नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री बनें या न बनें, पर ‘रोको-रोको’ का आर्तनाद बढ़ता जा रहा
है। नया जुम्ला है ‘किसी भी कीमत पर रोको।’ मोदी को खिलाफ चलते-चलाते
गुजरात पुलिस में आपराधिक मुकदमा दर्ज हुआ। तकरीबन छह महीने तक ठंडे बस्ते में
डालने के बाद अब सरकार जाते-जाते 16 मई के पहले स्नूप गेट पर जाँच आयोग बैठाने जा
रही है। क्या चुनाव आयोग को अब इसकी अनुमति देनी चाहिए? कांग्रेस को इस कदम से
क्या हासिल होने वाला है? और बीजेपी को क्या
नुकसान होने वाला है? हाल में मुलायम सिंह ने जानकारी दी कि भाजपा में मोदी के
खिलाफ बड़ी बगावत होने वाली है। भाजपा में क्या केवल मोदी साम्प्रदायिक हैं, शेष
पार्टी स्वच्छ है? मोदी के इस अतिशय विरोध ने ही क्या मोदी को ताकतवर नहीं बनाया है? दूसरी ओर मोदी-विरोध का
मोर्चा आम आदमी पार्टी ने सम्हाल लिया है। क्या कांग्रेस को इसका नुकसान होगा? कांग्रेस पार्टी और
नेहरू गांधी परिवार की ओर से प्रियंका गांधी ने बयानों की बौछार करके एक और सवाल
उछाला है। क्या राहुल की जगह प्रियंका लेने वाली हैं? क्या पार्टी के संगठन
में बदलाव होगा? पार्टी का प्लान ‘बी’ क्या है? तीसरे मोर्चे वालों के साथ क्या चल रहा है वगैरह-वगैरह। अहमद पटेल ने कहा, तीसरे मोर्चे को समर्थन देंगे। अब राहुल ने कहा है कि समर्थन नहीं देंगे। हमारे पास नम्बर आने वाले हैं। कांग्रेस को जीत का विश्वास है तो मोदी को रोकने की हड़बड़ी क्यों है?
नरेंद्र मोदी को
लेकर ही नहीं चुनाव व्यवस्था, चुनाव आयोग की भूमिका और निजी जीवन को लेकर
कीचड़-उछाल राजनीति के लिए यह चुनाव याद रखा जाएगा। 30 अप्रेल को गांधी नगर में
वोट डालने के बाद मोदी का कमल के निशान के साथ ‘सेल्फी’ लेना क्या चुनाव प्रचार था? क्या चुनाव आयोग यूपीए
सरकार के दबाव में है? क्या इसके पीछे कांग्रेस के उन्हीं वकील नेताओं की अक्ल
है, जिनके कारण अन्ना आंदोलन कांग्रेस सरकार के गले की हड्डी बन गया?
चुनाव के सातवें
दौर में गांधीनगर क्षेत्र में वोट डालने के बाद नरेंद्र मोदी बाहर निकले तो मीडिया
के कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया। इस दौरान उन्होंने कुछ बातें कहीं और कमल के
निशान के साथ अपनी सेल्फी ली। शुरू में यह साधारण सी बात लग रही थी, पर कांग्रेस
ने तूल दिया कि शाम होते-होते यह विवाद का विषय गई। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने
मोदी की गिरफ्तारी की माँग भी कर दी। चुनाव आयोग ने पहली नजर में इसे जन
प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 126(1)(क) और 126(1)(ख) का उल्लंघन माना है और
गुजरात पुलिस को एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया। एफआईआर दर्ज भी हो गई। इसकी
जाँच अब पुलिस करेगी।
प्राथमिक जाँच के
बाद पुलिस सूत्रों ने कहा है कि मोदी ने चुनाव आयोग के किसी नियम का उल्लंघन नहीं
किया है। वे चुनाव आयोग द्वारा रेखांकित दायरे के बाहर थे और ऐसा कोई प्रमाण नहीं
जिससे माना जाए कि उन्होंने संवाददाताओं को पहले से कोई निमंत्रण दिया था। पुलिस
की इस शुरूआती जाँच को क्लीन चिट नहीं माना जा सकता, पर कपिल सिब्बल की तात्कालिक
प्रतिक्रिया से लगता है कि कांग्रेस अब गुजरात पुलिस को निशाना बनाएगी।
केंद्र सरकार ने
यह साफ कर दिया है कि नरेंद्र मोदी की सरकार पर एक महिला की गैरकानूनी जासूसी
(स्नूपगेट) के आरोप की जाँच के लिए एक जज की नियुक्ति की जा रही है। शुक्रवार को
कपिल सिब्बल ने कहा कि 16 मई के पहले हम जज की नियुक्ति कर देंगे। इसके पहले
गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी इस बात की पुष्टि की थी। उन्होंने कहा, हमें नहीं लगता कि
स्नूपगेट की जाँच के लिए आयोग नियुक्त करने पर चुनाव आयोग को आपत्ति होगी। चुनावी
आचार संहिता लागू होने से काफी पहले जांच आयोग बनाने का ऐलान हुआ था। जज की
नियुक्ति अब की जा सकती है। इस पर कैबिनेट मीटिंग या तो इस हफ्ते या अगले हफ्ते हो
सकती है।
भाजपा नेता अरुण
जेटली ने मोदी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने को चुनाव आयोग का जल्दबाज़ी में किया गया फैसला बताया
है। पार्टी की प्रतिक्रिया से लगता है कि वह मानती है कि आयोग सरकारी दबाव में है।
हाल में अमर्त्य सेन ने वोट डालने के बाद संवाददाताओं से कहा था कि मोदी का जीतकर
आना गलत होगा। उसके पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गुवाहाटी में वोट डालने के
बाद कहा था कि कोई मोदी लहर नहीं है, सब मीडिया का किया-कराया है। क्या वह प्रचार
नहीं था?
उत्तर प्रदेश में
अमित शाह और आजम खां दोनों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के निर्देश थे। लगता नहीं कि
उत्तर प्रदेश सरकार ने आजम के खिलाफ पुलिस में रपट दर्ज की है। आजम खां चुनाव आयोग
के खिलाफ खासे आक्रामक हैं। हाल में उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग खुद को सियासत का
खुदा न समझे। जो भी चाहे कर ले, कोई कसर न छोड़े, मेरी विधानसभा की सदस्यता रद्द कर दे, लेकिन मुझे उसकी दया नहीं चाहिए। उन्होंने आरोप लगाया कि बेनी
प्रसाद वर्मा, अजित सिंह , लालू प्रसाद यादव व ममता बनर्जी ने बहुत कुछ बोला है। आयोग
ने हमें जो नोटिस दिया था, हमने समय रहते जवाब दिया, लेकिन उस पर गौर किए बगैर हमारा नाम और मजहब देखकर हमें सजा
सुना दी।
चुनाव आयोग संवैधानिक
संस्था है, उसे विवादास्पद बनाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। साथ ही कुछ व्यावहारिक
बातों पर विचार भी होना चाहिए। खासतौर से प्रचार को लेकर। अब जब चौबीस घंटे खबरें
देने वाले चैनल सक्रिय हैं, तब प्रचार की परिभाषा क्या वही रहेगी, जो 1951 में थी? डेढ़-दो महीने तक देशभर में चलने वाली चुनाव
प्रक्रिया में अब स्थानीय और बाहरी प्रचार का मतलब क्या है? जिस दिन किसी इलाके में वोट पड़ते हैं उस दिन
भी चैनलों पर पार्टियों के विज्ञापन आते हैं। सुबह के अखबारों में एक-एक दो-दो
पेजों के प्रचारात्मक विज्ञापन होते हैं। दिन भर फेसबुक, ट्विटर और तमाम सोशल
मीडिया पर चुनाव से जुड़ी सामग्री भरी रहती है। फोन पर टेक्स्ट मैसेज आते हैं।
इन्हें कानून से रोका जाना भी सम्भव नहीं है। वास्तव में हरेक पार्टी मीडिया के
बदलते स्वरूप का फायदा उठाना चाहती है। चुनावी शोर का यह अंतिम दौर बता रहा है कि
आगे जो भी हो, फिलहाल ये अच्छे दिन नहीं हैं।
हरिभूमि में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment