी न पढ़ने को बड़े होने का गुण मान बैठते हैं.
3. ट्वीलाईट और हंगर गेम्स क्लासिकी साहित्य की तुलना में ज्यादा लोकप्रिय हैं. आजकल शिक्षक शेक्सपियर या डॉन क्विक्जोट की जगह इन किताबों को तरजीह देते हैं. ज्यादातर की दलील होती है कि हर तरह पाठ अच्छा होता है और ये किताबें छात्रों को ज्यादा आकर्षित करती हैं. एक ओर से देखने पर यह सही लगता है. लेकिन दूसरी ओर हमें याद रखना चाहिए कि इन लोकप्रिय किताबों के लिए कथ्य के बजाय बिक्री ज्यादा अहमियत रखती है. वे मूलतः पैसा कमाने के लिए लिखी गयी हैं और मानव परिस्थितियों का साहित्यिक अन्वेषण उनकी प्राथमिकताओं में सबसे आखीर में है. मेरा यह मतलब नहीं कि लोकप्रिय कहानियां बुरी होती हैं, लेकिन इस बात में भी दम है कि ऐसी किताबें अपने युग की आर्थिक, राजनीतिक और ज्ञानशास्त्रीय प्रवृत्तियों के पार नहीं देख पातीं.
और आखिरकार हमारे बच्चे कैसे पढ़ते हैं और क्या पढ़ते हैं, इस बात से किताबों के बारे में बच्चों के बजाय बड़ों के नज़रिए का ज्यादा पता चलता है. आप अपने बच्चों को जैसा देखना चाहते हैं, पहले व्यवहार और तौर-तरीकों से वैसा आदर्श तो पेश कीजिये.
जार्डन सैपाइरो शिक्षक, लेखक और संपादक हैं.
(हिंदी अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)
इस बहाने बहुत अच्छा लेख पढ़ने को मिल गया सर
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