ललित
मोदी प्रकरण ने कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को अपनी राजनीति ताकत
आजमाने का एक मौका दिया है। मोदी को पहली बार इन हालात से गुजरने का मौका मिला है,
इसलिए पहले हफ्ते में कुछ अटपटे प्रसंगों के बाद पार्टी संगठन, सरकार और संघ तीनों
की एकता कायम हो गई है। कांग्रेस के लिए यह मुँह माँगी मुराद थी, जिसका लाभ उसे
तभी मिला माना जाएगा, जब या तो वह राजनीतिक स्तर पर इससे कुछ हासिल करे या संगठन
स्तर पर। उसकी सफलता फिलहाल केवल इतनी बात पर निर्भर करेगी कि वह कितने समय तक इस
प्रकरण से खेलती रहेगी। राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने गुरुवार को
कहा कि अगर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने
अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया तो नरेंद्र मोदी के लिए संसद का सामना करना
‘नामुमकिन’ होगा। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव
सीताराम येचुरी ने भी तकरीबन इसी आशय का वक्तव्य दिया है।
आज
मनाया जा रहा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को देश और विदेश
दोनों जगह एक खास मुकाम पर पहुँचाने वाला है। शायद गिनीज़ बुक में नाम भी दर्ज करा
देगा। पर यौगिक शांति के पीछे एक नई अशांति उनका इंतज़ार कर रही है। मोदी सरकार
पहली बार राजनीतिक अर्दब में आई है। यह उसकी पहली राजनीतिक चुनौती है। अभी सारा
शोर मीडिया में है, पर अगले महीने 20 जुलाई से सम्भावित संसद के वर्षा सत्र में यह
शोर जोरदार तरीके से सुनाई पड़ेगा।
ललित
मोदी प्रकरण के बहाने कांग्रेस पार्टी सीधे नरेंद्र मोदी पर वार करना चाहती है।
कोयला खान मामले में इसी तरह भारतीय जनता पार्टी ने सन 2013 में प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह के इस्तीफे की माँग को लेकर मॉनसून सत्र चलने नहीं दिया था। जिस तरह
सन 2010 से 2014 तक भाजपा ने कांग्रेस को संसद के भीतर और बाहर कांग्रेस को घेरा
था तकरीबन उसी अंदाज़ में कांग्रेस इस बार भाजपा को घेरना चाहती है। देखना यह होगा
कि इस दौरान कांग्रेस अपने क्षरण को किस प्रकार रोकेगी।
बिहार
के चुनाव में कांग्रेस पार्टी महागठबंधन का समर्थन कर रही है, पर क्या वह भाजपा को
पर्याप्त नुकसान पहुंचाने में सफल होगी? यह भी देखना होगा कि इससे कांग्रेस का क्या काम बनेगा? जैसा कि अनुमान था कि अब तक राहुल गांधी पार्टी की कमान
पूरी तरह सम्हाल लेंगे। वैसा अभी हुआ नहीं है। लंदन के एक अख़बार में ललित मोदी
प्रसंग से जुड़ी खबर छपने के बाद पार्टी ने पहले सीधे तौर पर कोई प्रतिक्रिया
व्यक्त नहीं की थी। पर बाद में सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे के पक्ष में पार्टी
पूरी तरह उतर आई है। वह इस प्रकरण की राजनीतिक कीमत देने को तैयार है, इसलिए वह
इससे हर कीमत पर निपटेगी।
अभी तक
प्रधानमंत्री मोदी ने इस मामले पर कुछ नहीं कहा है। सम्भव है कि संसद के सत्र के
दौरान उनपर बयान देने का दबाव पड़े। पर क्या वे इसके पहले ही कुछ बोलेंगे? अनुमान है कि इस घटनाक्रम की पेशबंदी में सरकार संसद के मॉनसून
सत्र का समय घटाने पर विचार कर रही है। सत्र छोटा होगा तो कांग्रेस को विरोध
व्यक्त करने का मौका कम मिलेगा। इस मामले में अंतिम निर्णय संसदीय मामलों की
कैबिनेट कमेटी करेगी, जिसकी बैठक अगले हफ्ते हो सकती है।
राजनीतिक
धरातल पर कांग्रेस और माकपा के रुख के विपरीत विपक्ष के दूसरे दल अभी इस मामले को
उठाने को ज्यादा उत्सुक दिखाई नहीं पड़ते हैं। बिहार में महागठबंधन की घोषणा होने
और उसमें कांग्रेस की बड़ी भूमिका होने के बावजूद समाजवादी पार्टी और राष्ट्रवादी
कांग्रेस पार्टी ने सुषमा के प्रति हमदर्दी जताई है। लालू यादव तक ने सुषमा से
हमदर्दी जताई है। बीजू जनता दल, अन्ना द्रमुक और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस
ने भी कांग्रेस के आक्रामक रुख को लेकर दिलचस्पी नहीं दिखाई है। तब कांग्रेस को
अपने इस अभियान से बड़ी उम्मीद क्यों है?
क्या
राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस इसे
लेकर संसद में इतना बड़ा बवंडर खड़ा कर पाएगी सरकार हिल जाए? मीडिया में प्रकाशित जानकारी के अनुसार अन्य दलों का साथ
नहीं मिलने पर कांग्रेस संसद में अकेले आवाज बुलंद करेगी। राज्यसभा में उसके 68 सदस्य सरकार के लिए परेशानी खड़ी करेंगे। यों उसे उम्मीद है
कि वामदलों के दस सदस्यों का समर्थन भी उसे मिलेगा। जब भाजपा विपक्ष में थी, उसने कम सदस्य होने के बावजूद सदन में रोजाना हंगामा खड़ा
किया था।
संसद के
मॉनसून सत्र से सरकार की कई उम्मीदें जुड़ी हैं। सरकार को उम्मीद है कि वह कई
विधेयकों को पास कराने में कामयाब होगी। इसके लिए कांग्रेस और माकपा को छोड़ अन्य
विपक्षी दलों के साथ सम्पर्क बनाने में उसने काफी हद तक कामयाबी हासिल की है। भूमि
अधिग्रहण और जीएसटी के दो विधेयक ऐसे हैं, जिनके साथ सरकार की प्रतिष्ठा जुड़ी है।
जीएसटी विधेयक लोकसभा से पास हो चुका है और राज्यसभा में अटका है। एक संसदीय
स्थायी समिति इसपर विचार कर ही है, जिसकी रिपोर्ट जुलाई के दूसरे सप्ताह तक मिलने
की आशा है। सरकार को आशा थी कि राज्यसभा से इस विधेयक को पास कराने में उसे
कांग्रेस का सहयोग मिलेगा, पर ललित मोदी प्रकरण के बाद इस मामले में कई सवालिया
निशान लग गए हैं।
भूमि
अधिग्रहण विधेयक भी सरकार के गले की फाँस बना हुआ है। यह विधेयक संसद की एक
संयुक्त समिति के पास है, जिसे वर्षा सत्र के पहले रोज ही अपनी रिपोर्ट संसद को
देनी है। यह विधेयक राजनीतिक टकराव की सबसे बड़ी भूमिका तैयार कर रहा था, पर
कांग्रेस को संसद के बाहर एक और बेहतर मौका मिल गया है। यदि सरकार संसद का सत्र
छोटा करने का प्रयास करेगी तो क्या वह इसके कारण उसे इन महत्वपूर्ण विधेयकों का
त्याग करेगी? ऐसा करना भी आत्मघाती होगा।
भारतीय
जनता पार्टी को कांग्रेस और वाममोर्चे के प्रहारों का मुकाबला करने के साथ-साथ
अपने खेमे को भी सुरक्षित रखना होगा। ललित मोदी प्रकरण पर सांसद कीर्ति आज़ाद के
ट्वीट के कारण तोड़ी देर के लिए बदमज़गी पैदा हुई थी। शुरू में लगा कि अरुण जेटली
इस मामले में सुषमा की मदद करने के लिए सामने नहीं आए हैं। पर जेटली के मोर्चा
सम्हालने के बाद पार्टी की एकता पर आसन्न खतरा टल गया। इधर लालकृष्ण आडवाणी के
इमर्जेंसी से जुड़े बयान को लेकर कयास लगाए गए। आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द
केजरीवाल ने तो आडवाणी से मुलाकात की तैयारी भी कर ली। अंततः उसमें कुछ हुआ नहीं।
फिलहाल संघ, संगठन और सरकार तीनों एकसाथ दिखाई पड़ते हैं।
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