अकल्पनीय
मानवीय रिश्तों की कहानियाँ गढ़ना फिल्म निर्माता महेश भट्ट का शौक है. उनमें
कल्पनाशीलता का पुट होता है, यानी जो नहीं है फिर भी रोचक है. पर हाल में शीना
हत्याकांड की खबर सुनने के बाद वे भी विस्मय में पड़ गए. उनका कहना है, मैं तकरीबन
इसी प्लॉट पर कहानी तैयार कर रहा था. उसका शीर्षक है ‘अब रात गुजरने वाली है.’ अक्सर फिल्मी कहानियां जिंदगी के पीछे
चलती हैं, परंतु
इस मामले में घटनाक्रम कहानी से आगे चल रहा है.
शीना
बोरा केस में आईएनएक्स मीडिया की पूर्व सीईओ इंद्राणी मुखर्जी से जुड़े कई रहस्य एक
के बाद एक सामने आ रहे हैं. यह कहानी ताकत-शोहरत और पैसे से जुड़ी है. पोरी (परी)
बोरा से इंद्राणी मुखर्जी तक का उनका सफर किसी सोप ऑपेरा से कम रोचक नहीं है. किसी
ज़माने में एक मामूली स्कूटी से सफर करने वाली इंद्राणी के पास आज मुंबई, कोलकाता, देहरादून
समेत कई शहरों में अरबों की संपत्ति है. देश के बड़े उद्योगपतियों के साथ उनका
उठना-बैठना रहा है. प्रतिम उर्फ पीटर मुखर्जी के साथ उनके मानवीय और कारोबारी
रिश्तों की जो दास्तान खुल रही है, वह उससे भी ज्यादा विस्मयकारी है.
इंद्राणी
मुखर्जी की कहानी हमारे सांस्कृतिक जीवन में बड़े बदलाव की घोषणा भी कर रही है. यह
सिर्फ संयोग नहीं है कि यह प्रकरण आर्थिक उदारीकरण के बाद विकसित उस संस्कृति से
बाबिस्ता है जिसे ‘पेज थ्री कल्चर’ कहा जाता है. ब्रिटेन में जन्मे पीटर मुखर्जी को वैश्विक मीडिया मुगल
रूपर्ट मर्डोक ने भारत में अपना कारोबार बढ़ाने के लिए चुना. भारत में उस वक्त प्राइवेट
ब्रॉडकास्टिंग नया बढ़ता कारोबार था. पीटर ने भारतीय दर्शकों के लिए ‘कौन बनेगा
करोड़पति’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ जैसे शो पेश किए, जिन्होंने सफलता के झंडे
गाड़े.
पिछले
कुछ दिनों से भारतीय मीडिया जिस तरह से शीना हत्याकांड की कवरेज कर रहा है उससे
लगता है कि हमारे पास सोचने का कोई विषय नहीं बचा. मीडिया पागलों की तरह इस कहानी
की परतें छील रहा है. पर वास्तव में यह मामला किसी एक व्यक्ति या परिवार की कहानी
से ज्यादा हमारे बदलते मूल्यों पर रोशनी डालता है. टीवी प्रोग्राम ‘बिग बॉस’ का नया सीज़न शुरू होने वाला है. उसके
मेहमानों की तलाश शुरू हो गई है. इसके लिए हाउसिंग डॉट कॉम के पूर्व सीईओ राहुल
यादव और गुरमीत राम रहीम से लेकर राधे माँ तक के नाम चल रहे हैं. अभी किसी ने
चर्चा नहीं की है, पर इंद्राणी मुखर्जी का नाम भी चल निकले तो विस्मय नहीं होगा. देश
के उच्च मध्य वर्ग की जीवन शैली, संस्कृति और समाज को ऐसे व्यक्तियों की तलाश है
जो विवादास्पद हों.
इस
मसले की जाँच जारी है, इसलिए उसपर टिप्पणी करना गलत होगा, पर मोटे तौर पर भारत की सांस्कृतिक-सामाजिक
दिशा दिखाई पड़ रही है. जिस समाज से हम परिचित थे, वह यह नहीं है. अभी तक हमें
लगता था कि हमारे सोप ऑपेरा किसी कृत्रिम समाज की कहानी पेश कर रहे हैं. पर लगता
है असली समाज उससे भी आगे निकल गया है. संयोग है कि इस कहानी के मुख्य किरदार सोप
ऑपेरा के धंधे से भी जुड़े रहे हैं. क्या यह किसी नए समाज का आगमन है? या यही हमारा समाज था जिसकी सच्चाई अब
हम देख पा रहे हैं?
पश्चिम
और हमारे समाज में संस्थागत फर्क जरूर था. पूर्वी समाज में भारत से लेकर जापान तक
शामिल हैं. यहाँ परिवार एक महत्वपूर्ण संस्था है. हमारे संस्कार परिवार में रहकर
ही विकसित होते हैं. पश्चिमी समाज में परिवार अपेक्षाकृत छोटे हैं. वहाँ वैवाहिक
रिश्ते बनते और बिगड़ते रहते हैं. पश्चिमी प्रभाव में हमारे यहाँ भी बदलाव आया है,
फिर भी हमें लगता था कि परिवार हमारे समाज की केंद्रीय कड़ी है. परिवार के अलावा
धन और सम्पत्ति के प्रति अनुराग बढ़ने के बावजूद हमारे भीतर एक अनुशासन का भाव था.
पर अचानक हमें अब लग रहा है कि ‘पैसा-पैसा और सिर्फ पैसा’ हमारा नया मंत्र है. ऐसा क्यों हुआ और कैसे?
क्या
यह सांस्कृतिक पराभव आर्थिक रिश्तों में बदलाव की वजह से है? पिछले बीसेक साल में हमने कई बड़े
आर्थिक घोटालों को खुलते हुए देखा है. इधर अचानक बेहद अमीर बनने की चाहत बढ़ी है.
मेहनत और काबिलीयत के बजाय ‘शॉर्टकट’ का चलन बढ़ा है. हमें किसी बात की फिक्र भी नहीं है. आज व्यथित होते
हैं और कल भूल जाते हैं. पिछले बीस साल में हमने तीस से ज्यादा घोटालों का जिक्र
सुना. हमें कितने याद हैं? हवाला, शेयर बाजार, दूरसंचार, टूजी, कॉमनवैल्थ गेम्स, कोयला खान और
पिछले महीने तक व्यापम को लेकर हंगामा खड़ा हुआ और फिर भूल गए. यह विस्मृति लोप
ज्यादा बड़ी बीमारी है.
क्या
हमारी जरूरतें, प्राथमिकताएं और मूल्य बदल गए हैं? समृद्धि केवल धन-सम्पदा का नाम नहीं है. इसका वैचारिक
तत्व होता है. केवल बटुआ भारी होने से काम नहीं चलता. मूल्यों-मर्यादाओं से जुड़े वैचारिक
और सांस्कृतिक तत्वों का लुप्कोत हो जाना खतरनाक है. मूल्य-विहीन नई अमीरी अभी और खौफनाक शक्ल लेगी. इस अमीरी के संरक्षण में हमारी कथित प्राचीनता भी खतरनाक रूप में सामने आ
रही है. धार्मिक गुरुओं के नाम पर दलालों और फिक्सरों की नई जमात खड़ी है. सोशल
नेटवर्किंग आर्थिक अपराधों के चौराहे पर खड़ी है. अपराध, राजनीति, मनोरंजन और खेल के
‘धंधे’ का जबर्दस्त गठजोड़ उभर कर आया है.
महानगरों की छोडिए छोटे कस्बों की संस्कृति बदल गई है.
इंद्राणी
मुखर्जी को मिली व्यावसायिक सफलता ने उनके सामाजिक रुतबे को भी ऊँचा किया. साल
2008 में उन्हें उत्तर भारतीय महासंघ ने ‘उत्तर रत्न’ सम्मान से अलंकृत किया.
नवम्बर 2008 में उन्हें रूपर्ट मर्डोक के स्वामित्व वाले अमेरिका के मशहूर अख़बार वॉल
स्ट्रीट जरनल ने ’50 वीमैन टु वॉच’ की सूची में जगह दी. उनके साथ उस सूची में इंदिरा नूयी और पद्मा
वॉरियर के नाम भी थे. मान लिया वे प्रतिभाशाली हैं, पर क्या वास्तव में उन्हें
सफलता प्रतिभा के सहारे मिली? क्या यह उद्यमी समाज है, जहाँ व्यक्ति अपने कौशल, योग्यता और
नवोन्मेष के सहारे आगे बढ़ता हो?
सवाल
उनके महत्वाकांक्षी होने का नहीं उस व्यवस्था का है, जिसमें महत्वाकांक्षाओं का
रास्ता उद्यम, परिश्रम और गुणवत्ता से होकर नहीं गुजरता. देश और समाज की
सेलिब्रिटी शक्लें बदल गईं हैं. साहित्य, कला, दर्शन, संगीत, संस्कृति नई पैकेजिंग
में है. सब कुछ कारोबार यानी ‘धंधे’ में तब्दील हो चुका है. शीना बोरा मसले से जुड़े मानवीय रिश्तों को
लेकर जो सवाल है, वे वृहत्तर स्तर पर सांस्कृतिक पराभव से जुड़े हैं. इस गलीज
संस्कृति के खतरों के बारे में सोचिए.
प्रभात खबर में प्रकाशित
यह गलीज संस्कृति हमारी मुख्य संस्कृति के समानांतर कमोबेश प्राचीन काल से ही चली आ रही है। मैं कई उदाहरण हमारी पौराणिक कथाओं से उद्धृत कर सकता हूँ।
ReplyDeleteसब कुछ ठीक चल रहा है और जो ठीक नहीं है उसे छुपा कर रखने की सामान्य मानवीय प्रवृत्ति ने ऐसे मामलों को
ज्यादा उजागर नहीं होने दिया है। असामान्य लालच और असीमित ताकत इस संस्कृति के जनक हैं।
मेरा आशय व्यक्तिगत रिश्तों को लेकर नहीं है। मैनें उस नेटवर्किंग और सामाजिक व्यवस्था के बारे में लिखने का प्रयास किया है जो नई अमीरी के साथ विकसित हो रही है। इसमें भावनात्मक रिश्तों के व्यावसायिक दोहन की फिक्र ज्यादा है। साहित्यिक-सांस्कृतिक रचनाओं को सामाजिक समृद्धि का लाभ मिलता रहा है। पश्चिम के पूँजीवाद ने श्रेष्ठ साहित्य, सिनेमा, थिएटर वगैर को बढ़ावा दिया। पर मुझे भारत में जो नजर आ रहा है वह इस लिहाज से भी गलीज लगता है। रिश्तों का छिपकर विकसित होना इंसान की सहज प्रकृति है। हरेक समाज में ऐसा मिलता रहा है। मुझे इंद्राणी मुखर्जी के व्यक्तिगत जीवन के लोकर कुछ नहीं कहना। उसे लेकर मीडिया का चिक्रण इस मामले में अनुचित है। पर जिस बात का जिक्र कम हो रहा है वह है सैकड़ों करोड़ का कारोबार। इन बातों को नीरा राडिया के टेपों से जोड़ें तो इन लोगों के प्रति वितृष्णा पैदा होती है।
Deleteयह गलीज संस्कृति हमारी मुख्य संस्कृति के समानांतर कमोबेश प्राचीन काल से ही चली आ रही है। मैं कई उदाहरण हमारी पौराणिक कथाओं से उद्धृत कर सकता हूँ।
ReplyDeleteसब कुछ ठीक चल रहा है और जो ठीक नहीं है उसे छुपा कर रखने की सामान्य मानवीय प्रवृत्ति ने ऐसे मामलों को
ज्यादा उजागर नहीं होने दिया है। असामान्य लालच और असीमित ताकत इस संस्कृति के जनक हैं।