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Sunday, July 12, 2015

भारत-पाक पहल के किन्तु-परन्तु

नरेंद्र मोदी की मध्य एशिया  और रूस यात्रा के कई पहलू हैं।  पर इन सबके ऊपर भारी है भारत-पाकिस्तान बातचीत फिर से शुरू होने की खबर।  इधर यह खबर आई और उधऱ पाकिस्तान से खबर मिली है कि ज़की-उर-रहमान लखवी की आवाज़ का नमूना देना सम्भव नहीं होगा। यह बात उनके वकील ने कही है कि दुनिया में कहीं भी आवाज़ का नमूना देने की व्यवस्था नहीं है। भारत और पाकिस्तान में भी नहीं। पाकिस्तान सरकार के एक वरिष्ठ अभियोजक का कहना है कि सरकार अब अदालत के उस फैसले के खिलाफ अपील नहीं करेगी, जिसमें कहा गया था कि आवाज का प्रमाण देने का कानून नहीं है। शायद भारत से भी अब कुछ दूसरी किस्म की आवाज़ें उठेंगी। भारत-पाकिस्तान के बीच शब्दों का संग्राम इतनी तेजी से होता है कि बहुत सी समझदारी की बातें हो ही नहीं पातीं। हमारी दरिद्रता के कारणों में एक यह बात भी शामिल है कि हम बेतरह तैश में रहते हैं। बाहतर हो कि दोनों सरकारों को आपस में समझने का मौका दिया जाए। अभी दोनों प्रधानमंत्री अपने देशों में वापस भी नहीं पहुँचे हैं। बहरहाल रिश्ते सुधरने हैं तो इस बयानबाजी से कुछ नहीं होगा। अलबत्ता पिछले एक साल का घटनाक्रम रोचक है। दोनों तरफ की सरकारें जनता, मीडिया और राजनीति के दबाव में रहती हैं। लगता नहीं कि यह दबाव आसानी से कम हो जाएगा।

रूस के उफा शहर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच मुलाकात के बाद दोनों देशों के बीच संवाद फिर से शुरू होने जा रहा है। यह बात आश्वस्तिकारक है, पर इसके तमाम किन्तु-परन्तु भी हैं। यह भी साफ है कि यह फैसला अनायास नहीं हो गया। इसकी पृष्ठभूमि में कई महीने का होमवर्क और अनौपचारिक संवाद है, जो किसी न किसी स्तर पर चल रहा था। लम्बे अरसे बाद दोनों देशों के बीच पहली बार संगठित और नियोजित बातचीत हुई है, जिसका मंच विदेशी जमीन पर था। इसमें रूस और चीन की भूमिका भी थी।

इस बातचीत के समांतर भारत और पाकिस्तान को शंघाई सहयोग संगठन के पूर्णकालिक सदस्य बनाए जाने की घोषणा भी हुई है। यह संगठन एशिया में नए समीकरणों की बुनियाद डालने जा रहा है। इसके पीछे विकसित होता रूस और चीन की नई धुरी को भी देखा जा सकता है। साथ ही नई विश्व अर्थ-व्यवस्था की आहट भी। अमेरिकी नेतृत्व में खड़ी पश्चिमी देशों की आर्थिक-सामरिक व्यवस्था के समांतर चीन के नेतृत्व में एक नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था विकसित हो रही है। यह व्यवस्था अनिवार्य रूप से अमेरिका विरोधी है, ऐसा भी नहीं मान लेना चाहिए।

ब्रिक्स देशों में भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की राजनीतिक व्यवस्था रूस और चीन के मुकाबले पश्चिमी देशों से ज्यादा मेल खाती है। बीसवीं सदी के शीतयुद्ध से दुनिया अब भी भयभीत है। संयोग से एक तरफ यूक्रेन और क्राइमिया और दूसरी तरफ चीन-जापान सीमा विवाद के कारण वैश्विक समीकरणों को लेकर भय का वातावरण है। भारतीय विदेश नीति की परम्परा असंलग्नता की रही है। पर आज से तीस साल पहले के भारत में आने वाले कल के भारत की वैश्विक भूमिका में फर्क है।

भारत आने वाले कुछ वर्षों में दुनिया की तीन सबसे बड़ी ताकतों में एक होगा। शायद वह दुनिया को गुट विहीन बनाने में सबसे बड़ी भूमिका भी निभाएगा। बहरहाल भारतीय विदेश नीति को लेकर इन दिनों संदेह पैदा हो सकता है कि हम अमेरिका के साथ हैं या रूस और चीन के विकसित होती नई धुरी के साथ? इस संदेह के साथ-साथ हमें यह भी देखना है कि दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका क्या होने वाली है और खासतौर से पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते क्या शक्ल लेंगे।

भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का मसला सबसे बड़ा है। उसे लेकर संवाद कायम करने के पहले आतंकवाद का मुद्दा सामने आता है। 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए हमले के पहले दोनों देश अपने मसलों को लेकर सकारात्मक बातचीत की दिशा में बढ़ रहे थे। उस घटना के कारण पिछले सात साल से जो गतिरोध आया है, वह टूटता नजर नहीं आता। उफा में दोनों देशों की बातचीत के बाद उम्मीद जागी है, पर संशय फिर भी कायम हैं। दोनों देशों में बातचीत के रास्ते के समर्थक और विरोधी दोनों हैं। मुम्बई हमला संवाद को विफल करने की कोशिश ही थी, जिसके प्रवर्तक अपने उद्देश्य में सफल हुए थे। इस घटना ने दोनों तरफ के विघ्न-संतोषियों की मुराद पूरी की।

इस टकराव के कारण दक्षिण एशिया दुनिया के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार किया जाता है। इस इलाके की सबसे बड़ी समस्या गुरबत और फटेहाली है। उसे दूर करने की कोशिशें संकीर्ण भावावेशों की शिकार हो गईं हैं। समझदारी की बात करने वालों के ऊपर नासमझ लोग हावी हैं। इस लिहाज से ताजा पहल से उम्मीद की जा सकती है। फिलहाल दोनों पक्ष सभी मुद्दों पर चर्चा के लिए तैयार हो गए हैं। भारत और पाकिस्तान ने मुम्बई आतंकी हमले से संबंधित मुकदमे में तेजी लाने का फैसला किया है।

इस संवाद की शुरुआत भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की दिल्ली में मुलाकात से होगी। दोनों पक्षों ने 15 दिनों के भीतर एक-दूसरे के मछुआरों और उनकी नौकाओं को छोड़ने का फैसला किया है। महत्वपूर्ण फैसला यह भी है कि मुंबई हमले के वॉयस सैंपल एक-दूसरे को मुहैया कराए जाएंगे। ज़की-उर-रहमान लखवी के मामले में एक बड़ा गतिरोध इस वजह से भी है। भारतीय सीमा सुरक्षा बल और पाकिस्तान रेंजर्स के बीच सीमा पर गोलाबारी को लेकर बातचीत होगी।

अगला दक्षेस सम्मेलन पाकिस्तान में होने वाला है, इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शामिल होने की अग्रिम सूचना से लगता है कि तब तक रिश्तों को बेहतर बनाने की दिशा में काफी कदम उठाए जा चुके होंगे। उफा की मुलाकात से पहले रमज़ान का पाक महीना शुरू होने पर पीएम मोदी ने फोन कर नवाज शरीफ को बधाई दी थी और तभी समझ में आने लगा था कि रिश्तों में बदलाव है।

नरेन्द्र मोदी की मध्य एशिया के पाँच देशों और रूस की यात्रा के तीन महत्वपूर्ण पहलू थे। पहला, मध्य एशिया के पांच ‘स्तान’। कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गीजिस्तान, तर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ रिश्तों को बदली स्थितियों में परिभाषित करना। पिछले एक साल में हमने भारतीय विदेश नीति के अमेरिका, जापान, चीन, रूस और दक्षिण एशिया तथा एशिया-प्रशांत पक्षों पर ध्यान दिया। अब मध्य एशिया पर नज़र है। भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं के लिहाज से यह इलाका महत्वपूर्ण है।

दूसरा पहलू था ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन। और तीसरा था शंघाई सहयोग संगठन। इन तीनों बातों के साथ रूस और चीन के साथ हमारे रिश्तों के सूत्र भी छिपे हैं। हमें एक तरफ पश्चिमी देशों के साथ अपने रिश्तों को परिभाषित करना है वहीं चीन और रूस की विकसित होती धुरी को भी ध्यान में रखना है. मध्य एशिया में अपना प्रभाव बनाए रखने में रूस और चीन के बीच भी प्रतियोगिता है।

प्रधानमंत्री मोदी अपने दौरे के चौथे पड़ाव पर तुर्कमेनिस्तान पहुँचे हैं। वे किर्गीजिस्तान और ताजिकिस्तान भी जाएंगे। भारत मध्य एशिया और अफगानिस्तान में अपने आर्थिक हित देख रहा है। तुर्कमेनिस्तान से अफगानिस्तान, पाकिस्तान होते हुए भारत तक 1680 किलोमीटर लम्बी पाइपलाइन (तापी) का निर्माण 2018 तक होना है।

मध्य एशिया में भारत का लक्ष्य इस्लामी स्टेट के बढ़ते प्रभाव को रोकने और आर्थिक सहयोग के आधार खोजने पर केंद्रित है। इस्लामी आतंकवाद बढ़ने से उसके छींटे भारत पर भी पड़ेंगे। इधर अफगानिस्तान में फिर से हिंसा बढ़ी है। तुर्कमेनिस्तान और कजाकिस्तान ऊर्जा स्रोतों से मालामाल हैं। मध्य एशिया में ऊर्जा के बड़े भण्डार हैं। भारत के तैयार माल के लिए यह एक विशाल बाज़ार भी है। अभी तक भारत ने इस इलाके पर उतना ध्यान नहीं दिया, जितना अपेक्षित था. पहली बार वह ’कनेक्ट सेन्ट्रल एशिया’ यानी ’मध्य एशिया से जुड़ो’ की रणनीति बना रहा है। इसके बेहतर परिणाम भी मिलेंगे।

हरिभूमि में प्रकाशित

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