असम के बोडोलैंड टैरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट (बीटीएडी)
में तकरीबन दो साल बाद फिर से हिंसा का तांडव होने के बाद हमारे मीडिया ने सहज भाव
से इसे हिंदू-मुस्लिम समस्या की शक्ल दी है और कांग्रेस पार्टी ने देरी किए बगैर
इसके पीछे नरेंद्र मोदी के बयानों को जिम्मेदार ठहराया है. पर यह पूरा सच नहीं है.
चुनाव के कारण इसे हम देश की राजनीति से अलग करके देख नहीं पा रहे हैं. असम की
कांग्रेस सरकार ने अपनी बचत के लिए इस हिंसा का आरोप नेशनल डेमोक्रैटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के
उग्रवादियों के एक ग्रुप (सोंगजिबित) पर लगाया है. पर एनडीएफबी का कहना है कि
इसमें हमारा हाथ नहीं है. कांग्रेस का बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के साथ गठबंधन
है. इस ग्रुप का एक मंत्री भी गोगोई सरकार में है. हाल की हिंसा के पीछे इसी ग्रुप
का हाथ बताया जाता है. माना जा रहा है कि चुनाव में वोट न डालने की सजा गैर-बोडो
लोगों को दी गई है, जो मूलतः बांग्ला या हिंदी भाषी और मुसलमान हैं. ये सब
बांग्लादेशी नहीं हैं. अंदेशा है कि इस बार कोंकराझार इलाके से किसी गैर-बोडो
प्रत्याशी की जीत होने वाली है.
चूंकि राज्य में कांग्रेस सरकार है इसलिए केंद्र सरकार उसकी
आलोचना भी नहीं कर सकती. पर इस मसले का पहला दोष राज्य सरकार का ही है, जिसे
स्थिति की गम्भीरता का भान होना चाहिए. सन 2012 की हिंसा की अनदेखी भी इसी तरह की
गई थी. देश के एक इलाके की घटना का असर दूसरे इलाके पर किस तरह पड़ता है, यह भी देखा
जाना चाहिए. बोडो लोग एक अरसे से पूर्ण राज्य की माँग करते रहे हैं. पर बोडोलैंड
कौंसिल बन जाने के बाद वह माँग पीछे चली गई थी. इस साल तेलंगाना का फैसला होने के
बाद इस माँग ने फिर से सिर उठाना शुरू कर दिया है.
कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना है कि घटना के
तीन रोज़ पहले नरेंद्र मोदी ने कहा था कि इस इलाके से बांग्लादेशियों को खदेड़ा
जाएगा. इस आरोप में तथ्यात्मक दोष है. यह सही है कि मोदी बांग्लादेश के घुसपैठियों
को लेकर उत्तेजक बयान देते रहे हैं, पर उन्होंने तीन दिन पहले ऐसी कोई बात नहीं
कही थी. वे असम में 19 अप्रेल को आए थे. असम में 24 अप्रेल को चुनाव पूरे हो गए.
क्या कारण है कि मोदी की बात का असर होने में दो हफ्ते लगे वह भी मतदन के एक हफ्ते
बाद?
बांग्लादेश से घुसपैठ और वहाँ से लोगों का अवैध आवागमन
भाजपा की दिलचस्पी का विषय रहा है, पर बोडो समस्या आज की नहीं है. असम के चुनाव
में बोडो ग्रुप महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं और विधानसभा के पिछले चुनाव के
पहले तरुण गोगोई की सरकार ने इन समूहों के साथ रिश्ते कायम कर लिए थे.
बोडो अपनी पहचान अलग रखते हैं. उनका पहनावा अलग है और उनके
पास एक समृद्ध संस्कृति है. अपनी अलग पहचान के लिए वे शुरू से जागरूक हैं और
अंग्रेजी शासन के दौरान भी वे अपने एक अलग प्रशासनिक तंत्र की माँग करते रहे
हैं. एक प्रकार से वे असम के मूल निवासी
हैं और भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में वे मैदानी जनजाति के रूप में दर्ज हैं.
शेष असम से वे अपने को अलग मानते हैं. उन्होंने देवनागरी को अपनी लिपि के रूप में
अपनाया है. उनमें जनजातीय प्रागैतिहासिक धार्मिक परम्पराएं हैं, जो उन्हें हिंदू
धर्म से भी अलग करती हैं. उनमें ईसाई भी हैं.
सौ-डेढ़ सौ साल पहले असम के चाय बागानों व अन्य कामों के
लिए अंग्रेज बंगाल से मजदूर ले गए थे. बंगाल के भूमिहीन मजदूरों में मुसलमानों की संख्या
बड़ी थी. मुसलमान मजदूर ही ज्यादातर वहां
आए. सन् 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय लाखों हिंदू-मुस्लिम शरणार्थी भारत आए.
उनमें से काफी लोग बाद में वापस चले गए. कुछ यहीं बस गए. अस्सी के दशक में सरकार
ने इन लोगों को बसने का हक भी दे दिया.
बोडो लोग एक अरसे तक अपने लिए ‘उदयाचल’ नाम से अलग केंद्र शासित क्षेत्र
की माँग करते रहे थे. यही आंदोलन अलग राज्य बोडोलैंड के रूप में विकसित हुआ. 1993 में
केंद्र सरकार ने बोडो लोगों की अलग राज्य की माँग को इस आधार पर खारिज कर दिया था
कि वे जिसे अपना क्षेत्र बताकर अलग राज्य का गठन किए जाने की मांग कर रहे थे, वहाँ भी वे अल्पमत में ही थे. अलबत्ता बोडो ऑटोनॉमस कौंसिल बनाने का फैसला
किया गया ताकि बोडो लोगों को अपनी इच्छा से काम करने का मौका मिले. तकरीबन एक दशक
के आंदोलन के बाद 10 फरवरी 2003 को बोडोलैंड टैरीटोरियल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट का
गठन किया गया.
बीटीएडी असम के चार जिलों में फैला हुआ है. कोकराझार, बक्सा,
चिरांग और उदलगिरी जिले ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी तट पर
स्थित हैं. इस इलाके की आबादी में एक तिहाई बोडो हैं। यानी बहुमत गैर बोडो लोगों
का है. बोडो के अलावा यहाँ आदिवासी और मुसलमान भी हैं. बीटीएडी का नियंत्रण जिस
बोडोलैंड टैरीटोरियल कौंसिल के हाथों में है उसमें फिर भी बोडो लोगों का बोलबाला
है. यह कौंसिल इस उद्देश्य से बनी थी कि आने वाले वर्षों में यह बोडो लोगों के
आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए कार्य करेगी और बोडो भाषा, नस्ल और संस्कृति की
पहचान को मिटने से रोकेगी.
बोडो लोगों के अनुसार कौंसिल के नियम घुसपैठी बांग्लादेशियों के भूमि
अधिग्रहण में मददगार सिद्ध हो रहे हैं. बीटीसी के गठन के बाद कुछ सशस्त्र संगठनों
ने हथियार डाल दिए थे. पर कुछ के पास अब भी हथियार हैं. हिंसा में अक्सर उनका
इस्तेमाल होता है. सरकार हथियारों को जब्त करने में विफल साबित हो रही है.
जुलाई अगस्त 2012 में बोडो और गैर-बोडो संघर्ष में तकरीबन
100 लोगों की मौत हुई थी और करीब चार लाख लोग बेघर हो गए थे. सोशल मीडिया में
अतिरंजित कहानियों और तस्वीरों के प्रकाशन के बाद देश के दूसरे इलाकों में पूर्वोत्तर
के लोगों के खिलाफ हिंसा हुई थी. बड़ी संख्या में उन्हें घर लौटना पड़ा था. रजा
अकादमी जैसे गुटों ने,
असम में मुसलमानों पर हमले होने का मुद्दा उछालकर, मुंबई में विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया, जिसमें पुलिस से
हिंसक झड़पें हुईं.
संयोग से उन्हीं दिनों म्यामांर में भी इसी किस्म के
साम्प्रदायिक हत्याकांड हुए थे. स्वाभाविक है कि भारतीय जनता पार्टी इसका राजनीतिक
लाभ लेती है. पर इसका मौका कौन देता है? देश का
पूर्वोत्तर संवेदनशील क्षेत्र है, जो चीन, म्यांमार और बांग्लादेश की सीमाओं से जुड़ता है. यहाँ के पाँच राज्यों में 40 से
ज्यादा अलगाववादी संगठन सक्रिय हैं. पिछले पांच साल में 2000 से ज्यादा लोग यहाँ
हिंसा के शिकार हो चुके हैं. मोटे तौर पर यह समस्या इलाके के विकास में कमी और
नौजवानों के लिए रोजगार के अवसरों में कमी के कारण पैदा हुई है. इसे राजनीति का
खेलघर बनाना खतरनाक होगा.
No comments:
Post a Comment