इस
साल मॉनसून के देर से आने का अंदेशा है. बारिश कम हुई या असंतुलित हुई तो
खेती-बाड़ी से जुड़े लोगों के सामने संकट पैदा हो जाएगा और अकाल के कारण पूरी
अर्थ-व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा. यह खतरा सिर्फ भारत के सिर पर नहीं है,
बल्कि पूरे दक्षिण एशिया पर है. खासतौर से भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और
अफगानिस्तान इसके शिकार होंगे. हम आतंकवाद को बड़ा खतरा समझते हैं और एक हद तक वह
है भी. पर हमारे सामने खतरे दूसरे भी हैं. आतंकवाद और कट्टरपंथ भी अशिक्षा, नासमझी
और गरीबी की देन है. इस किस्म के अनेक खतरे हम सब के सामने हैं. पर्यावरण और
प्राकृतिक आपदाएं राजनीतिक सीमाओं को नहीं देखतीं. इन आपदाओं के बरक्स हमारे पास
ऐसे अनुभव भी हैं जब इंसान ने सामूहिक प्रयास से इन पर काबू पाया. पिछले साल भारत
के पूर्वी तट पर आए फाइलिन तूफान के कारण भारी नुकसान का अंदेशा था, पर मौसम
विज्ञानियों को अंतरिक्ष में घूम रहे उपग्रहों की मदद से सही समय पर सूचना मिली और
आबादी को सागर तट से हटा लिया गया. 1999 के ऐसे ही एक तूफान में 10 हजार से ज्यादा
लोग मरे थे. अंतरिक्ष की तकनीक के साथ जुड़ी अनेक तकनीकों का इस्तेमाल चिकित्सा, परिवहन, संचार
यहाँ तक कि सुरक्षा में होता. विज्ञान की खोज की सीढ़ियाँ हैं. पर क्या हम इन
सीढ़ियों पर चलना चाहते हैं?
पिछले
साल संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का मानव विकास प्रतिवेदन विश्व के दक्षिण
गोलार्ध्द के देशों की पिछले दो दशकों में मानव विकास की उपलब्धियों एवं चुनौतियों
पर केन्द्रित था. इसमें विश्व के ऐसे 40 विकासशील देशों की पहचान करके विश्लेषण
किया गया है जिन्होंने विविध पृष्ठभूमि में चुनौतियों के बावजूद मानव विकास की
दिशा में आश्चर्यजनक उपलब्धियां हासिल करने में सफलता पाईं. पिछले एक दशक में कुल
जीडीपी की दृष्टि से अमेरिका के बाद चीन करोड़ों व्यक्तियों को गरीबी से बाहर लाने
के साथ विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है. चीन के अलावा भारत एवं
ब्राजील में भी गरीबी के अनुपात में उल्लेखनीय कमी आई है. रिपोर्ट के अनुसार
सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में से एक लक्ष्य गरीब आबादी को 50 प्रतिशत कम करने का
लक्ष्य निश्चित समय से तीन वर्ष पहले ही पूरा कर लिया गया, इसका मुख्य कारण बड़ी आबादीवाले इन देशों में
अति-गरीबी के उन्मूलन में मिली सफलता है. गरीबी का उन्मूलन करने के लिए आर्थिक
विकास अनिवार्य है, पर विकास का मतलब पूँजी का विद्रूप भी नहीं. यह नए समय का
मंत्र है.
सफलता
के इस उजले पहलू के विपरीत मानव विकास के मानदंडों पर पूरा दक्षिण एशिया पिछड़ा हुआ
है. खासतौर से भारत में आर्थिक विकास की दर बढ़ने से सरकार के पास सामाजिक कल्याण
के साधन बढ़े हैं, पर शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पेयजल जैसी सुविधाओं में हम दुनिया
में सबसे पीछे हैं. वयस्क साक्षरता, बाल मृत्यु दर, कुपोषण और स्त्रियों के
स्वास्थ्य के मामले में दक्षिण एशिया का औसत विकासशील देशों के औसत से कम है. फिर
भी बड़ा देश होने के नाते भारत विज्ञान और तकनीक में अपने पड़ोसी देशों के मुकाबले
बेहतर स्थिति में है. वह इसका लाभ पड़ोसी देशों को दे सकता है. दुनिया में सबसे
तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों की सूची में शुमार होने के बावजूद मूलभूत
मानवीय आवश्यकताओं, संपन्न्ता की बुनियादों और प्रगति के
अवसरों के आधार पर तैयार सामाजिक प्रगति सूचकांक में हमारा देश ब्रिक्स देशों
(ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में सबसे नीचे है, जबकि दक्षिण एशिया में सिर्फ पाकिस्तान की
स्थिति उससे खराब है. कई मामलों में अफगानिस्तान भी हमसे बेहतर है.
इन
बातों का हाल की भारतीय राजनीति से रिश्ता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने
शपथ समारोह को दक्षेस शिखर सम्मेलन के रूप में तब्दील करके जो अभिनव प्रयोग किया उसपर
हमें ध्यान देना चाहिए. इस समारोह में जिन आठ देशों ने भाग लिया वे लोकतांत्रिक
व्यवस्था के प्रतिनिधि हैं. संयोग से इनमें मॉरिशस के प्रधानमंत्री भी शामिल थे.
मॉरिशस दक्षेस का सदस्य तो नहीं है, पर भारत का विशेष मित्र है और इस इलाके की
सुख-समृद्धि का भागीदार है. दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन अनेक कारणों से
अपने उद्देश्यों में पिछड़ गया है और सम्भवतः यह अकेला सहयोग संगठन है, जो
राजनीतिक कारणों से अपने लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पा रहा है. इस इलाके की राजनीति
चाहेगी तो वह गतिरोध को तोड़कर इस इलाके को प्रगति की राह पर ले जा सकती है. शपथ
ग्रहण समारोह एक मेले की तरह गुज़र गया. अलबत्ता नरेंद्र मोदी की इस बात ने ध्यान
खींचा कि इस इलाके के सभी देशों के पास कोई न कोई सामर्थ्य है जो उन्हें अपनी
परेशानियों के पार ले जा सकती है. इलाके के दूसरे देश एक-दूसरे को सहारा दें तो
पूरा इलाका बदहाली के बाहर आ सकता है.
नवम्बर
2011 में मालदीव में हुए शिखर सम्मेलन के बाद इस साल काठमांडू में दक्षेस शिखर
सम्मेलन होने वाला है. सम्भव है कि इस वजह से मोदी जी की प्रधानमंत्री के रूप में
पहली विदेश यात्रा काठमांडू की हो और जो दक्षिण एशिया के आर्थिक-सामाजिक विकास पर
केंद्रित हो. अपने चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी लगातार कहते रहे कि हम केवल
गवर्नेंस और विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे हैं. और अपने शपथ ग्रहण समारोह को
ही उन्होंने विकास का मंच बनाकर एक सकारात्मक किया है. उनका उद्देश्य केवल आपसी
रिश्तों को सुधारना नहीं है, बल्कि हरेक देश की सामर्थ्य का लाभ उठाकर सबका विकास
करना है.
भारत
इस इलाके की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. उसकी जिम्मेदारी बनती है कि यहाँ का
नेतृत्व वह सम्हाले. इस इलाके की सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी है. सुरक्षा का मतलब
एक-दूसरे देश के साथ झगड़ने का नाम नहीं है. सुरक्षा एक माहौल का नाम है. हिंद
महासागर में लगातार समुद्री डाकुओं की गतिविधियाँ बढ़ रहीं है. दूसरी ओर यहाँ का
जलमार्ग दुनिया के व्यस्ततम जलमार्गों में शामिल हो रहा है. इस मार्ग को निर्बाध
बनाने की जिम्मेदारी हमारी है. पिछले कुछ वर्षों से हमारे इस इलाके के देशों के
साथ रिश्ते तल्ख़ हो रहे थे. मोदी सरकार इसपर विराम लगा सके तो यह उनकी सबसे बड़ी
उपलब्धि होगी.
दक्षेस
के बहुत कारगर न हो पाने की सबसे बड़ी वजह है भारत-पाकिस्तान रिश्तों की तल्खी. इस
शपथ समारोह में सबसे महत्वपूर्ण थी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की
यात्रा. दक्षिण एशिया के विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा भारत-पाकिस्तान के
रिश्तों की कड़वाहट के रूप में आड़े आती है. दशकों से चल रही राजनीतिक अस्थिरता का
असर हमारे विकास और अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर पड़ा है. बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और मालदीव तक में भारत विरोधी लॉबी सक्रिय
रहती है. हमने अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन और जापान तक से रिश्ते सुधारे हैं. अब
हमें अपने इलाके में रिश्तों को सुधारना चाहिए. इस जड़ता को तोड़ने की कोशिश नब्बे
के दशक में इंद्र कुमार गुजराल ने की थी, जिसे हम ‘गुजराल
डॉक्ट्रिन’ कहते हैं. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी
ने इसे बढ़ाने की कोशिश की थी, पर दुर्भाग्य से अंतररष्ट्रीय घटनाक्रम कुछ इस
प्रकार घूमा कि दक्षिण एशिया की गाड़ी अपनी जगह अटकी रह गई. बेशक कड़वाहट के अनेक
कारण हैं, पर इन देशों के राजनेताओं की जिम्मेदारी है कि वे सर्वानुमतियाँ तैयार
करें ताकि इस इलाके में आर्थिक प्रगति का पहिया आगे बढ़े. साथ ही हम अपने सामने
खड़ी चुनौतियाँ का एक साथ मिलकर सामना करें.
प्रभात खबर पॉलिटिक्स में प्रकाशित
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