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Friday, May 30, 2014

हिंदी पत्रकारिता की साख बचाने का सवाल

188 साल की हिंदी पत्रकारिता का खोया-पाया, बता रहे हैं प्रमोद जोशी

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी से जुड़े मसले, पत्रकारिता से जुड़े सवाल और हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियां किसी एक मोड़ पर जाकर मिलती हैं। कई प्रकार के अंतर्विरोधों ने हमें घेरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह कारोबार जिस लिहाज से बढ़ा है उस कदर पत्रकारिता की गुणवत्ता नहीं सुधरी। मीडिया संस्थान कारोबारी हितों को लेकर बेहद संवेदनशील हैं, पर पाठकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा नहीं पाते हैं। इस बिजनेस में परम्परागत मीडिया हाउसों के मुकाबले चिटफंड कंपनियां, बिल्डर, शिक्षा के तिज़ारती और योग-आश्रमों तथा मठों से जुड़े लोग शामिल होने को उतावले हैं, जिनका उद्देश्य जल्दी पैसा कमाने के अलावा राजनीति और प्रशासन के बीच रसूख कायम करना है। हिंदी का मीडिया स्थानीय स्तर पर छुटभैया राजनीति के साथ तालमेल करता हुआ विकसित हुआ है।
हाल के वर्षों में अखबारों पर राजनीतिक झुकाव, जातीय-साम्प्रदायिक संकीर्णता और मसाला-मस्ती बेचने का आरोप है। उन्होंने गम्भीर विमर्श को त्याग कर सनसनी फैलाना शुरू कर दिया है। उनके संवाद संकलन में खोज-पड़ताल, विश्लेषण और सामाजिक प्रश्नों की कमी होती जा रही है। निष्पक्ष और स्वतंत्र टिप्पणियों का अभाव है, बल्कि अक्सर वह महत्वपूर्ण प्रश्नों पर अपनी राय नहीं देता। जीवन, समाज, राजनीति और प्रशासन पर उसका प्रभाव यानी साख कम हो रही है। मेधावी नौजवानों को हम इस व्यवसाय से जोड़ने में विफल हैं।
हिंदी का पहला अखबार 1826 में निकला और एक साल बाद ही बन्द हो गया। कानपुर से कलकत्ता गए पंडित जुगल किशोर शुक्ल के मन में इस बात को लेकर तड़प थी कि बांग्ला और फारसी में अखबार है। हिंदी वालों के हित के हेत में कुछ होना चाहिए। इस बात को 188 साल हो गए। हम ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन का हर साल समारोह मनाते हुए यह भूल जाते हैं कि वह अखबार बंद इसलिए हुआ क्योंकि उसे चलाने लायक समर्थन नहीं मिला। पं जुगल किशोर शुक्ल ने बड़ी कड़वाहट के साथ अपने पाठकों और संरक्षकों को कोसते हुए उसे बंद करने की घोषणा की थी। आज इस कारोबार में पैसे की कमी नहीं है। पर पाठक से कनेक्ट कम हो रहा है।

Thursday, May 29, 2014

टाइम के कवर पर विज्ञापन, यानी हंगामा हो गया




 

भारत के पाठकों को यह जानकारी निरर्थक लगेगी कि अमेरिका की प्रसिदध पत्रिका टाइम के कवर पेज पर छोटा सा विज्ञापन छपने लगा है। पत्रिका की प्रकाशक संस्था टाइम इनकॉरपोरेट ने टाइम और स्पोर्ट्स इलस्ट्रेटेड इन दो पत्रिकाओं के कवर पेज पर विज्ञापन लेना शुरू कर दिया है। भारत में दैनिक अखबारों के पहले सफे के पहले चार-चार पेज के जैकेट देखने के आदी भारतीय पाठकों के विस्मय होगा कि अमेरिका में इस नई परम्परा को लेकर बहस शुरू हो गई है। वहाँ की पत्रकारिता में इसे परम्परा तोड़ना माना जा रहा है। पत्रिकाओं को बचाने की कोशिश में इसे एक कदम माना जा रहा है, पर मीडिया से जुड़े लोगों का कहना है कि यह विज्ञापन कल कितना बड़ा हो जाएगा कौन जाने? अब देखना यह है कि इससे सीख कितनी पत्रिकाएं लेती हैं। बाईं ओर प्रकाशित चित्र में नया कवर है और  नीचे उस विज्ञापन का कुछ बड़ा करके दिखाया गया चित्र।



इस विषय पर विवरण पढ़ें यहाँ

इसी विषय से जुड़ा न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित समाचार पढ़ें यहाँ


Wednesday, May 28, 2014

और अब चुनौतियाँ

बादल छँटने के बाद अर्थव्यवस्था की वास्तविकता से सामना हिंदू में केशव का कार्टून

सरकार अब काम-काज के मोड में आ रही है। शपथ-ग्रहण समारोह के बाद दक्षेस के सात देशों और मॉरिशस के प्रतिनिधियों के आगमन ने माहौल को सरगर्म बना दिया। खासतौर से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की यात्रा से विमर्श का स्तर अच्छा हो गया। भारतीय मीडिया में पाकिस्तानी विशेषज्ञों ने आकर इस बातचीत को सार्थक बनाया। लगता है भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की सरकारें मीडिया की बातों को घुमाने की प्रवृत्ति से घबराती हैं। कल विदेश सचिव सुजाता सिंह जिस तरह शब्दों को चुन-चुनकर बोल रहीं थीं, उससे लगता था कि उन्हें इस बात की घबराहट थी कि कहीं कुछ गलत मुँह से न निकल जाए। नवाज शरीफ ने अपना बयान पढ़कर सुनाया। उनकी ब्रीफिंग में सवाल-जवाब नहीं हुए। पर इतना तय है कि कुछ होता हुआ लग रहा है। क्या यह सरकार काम करेगी? इस बात के जवाब के लिए कुछ समय इंतज़ार करें, पर स्मृति ईरानी की पढ़ाई और जितेन्द्र सिंह के अनुच्छेद 370 वाले बयान ने विवादों की शुरूआत कर दी है। मीडिया से अपेक्षा थी कि वह वह कुछ महत्वपूर्ण नेताओं की शिक्षा के बारे में बताता मसलन के कामराज, जयललिता, राबड़ी देवी या सोनिया गांधी की शैक्षिक पृष्ठभूमि के बारे में बताया जाता। उपरोक्त नेताओं ने समय आने पर अपनी योग्यता को साबित किया। इस सरकार से काले धन को लेकर अपेक्षाएं हैं और कैबिनेट ने एक विशेष जाँच दल बनाने का फैसला किया है। रोचक बात है कि पिछली यूपीए सरकार ने सत्ता में आखिरी दिन तक इस जाँच दल को बनाने का विरोध किया था। सरकार ने पहला कदम उठाया है इसकी तार्किक परिणति सामने आने में समय लगेगा। देखना है कि स्विस सरकार के साथ सूचनाएं देने वाले समझौते की स्थिति क्या है। आज के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेसन की खबर अच्छी है कि स्मृति, अरुण और निर्मला के नामों की चर्चा क्यों हो रही है।






Tuesday, May 27, 2014

मोदी के शपथ ग्रहण की भड़कीली कवरेज

नरेंद्र मोदी का शपथ ग्रहण समारोह जबर्दस्त मीडिया ईवेंट साबित होना ही था। पर पत्रकारों की समझदारी इस बात में थी कि वे अंतर्विरोधों को कितनी बारीकी से पकड़ते हैं। हिंदी के ज्यादातर अखबारों ने भक्तिभाव से कवरेज की और ज्यादा प्रभाव डिजाइन से डालने की कोशिश की। मास्टहैड की तस्वीर को लेकर कोई रचनात्मक योजना दिखाई नहीं पड़ी। ज्यादातर मुहावरे राजतिलक, राज्याभिषेक तक सीमित हैं। इनसे तो एक्सप्रेस का He Signs in बेहतर है। अंतर्कथाएं भी नहीं हैं। खबरों में भी दिल्ली के एक्सप्रेस और कोलकाता के टेलीग्राफ में नयापन था। खासतोर से टेलीग्राफ में शंकर्षण ठाकुर की रपट। अलबत्ता पाकिस्तान के अखबारों ने आज इस खबर को जैसा महत्व दिया है, वह ध्यान खींचता है। आज की कुछ कतरनें





The Telegraph



Indian Express

Pakistan


                                               
                                            





Monday, May 26, 2014

कयासबाजी का शिकार मीडिया



आज पूरा मीडिया मोदी के शपथ ग्रहण को लेकर अभिभूत है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सीमा है कि वह रचनात्मक विमर्श और सूचनाएं देने में पूरी तरह समर्थ नहीं है। बेशक उसके पास इतने साधन हैं कि वह काफी प्रभावशाली जानकारी दे सकता है। पर दो कारणों से वह अधकचरी सामग्री परोस कर संतुष्ट हो जाता है। एक तो दर्शक को अच्छे और खराब का अंतर नहीं मालूम। वह सनसनी के खेल में उलझ कर रह जाता है। कल शाम कुछ चैनल भारत और पाकिस्तान के दर्शकों और विशेषज्ञों को बैठाकर  बात कर रहे थे। पर सारी बात पर बेवजह के विवाद हावी थे। तमाम बातों से लोग नावाकिफ थे। लोगों को पता नहीं कि कश्मीर समस्या क्या है, संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव क्या था, सियाचिन का विवाद क्या है और जनरल मुशर्रफ के साथ जिस समझौते की सम्भावना थी वह क्या था। दूसरी ओर भारत को लेकर पाकिस्तान की जनता की शिकायत क्या है, इसे भी समझना चाहिए। होमवर्क बहुत खराब स्तर का है। पर यह अवधारणा बेहतरीन है। दोनों देशों का मीडिया मिलकर काम करे तो परिणाम चमत्कारी हो सकते हैं। आज के टेलीग्राफ ने शपथ ग्रहण समारोह के सिलसिले में राष्ट्रपति भवन के प्रांगण का विहंगम चित्र देकर आसपास की इमारतों का जो परिचय दिया है, वह रचनात्मक पत्रकारिता का परिचायक है। मोदी संरकार की संरचना क्या होगी, इसे लेकर मीडिया में कयास ही कयास हैं। मोदी के नेतृत्व ने खबरों को लीक होने से रोककर मीडिया को हतप्रभ किया है। सबसे बड़ा सस्पेंस किसे क्या  मिलने वाला है? सम्भावित मत्रियों के नामों की सूची मीडिया के पहले सिक्योरिटी को मिली। मीडिया चूकि कयासबाज़ी से जुड़ी खबरें देने का आदी है इसलिए शासन की नीतियों को लेकर अभी तक अच्छी खबरें सामने नहीं आईं हैं।

भारतीय समाज इस वक्त मीडिया से काफी प्रभावित है। हालांकि हमारे मीडिया की आलोचना भी होती है, पर इसमें दो राय नहीं कि छोटे से छोटे शहर में भी भारतीय भाषाओं के अखबारों क पहुँचने और भारी संख्या में समाचार चैनलों के शुरू होने से जानकारी का विस्फोट हो रहा है। न्यूयॉर्क टाइम्स के भारत केंद्रित ब्लॉग India Ink में आज Max Bearak  के आलेख में भारतीय मीडिया कारोबार की बढ़ती सम्भावनाओं का जिक्र है। क्या भारत में एक और मीडिया क्रांति की सम्भावना है। आलेख में कहा गया हैः-

Newspaper is everywhere in India. Print readership, especially of the country’s vernacular press, is continuing to rise.
At breakfast tea joints in Indian cities, people sip chai and unfold their broadsheets, which they lay out over older newspapers, used as a tablecloth, before reaching for samosas packed in makeshift to-go bags, themselves fashioned out of folded and stapled newsprint.
Samir Patil, a longtime Indian media entrepreneur, recounted a quote he once heard attributed to Immanuel Kant. “In modern city life, it has been said that the secular ritual of reading the newspaper replaces the morning prayer.” While that observation may no longer be valid in much of the West, it’s still an apt description of media consumption in India.
पूरा आलेख पढ़ें यहाँ


Sunday, May 25, 2014

मोदी सरकार के सामने क्या मजबूत और समझदार विपक्ष भी उभरेगा?

नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समरोह में दक्षिण भारत के तीन राज्यों के मुख्यमंत्री भाग नहीं ले रहे हैं। ये हैं केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने सम्भवतः ओडिशा के नवीन पटनायक और बंगाल की मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ कोई अनौपचारिक मोर्चा बना लिया है। शपथ ग्रहण के साथ शुरू हुई राजनीति ही भविष्य की दिशा तय करेगी। फिलहाल एनडीए सरकार संख्याबल में कमजोर नहीं है। पर बेहतर लोकतंत्र के लिए बेहतर विपक्ष भी जरूरी है। ऐसा विपक्ष जो देश हित समझता हो। उसे केवल केंद्र सरकार का विरोधी ही नहीं होना चाहिए, बल्कि जनता के हित को समझने वाला भी होना चाहिए। भविष्य बताएगा कि इस बार कैसा विपक्ष तैयार होकर आया है।  

इस चुनाव में देश को एक स्थिर और मजबूत सरकार का मिलना जितना शुभ लक्षण है उतना ही एक बिखरे और अनमने विपक्ष का उभर कर आना परेशान करता है. यह परेशानी केवल संख्या को लेकर नहीं है. विपक्ष का गुणात्मक ह्रास भी हुआ है. फिलहाल ऐसा लगता है कि राजनेताओं ने जय-पराजय को व्यक्तिगत रूप से लिया है. उसे जनता की मनोकामनाओं से नहीं जोड़ा. चुनाव में कम से कम तीन ताकतों की पराजय ध्यान खींचती है. पहली है कांग्रेस, जो आज़ादी के बाद से भारत की अवधारणा को मूर्त करने वाली पार्टी रही है. दूसरी पराजय वामपंथी पार्टियों की है. इन पार्टियों की देश के औद्योगिक और खेत मजदूरों के हितों की लड़ाई में अग्रणी भूमिका रही. इनका नेतृत्व अपेक्षाकृत साफ-सुथरा रहा, फिर भी ये पार्टियाँ देश की मुख्यधारा में सबसे आगे कभी नहीं रहीं. पर इस चुनाव में तो उनके अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है. तीसरी ताकत है आम आदमी पार्टी, जिसका उदय जितनी तेजी से हुआ, पराभव उससे भी ज्यादा तेज गति से होता नजर आता है.

कैसा होगा मोदी का ‘ब्रांड इंडिया’

नरेंद्र मोदी की सरकार के बारे में माना जा रहा है कि यह काम करने वाली और साफ बोलने वाली सरकार होगी। चुनाव प्रचार के दौरान वे कई बार ब्रांड इंडिया को चमकाने की बात करते रहे हैं। उनका यह भी कहना था कि यह सदी भारत के नाम है। दुर्भाग्य है कि हम इस दशक की शुरुआत य़ानी सन 2010 से पराभव का दौर देख रहे हैं। सन 2010 में हमने कॉमनवैल्थ गेम्स का आयोजन किया। उसका उद्देश्य भारत की प्रगति को शोकेस करना था। पर हुआ उल्टा। कॉमनवैल्थ गेम्स हमारे लिए कलंक साबित हुआ। टू-जी हमारी तकनीकी प्रगति का संकेतक था। सन 1991 के बाद शुरू हुई आर्थिक क्रांति का पहला पड़ाव था टेलीकम्युनिकेशन की क्रांति। पर यह क्रांति हमारे माथे पर कलंक का टीका लगा गई। जरूरी है कि भारत अपनी उद्यमिता और मेधा को साबित करे। पिछले साल हमारे वैज्ञानिकों ने मंगल ग्रह की ओर एक यान भेजा है। इस साल सितम्बर में यह यान मंगलग्रह की कक्षा में प्रवेश करेगा। हमें मानकर चलना चाहिए कि ऊँचे आसमान से प्रकाशमान होकर यह भारत का नाम इस साल जगमग करेगा।  

Saturday, May 24, 2014

लालू-नीतीश एकता का प्रहसन

बिहार की राजनीति निराली है। वहाँ जो सामने होता है, वह होता नहीं और जो होता है वह दिखाई नहीं देता। जीतनराम मांझी की सरकार को सदन का विश्वास यों भी मिल जाना चाहिए था, क्योंकि सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल था। ऐसे में लालू यादव के बिन माँगे समर्थन के माने क्या हैं? फिरकापरस्त ताकतों से बिहार को बचाने की कोशिश? राजद की ओर से कहा गया है कि राष्ट्रीय जनता दल की ओर से कहा गया है कि यह एक ऐसा वक़्त है जब फिरकापरस्त ताकतों को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को छोटे-मोटे मतभेदों को भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। क्या वास्तव में नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच छोटे-मोटे मतभेद थे? सच यह है कि दोनों नेताओं के सामने इस वक्त अस्तित्व रक्षा का सवाल है। दोनों की राजनीति व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे के खिलाफ है। इसमें सैद्धांतिक एकता खोजने की कोशिश रेगिस्तान में सूई ढूँढने जैसी है। जो है नहीं उसे साबित करना।
प्राण बचाने की कोशिश
हाँ यह समझ में आता है कि फौरी तौर पर दोनों नेता प्राण बचाने की कोशिश कर रहे हैं। भला बिन माँगे समर्थन की जरूरत क्या थी? इसे किसी सैद्धांतिक चश्मे से देखने की कोशिश मत कीजिए। यह सद्यःस्थापित एकता अगले कुछ दिन के भीतर दरक जाए तो विस्मय नहीं होना चाहिए। राजद ने साफ कहा है कि मांझी-सरकार को यह समर्थन तात्कालिक है, दीर्घकालिक नहीं। ऐसी तात्कालिक एकता कैसी है? मोदी का खतरा तो चुनाव के पहले ही पैदा हो चुका था। कहा जा रहा है कि बीस साल बाद जनता परिवार की एकता फिर से स्थापित हो गई है। पर यह एकता भंग ही क्यों हुई थी? वे क्या हालात थे, जिनमें जनता दल टूटा? क्या वजह थी कि जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में समता पार्टी ने भाजपा के साथ जाने का फैसला किया?

Friday, May 23, 2014

सोनिया ने मोदी को बधाई दी और नेहरू की विरासत भी सौंपी

हिंदू में केशव का कार्टून : गिलास आधा खाली

दिल्ली में सत्ता परिवर्तन के साथ कई और तरह के परिवर्तन दिखाई पड़ने लगे हैं। भले ही दबे स्वर में हों, पर कांग्रेस में राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर आवाजों उठने लगी हैं। राहुल की कोर टीम के एक सदस्य ने हमलावरों पर जवाबी हमला भी बोला है। आज के अखबारों ने इस खबर को जगह दी है। मुम्बई के डीएनए में यह रोचक खबर है कि कांग्रेस पार्टी के भीतर अपनी हार के लिए जापानी विज्ञापन एजेंसी देंत्सू की नाकामी के अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तैयारी और इस्रायली खुफिया एजेंसी मोसाद को भी जिम्मेदार बताया जा रहा है। सारी दुनिया ने नरेंद्र मोदी को बधाई दे दी तो सोनिया गांधी को लगा कि अपुन भी बधाई दे दें। पर जिस खबर को आज कोलकाता के टेलीग्राफ ने प्रमुखता दी है वह है सोनिया गांधी का नेहरू संग्रहालय की अध्यक्षता से इस्तीफा। अब इस विरासत को नरेंद्र मोदी की सरकार सम्हालेगी। स्वाभाविक है कि नेहरू की विरासत राष्ट्रीय है। टेलीग्राफ की यह खबर भी रोचक है कि राष्ट्रपति भवन के शपथ ग्रहण समारोह के लिए तैयार किए गए तम्बू में जगह सिर्फ 1250 मेहमानों की है। इनमें 777 तो सांसद ही होंगे। बाकी के लिए जगह कितनी है? दैनिक भास्कर ने खबर दी है कि नरेंद्र मोदी आर्थिक नीति से जुड़े कुछ बड़े फैसलों के साथ-साथ गंगा की सफाई के लिए 25 हजार करोड़ की योजना की घोषणा भी करने वाले हैं। अखबारों में इस किस्म की खबरें हैं कि अगले 100 दिन में मोदी सरकार किस तरह से महंगाई पर रोक लगाएगी। नज़र डालें आज की कुछ खास खबरों पर
DNA

Telegraph




भास्कर



जागरण


Thursday, May 22, 2014

क्या यह भाजपा-गैर भाजपा दौर का आग़ाज़ है?

चुनाव में जीतने के बाद वाराणसी में नरेंद्र मोदी ने कहा, पहले सरकार चलाने के लिए गठबंधन करना पड़ता था। अब प्रतिपक्ष है नहीं। अब प्रतिपक्ष बनाने के लिए गठबंधन करना पड़ेगा. इस चुनाव के बाद कम से कम दो सच्चाइयाँ उजागर हुई हैं. अभी तक देश की राजनीति के तीन कोने थे. एक कांग्रेस, दूसरा भाजपा और तीसरा गैर-कांग्रेस, गैर भाजपा विपक्ष. पर अब तीन नहीं दो कोने हो गए हैं. एक भाजपा और दूसरा गैर-भाजपा.

बिहार में नीतीश कुमार के इस्तीफे की गहमा-गहमी के बीच एक प्रस्ताव आया कि जेडीयू और राजद एक साथ आ जाएं. क्या व्यावहारिक रूप से यह संभव है. अभी तक बिहार में लालू को रोकने का श्रेय नीतीश कुमार को दिया जा रहा था. अब यह काम भाजपा ने सम्हाल लिया है. ऐसे में क्या जेडीयू और राजद एक साथ जा सकते हैं? सेक्युलरिज़्म की अवधारणा वास्तविक है तो फिर तमाम ताकतें एकसाथ क्यों नही आतीं? ऐसी पहेलियाँ दूसरे राज्यों में भी बूझी जाएंगी.

चुनाव परिणाम आने के बाद पहले जयललिता ने मोदी को और फिर मोदी ने जयललिता को बधाई देकर गर्मजोशी का माहौल बनाया है. जयललिता को एनडीए में शामिल करने की ज़रूरत मोदी को नहीं है, पर जयललिता को मोदी की ज़रूरत है. चुनाव के ठीक पहले मोदी और ममता के बीच कटु वक्तव्यों की बौछारों हुईं, पर ज़रूरत तो ममता को भी मोदी की होगी. उधर नवीन पटनायक ने केंद्र के प्रति अपने सकारात्मक रुख की घोषणा करके साफ कर दिया है कि वे भाजपा विरोधी कैम्प में नहीं हैं. तब विपक्ष में है कौन?

Wednesday, May 21, 2014

राहुल की हँसी और केजरीवाल की पहलकदमी


आज के अखबारों में स्वाभाविक रूप से नरेंद्र मोदी का भावुक भाषण छाया है। कल शाम सारे चैनलों में इस विषय पर ही विमर्श हो रहा था। सरकार के सामने क्या काम हैं और सरकार किस तरह की बन रही है, ये सवाल कल शाम तक पटल पर नहीं थे। एकाध दिन यह और चलेगा। इसके बाद गाड़ी देश के सामने खड़े महत्वपूर्ण सवालों पर आएगी। आज की खबरों में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की फिर से सरकार बनाने की पहलकदमी की खबर महत्वपूर्ण है। 'आप' के निहायत अपरिपक्व नेता अब अलोकप्रियता के शिखर पर जल्द से जल्द पहुँचने को आतुर हैं। उन्हें मान लेना चाहिए कि उनकी गाड़ी छूट चुकी है। जिस विधानसभा को भंग करने के लिए वे अदालत में जा चुकें हैं, उसे फिर से जगाने की कोशिश वे क्यों कर रहे हैं? यह सम्भव भी तभी है, जब कांग्रेस इसमें उनका साथ दे। क्या कांग्रेस उनका साथ देगी? आप अब रक्षात्मक मुद्रा में है। तीन महीने पहले उन्हें लगता था कि दुबारा चुनाव हुआ तो उन्हें पूर्ण बहुमत मिलेगा। पर अब उनका आत्मविश्वास डोल गया है। उन्होंने यों भी सिद्धांततः मान लिया है कि भ्रष्टाचार से ज्यादा बड़ी लड़ाई साम्प्रदायिकता के खिलाफ है। अब इस लड़ाई को तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहिए। बहरहाल देखिए क्या होता है। लखनऊ में सपा और बसपा ने चुनाव हारने के बाद कुछ लोगों को सज़ा देने का फैसला किया है। बसपा का यह फैसला रोचक है कि अब केवल मायावती जिन्दाबाद के अलावा किसी दूसरे नेता की जिन्दाबाद नहीं हो सकेगी। भारतीय लोकतंत्र प्रौढ़ होता जा रहा है। कुछ कतरनों पर गौर कीजिए।

पिताजी जीता कौन? हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून। इस कार्टून का संदर्भ नीचे की तस्वीर से समझा जा सकता है। 

कोलकाता के टेलीग्राफ ने मंगलवार को यह तस्वीर छापी जिसमें राहुल गांधी की दो मुद्राएं दिखाई गई हैं। पिछले शुक्रवार को कांग्रेस की पराजय की खबरें आने के बाद संक्षिप्त से संवाददाता सम्मेलन में राहुल गांधी मुस्कराते हुए आए थे। इसके विपरीच सोमवार को कांग्रसे कार्यसमिति की बैठक में वे लगातार गुमसुम बैठे रहे। शायद अभी वे खुद को मौके के हिसाब से प्रतिक्रिया देने में सफल नहीं हो पाए हैं। 






Tuesday, May 20, 2014

मोदी-आंधी बनाम ‘खानदान’ गांधी

मंजुल का कार्टून
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इस्तीफों की पेशकश नामंजूर कर दी गई। इस पेशकश के स्वीकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गांधी परिवार के बगैर अब कांग्रेस का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस को जोड़े रखने का एकमात्र फैविकॉल अब यह परिवार है। संयोग से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती है। कांग्रेस के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि पार्टी फिर से बाउंसबैक करेगी। 16 मई को हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी नीतियों और मूल्यों पर चलते रहेंगे। बहरहाल अगला एक साल कांग्रेस और एनडीए दोनों के लिए महत्वपूर्ण होगा। मोदी सरकार को अपनी छाप जनता पर डालने के लिए कदम उठाने होंगे, वहीं कांग्रेस अब दूने वेग से उसपर वार करेगी।  

अभी तक कहा जाता था कि वास्तविक सार्वदेशिक पार्टी सिर्फ कांग्रेस है। सोलहवीं लोकसभा में दस राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं है। क्या यह मनमोहन सिंह की नीतियों की पराजय है? एक मौन और दब्बू प्रधानमंत्री को खारिज करने वाला जनादेश? पॉलिसी पैरेलिसिस के खिलाफ जनता का गुस्सा? या नेहरू-गांधी परिवार का पराभव? क्या कांग्रेस इस सदमे से बाहर आ सकती है? शुक्रवार की दोपहर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने एक संक्षिप्त संवाददाता सम्मेलन में अपनी हार और उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। पर पाँच मिनट के उस एकतरफा संवाद से ऐसा महसूस नहीं हुआ कि पार्टी अंतर्मंथन की स्थिति में है या उसे कोई पश्चाताप है। फिलहाल चेहरों पर आक्रोश दिखाई पड़ता है। पार्टी के नेता स्केयरक्रोयानी मोदी का डर दिखाने वाली अपनी राजनीति के आगे सोच नहीं पा रहे हैं। वे अब भी मानते हैं कि उनके अच्छे काम जनता के सामने नहीं रखे जा सके। इसके लिए वे मीडिया को कोस रहे हैं।

चुनाव परिणाम आने के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर दिया था कि हार हुई तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने तो सीधे कहा कि वे सरकार में नहीं थे। कहीं गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है, जो अपने अच्छे कामों से जनता को परिचित नहीं करा पाई। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर। पिछले दो साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो हर बार ठीकरा सरकार के सिर फूटता था। और श्रेय देना होता था तो राहुल या सोनिया की जय-जय।

Monday, May 19, 2014

यह राष्ट्रीय रूपांतरण की घड़ी भी है


दिल्ली में सत्ता परिवर्तन का मतलब है कि देश की राजनीतिक ताकतों को अपने काम-काज को नए सिरे से देखने का मौका मिलेगा। ऐसा नहीं कि नरेंद्र मोदी आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं या विदेश नीति के मर्मज्ञ हैं। उनका काम है राष्ट्रीय नीतियों को राजनीतिक दिशा देना। अर्थ-व्यवस्था को चलाने के लिए विशेषज्ञों की टीम है। सरकार के सारे काम करने वाली टीमें हैं। ऐसा नहीं कि बुनियादी नीतियों में कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा। हाँ चूंकि मोदी का व्यक्तिगत आग्रह दृढ़ता और साफ फैसला करने पर है, इसलिए उम्मीद है कि जो फैसले होंगे उनमें भ्रम नहीं होगा। राजनीतिक संशय के कारण अक्सर अच्छे से अच्छे फैसले भी निरर्थक साबित होते हैं। भारत इस वक्त आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूपांतरण की दहलीज पर खड़ा है। अगले दस साल तक हम लगातार तेज विकास करें साथ ही उस विकास को नीचे तक पहुँचाएं तो गरीबी के फंदे से देश को बाहर निकाल सकते हैं। ऐसा होगा या नहीं इसे देखें:-

यह नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत जीत है, पर इसके पीछे छिपे बड़े कारणों की ओर भी हमें देखना चाहिए. चुनाव परिणामों का विश्लेषण काफी लम्बे समय तक चलता है, पर एक बात साफ है कि भारतीय लोकतंत्र का रूपांतरण हो रहा है. इस बात को ज्यादातर पार्टियों ने नहीं समझा. इनमें भाजपा भी शामिल है, जिसे इतिहास में सबसे बड़ी सफलता मिली है. ऐसा कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी ने अपनी जगह भाजपा से भी ऊपर बना ली थी. इसकी आलोचना भी की गई. पार्टी के भीतर भी मोदी विरोधी थे. इतना तय है यह चुनाव यदि मोदी के बजाय लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा जाता तो ऐसी सफलता नहीं मिलती. उस स्थिति में पार्टी पुराने मुहावरों को ही दोहराती रहती. बीजेपी केवल कांग्रेस की खामियों के सहारे नहीं जीती, बल्कि उसने देश को एक नया सपना दिया है. भाजपा की जीत के पीछे देश के नौजवानों के सपने हैं. नरेंद्र मोदी ने इन सपनों को जगाया है. अब यह उनकी परीक्षा है कि वे इन सपनों को पूरा करने में सफल हो पाते हैं या नहीं.

दूसरी ओर कांग्रेस ने भी इतिहास से सबक नहीं सीखा. उसे इतिहास की सबसे बड़ी हार मिली है. क्षेत्रीय दलों ने भी समय से कोई खास पाठ नहीं सीखा. मामला केवल कांग्रेस के खिलाफ होता तो इसका फायदा क्षेत्रीय दलों को भी मिलना चाहिए था. देश की नई राजनीति की दशा-दिशा को समझने की कोशिश करनी चाहिए. वोटर ने शासक बदलने का रास्ता देख लिया है. इस बार का वोट केवल पार्टियों के बूथ मैनेजमेंट को नहीं दिखा रहा है. जो पार्टियाँ संकीर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक आधारों के सहारे आगे बढ़ना चाहती है, उन्हें अपनी नीतियों पर फिर से विचार करना होगा.

भारतीय जनता पार्टी हिंदू राष्ट्रवाद की पार्टी है. हालांकि नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव में धार्मिक आधार पर कोई अपील नहीं की और संघ परिवार के उन लोगों को झिड़की भी लगाई. बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि नरेंद्र मोदी के ऊपर हिंदुत्व का तमगा नहीं है. उन्हें हिंदुत्व की छवि का प्रचार करने की ज़रूरत ही नहीं थी. वह अच्छी तरह स्थापित है. सवाल है क्या वे अपनी हिंदू छवि के साथ देश के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहते हैं? इसका जवाब समय देगा और मोदी सरकार के काम बताएंगे कि वे करना क्या चाहते है. उनके ऊपर अर्थव्यवस्था को सम्हालने के साथ-साथ देश के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को गति प्रदान करने की जिम्मेदारी है. बीजेपी विरोधी पार्टियों को भी समझना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए धर्म निरपेक्षता का इस फूहड़ हद तक सहारा नहीं लेना चाहिए था. चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले दिग्विजय सिंह का यह कहना कि नरेंद्र मोदी को किसी भी कीमत पर सत्ता में आने से रोकना चाहिए. किस कीमत पर? उन्हें अब यह देखना चाहिए कि जनता ने उनकी पार्टी को किस कूड़ेदान में फेंक दिया है.

Sunday, May 18, 2014

मोदी की पहली चुनौती है महंगाई

नरेंद्र मोदी के भीतर वह क्या बात है जिसके कारण वे एक जबर्दस्त आंधी को पैदा करने में कामयाब हुए? मनमोहन सिंह की छवि के विपरीत वे फैसला करने वाले कड़क और तेज-तर्रार राजनेता हैं। उनकी यह विजय उनके बेहतरीन मैनेजमेंट की विजय भी है। यानी अब हमें ऐसा नेता मिला है, जो भ्रमित नहीं है, बड़े फैसले करने में समर्थ है और विपरीत स्थितियों में भी रास्ता खोज लेने में उसे महारत हासिल है। सन 2002 के बाद से वह लगातार हमलों का सामना करता रहा है। उसके यही गुण अब देश की सरकार को दिशा देने में मददगार होंगे।

मोदी की जीत के पीछे एक नाकारा, भ्रष्ट और अपंग सरकार को उखाड़ फेंकने की मनोकामना छिपी है। फिर भी यह जीत सकारात्मक है। दस साल के शासन की एंटी इनकम्बैंसी स्वाभाविक थी। पर सिर्फ इतनी बात होती तो क्षेत्रीय पार्टियों की जीत होती। बंगाल, उड़ीसा और तमिलनाडु में क्षेत्रीय पार्टियों की ताकत जरूर बढ़ी है, पर भारतीय जनता पार्टी ने भी इन राज्यों में प्रवेश किया है। पहली बार भाजपा पैन-इंडियन पार्टी के रूप में उभरी है। इसके विपरीत सोलहवीं लोकसभा में दस राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं होगा। यानी कांग्रेस अपने पैन-इंडियन सिंहासन से उतार दी गई है और उसकी जगह बीजेपी पैन इंडियन पार्टी बनकर उभरी है।

मोदी के नए भारत का सपना युवा-भारत की मनोभावना से जुड़ा है। उनका नारा है, अच्छे दिन आने वाले हैं। इसलिए नरेंद्र मोदी की पहली जिम्मेदारी है कि वे अच्छे दिन लेकर आएं। देशभर के वोटर ने एक सरकार को उखाड़ फेंकने के साथ-साथ अच्छे दिनों को वापस लाने के लिए वोट दिया है। ऐसा न होता तो तीस साल बाद देश के मतदाता ने किसी एक पार्टी को साफ बहुमत नहीं दिया होता। यह मोदी मूमेंट है। मोदी ने कहा, ये दिल माँगे मोर और जनता ने कहा, आमीन।

इन बुज़ुर्गों से कैसे निपटेंगे मोदी?

हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
भारतीय जनता पार्टी को मिली शानदार सफलता ने नरेंद्र मोदी के सामने कुछ चुनौतियों को भी खड़ा किया है। पहली चुनौती विरोधी पक्ष के आक्रमणों की है। पर वे उससे निपटने के आदी है। लगभग बारह साल से हट मोदी कैम्पेन का सामना करते-करते वे खासे मजबूत हो गए हैं। संयोग से लोकसभा के भीतर उनका अपेक्षाकृत कमज़ोर विपक्ष से सामना है। कांग्रेस के पास संख्याबल नहीं है। बड़ी संख्या में उसके बड़े नेता चुनाव हार गए हैं। तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल और अद्रमुक के साथ वे बेहतर रिश्ते बना सकते हैं। बसपा है नहीं, सपा, राजद, जदयू और वाम मोर्चा की उपस्थिति सदन में एकदम क्षीण है। इस विरोध को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं।

Saturday, May 17, 2014

लोकसभा चुनाव 2014 के पूरे परिणाम

चुनाव आयोग वैबसाइट के अनुसार सन 2014 के लोकसभा चुनाव के अंतिम परिणाम इस प्रकार रहे। सबसे नीचे नए सदस्यों की पूरी सूची राज्यवार दी गई हैः-

ALL INDIA Result Status

Status Known For 543 out of 543 Constituencies
PartyWonLeadingTotal
Bharatiya Janata Party2820282
Communist Party of India101
Communist Party of India (Marxist)909
Indian National Congress44044
Nationalist Congress Party606
Aam Aadmi Party404
All India Anna Dravida Munnetra Kazhagam37037
All India N.R. Congress101
All India Trinamool Congress34034
All India United Democratic Front303
Biju Janata Dal20020
Indian National Lok Dal202
Indian Union Muslim League202
Jammu & Kashmir Peoples Democratic Party303
Janata Dal (Secular)202
Janata Dal (United)202
Jharkhand Mukti Morcha202
Kerala Congress (M)101
Lok Jan Shakti Party606
Naga Peoples Front101
National Peoples Party101
Pattali Makkal Katchi101
Rashtriya Janata Dal404
Revolutionary Socialist Party101
Samajwadi Party505
Shiromani Akali Dal404
Shivsena18018
Sikkim Democratic Front101
Telangana Rashtra Samithi11011
Telugu Desam16016
All India Majlis-E-Ittehadul Muslimeen101
Apna Dal202
Rashtriya Lok Samta Party303
Swabhimani Paksha101
Yuvajana Sramika Rythu Congress Party909
Independent303
Total5430543

{Votes%
BJP {31.0%
INC {19.3%
BSP {4.1%
AITC {3.8%
SP {3.4%
ADMK {3.3%
CPM {3.2%
IND {3.0%
TDP {2.5%
YSRCP {2.5%
AAAP {2.0%
SHS {1.9%
DMK {1.7%
BJD {1.7%
NCP {1.6%
RJD {1.3%
TRS {1.2%
JD(U) {1.1%
CPI {0.8%
JD(S) {0.7%
SAD {0.7%
INLD {0.5%
AIUDF {0.4%
LJP {0.4%
DMDK {0.4%
PMK {0.3%
RSP {0.3%
JMM {0.3%
JVM {0.3%
MDMK {0.3%
AIFB {0.2%
SWP {0.2%
IUML {0.2%
BLSP {0.2%
CPI(ML)(L){0.2%
NPF {0.2%
AD {0.1%
BMUP {0.1%
NOTA {1.1%,6000197}


The complete list of MPs after 16th General Elections:
Andaman & Nicobar Islands
Andaman & Nicobar Islands- Bishnu Pada Ray (BJP)
Arunachal Pradesh
Arunachal East - Ninong Ering (Congress)
Andhra Pradesh
Nagarkurnool- Yellaiah Nandi (Congress)
Nalgonda- Gutha Sukhender Reddy (Congress)
Adilabad- Godam Nagesh (TRS)
Bhongir- Dr Boora Narsaiah Goud (TRS)