लालू प्रसाद यादव का साथ छोड़कर बिहार में रामकृपाल सिंह
भाजपा में शामिल हो गए। इसके पहले राम विलास पासवान की पार्टी ने भाजपा के साथ
गठबंधन किया। बिहार में भारतीय जनता पार्टी के एक हाथ में जाति का कार्ड है।
नरेंद्र मोदी को पिछड़ी जाति के नेता के रूप में भी पेश किया जा रहा है। उधर
मुलायम सिंह यादव और मायावती ब्राह्मण वोटर का मन जीतने की कोशिश में लगे हैं। कांग्रेस
पार्टी ने जाटों को आरक्षण देने की घोषणा की है। लगभग हर राज्य में जातीय, धार्मिक
और क्षेत्रीय आधार पर बने राजनीतिक गठजोड़ों ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। टिकट
वितरण शुरू होते ही अचानक पार्टियों से भगदड़ शुरू हो गई है। अब कोई नहीं देख रहा
है कि किस पार्टी में जा रहे हैं। कल तक उसके बारे में कुछ कहते थे। आज कुछ और
कहते हैं। आरजेडी के गुलाम गौस ने लालटेन छोड़कर जेडीयू का तीर थाम लिया। वहीं
पप्पू यादव ने फिर राजद में आ गए हैं। बीजेपी में नरेंद्र मोदी के लिए वाराणसी और
राजनाथ सिंह के लिए लखनऊ की सीट खाली कराना मुश्किल हो रहा है।
उत्तर प्रदेश से खबर है कि प्रत्याशियों को थोपने के विरोधी
राहुल गांधी ने यू-टर्न ले लिया है। पार्टी ने बाहर से आने वाले 'पैराशूट प्रत्याशियों' को टिकट देना शुरू कर दिया है। कांग्रेस में अब विरोध के स्वर फूट रहे हैं।
जगदम्बिका पाल जैसे नेता बाहर हो गए हैं। खबर यह भी है कि नारायण दत्त तिवारी
समाजवादी पार्टी के साथ सम्पर्क में हैं। राहुल बाहर से थोपे प्रत्याशियों का
विरोध करते रहे हैं। लेकिन फूलपुर मोहम्मद कैफ का नाम पैनल के बजाय ऊपर से आया। भोजपुरी
फिल्मों के कलाकार रवि किशन भी पैराशूट की मदद से जौनपुर में उतरे हैं। मुजफ्फरनगर
सीट से टिकट पाने वाले सूरज सिंह वर्मा बसपा छोड़कर कांग्रेस में आए। सुलतानपुर से
संजय सिंह की पत्नी अमिता सिंह को टिकट देकर पार्टी ने परिवारवाद की पुष्टि कर
दी। इस सीट से संजय सिंह सांसद थे। उनके पार्टी छोड़कर बीजेपी में जाने की बात चली
तो उन्हें असम से राज्यसभा में भेजा गया। अब उनकी सीट पर पत्नी को टिकट दे दिया
गया।
पूर्व केंद्रीय मंत्री पवन बंसल और अशोक चह्वाण की पत्नी को
टिकट मिलने की सुगबुगाहट से भी पार्टी की कथनी और करनी का फर्क नजर आने लगा है।मध्य
प्रदेश में कांग्रेस ने भिंड से डॉ भागीरथ प्रसाद को टिकट दिया, पर वे अगले ही दिन
भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। शायद कांग्रेस उन्हें जीत नहीं दिला पाती।
आंध्र में एनटीआर की बेटी और पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्रीपुरंदेश्वरी कांग्रेस
छोड़ भाजपा में शामिल हो गईं। यह सूची बहुत लम्बी है और हर रोज इसमें संशोधन हो
रहे हैं। बात केवल इतनी है कि विचार और विचारधारा पर व्यक्तिगत हित हावी होते जा
रहे हैं।
पिछले दो साल से देश भर में चले आंदोलनों के कारण जिस नई
राजनीति के उभरने की आशा थी, वह अचानक निराशा में बदलने लगी है। नई राजनीति के
पैरोकार अरविंद केजरीवाल पुरानी राजनीति के रंग में घुल-मिल गए हैं। बगावत उनकी
पार्टी में भी हो रही है। आम आदमी की यह पार्टी खास लोगों को टिकट देने के लिए
बदनाम हो रही है। राहुल गांधी ने आप की तर्ज पर प्राइमरीज की एक नई व्यवस्था शुरू
की है, जिसका परिणाम है नए किस्म की सिर-फुटौवल। अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ता
एक-दूसरे से भिड़ गए हैं। उधर रिटायर हुए सरकारी नौकरशाहों ने पार्टियों में जगह
बनानी शुरू कर दी है। आम आदमी पार्टी ने चंडीगढ़ से दिवंगत जसपाल भट्टी की पत्नी सविता
भट्टी को टिकट दिया। पहले तो सविता भट्टी ने इस कबूल किया, फिर उसे वापस करने की
घोषणा कर दी। उनकी राजनीति में भी उल्टा-पुल्टा हो रहा है।
‘आप’के जवाब में ‘खाप’
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में एक नई पार्टी बनी है 'खास आदमी पार्टी' । इसने भ्रष्टाचारियों और जालसाजों को अपने दल में शामिल होने का न्यौता दिया
है। इस पार्टी ने अरविंद केजरीवाल की 'आम आदमी पार्टी' को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी बताया है। खाप ने घोषित किया है कि उसकी
सदस्यता केवल भ्रष्टाचारियों और जालसाजों को ही दी जाएगी और आम आदमी पार्टी को
छोड़कर सभी राजनीतिक दलों से गठबंधन करने को वह तैयार है, क्योंकि वह सब उसके जैसे ही हैं। फिलहाल चुनाव के पहले दौर
में व्यवहारिक राजनीति के विद्रूप उभर कर सामने आ रहे हैं और वह साफ-सुथरी राजनीति
दिखाई नहीं पड़ रही, जिसे लेकर हाल में उम्मीदें बँधीं थीं।
पिछले साल आयरिश नॉलेज फाउंडेशन तथा इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ
इंडिया ने एक अध्ययन के आधार पर कहा था कि 2014
के
लोकसभा चुनाव में 543 सीटों में से लगभग 160
सीटों
पर सोशल मीडिया का असर दिखाई पड़ेगा। यानी नए युवा भारत की कसौटी पर चुनाव होंगे।
फिर 8 दिसम्बर को जब पाँच विधानसभाओं सभाओं के चुनाव परिणाम सामने आए तो अचानक
मुख्यधारा की राजनीति को धक्का लगा। खासतौर से दिल्ली विधानसभा से कांग्रेस के
सफाए और आम आदमी पार्टी की जीत ने एक नई राजनीति का बिगुल बजाया। नारे लिखी
टोपियों की सप्लाई बढ़ गई। देखा-देखी भाजपा की केसरिया, कांग्रेस की सफेद, सपा की
लाल, बसपा की नीली और जेडीयू की हरी टोपियाँ नजर आने लगीं। पर पिछले दो हफ्ते में
अचानक टोपियाँ गायब हो गईं।
हमारी राजनीति विचार और कर्म के बजाय चेहरों की मदद से अपनी
छवि बनाना चाहती है। यह बात ‘आप’से ‘खाप’ तक और भाजपा से कांग्रेस तक सब पर लागू होती है। इससे राजनीतिक कर्म मजाक बन
जाता है और कार्यकर्ता ठगा रह जाता है। तृणमूल कांग्रेस ने फिल्मी हस्ती मुनमुन
सेन, शताब्दी रॉय और फुटबॉल टीम के पूर्व कप्तान बाईचुंग भूटिया को टिकट दिया है। उसनेनेताजी
सुभाष चंद्र बोस के भाई के पोते और हॉवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुगाता बोस
को जाधवपुर से उम्मीदवार बनाया है। बांग्ला बैंड 'भूमि' के मुख्य गायक सौमित्र, रंगमंच कलाकार अर्पित घोष और बांग्ला कलाकार संध्या
रॉय को भी टिकट दिया गया है। भाजपा से लेकर कांग्रेस तक के पास सिनेमा से लेकर खेल
के मैदान तक सितारों की सूची है। संसदीय बहस में ये लोग नजर नहीं आते। यह केवल
पोस्टर छाप राजनीति है।
272 का फेर
असली सवाल है 272 का। यह नम्बर पूरा हो जाए चाहे जैसे हो।
इसे हासिल करने के लिए पहले से माहौल बनाया जाता है। हाल में एक स्टिंग ऑपरेशन में
चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों की पोल भी खुली, जो माहौल बनाने का काम करते हैं। ज्यादातर
सर्वेक्षण संकीर्ण उद्देश्यों को लेकर किए जाते हैं। मीडिया हाउसों ने अपनी साख को
बट्टा लगाने में कसर नहीं छोड़ी है। बहरहाल सर्वेक्षण फिर भी हो रहे हैं। लगभग सभी
में यूपीए की पराजय और भारतीय जनता पार्टी और एनडीए की बढ़त की घोषणा हो रही है।
सामान्य समझ भी कहती है कि फिलहाल कांग्रेस का सूर्य अस्ताचल पर है।
गणित कहता है कि एनडीए 200 सीटों के आसपास आ जाए तो 72 की
व्यवस्था सम्भव है, क्योंकि कांग्रेस और भाजपा के बाद शेष बचे दलों में काफी ऐसे
हैं जो किसी भी कीमत पर सत्ता में रहना चाहते हैं। उनकी यह राजनीति अपनी ताकत को
बढ़ाने के अलावा उन कानूनी कार्रवाइयों से बचने के लिए भी है, जो किसी भी वक्त
उनकी गर्दन थाम सकती है। भारतीय राजनीति में ‘गर्दन बचाओ’ रणनीति आने वाले राष्ट्रीय गठबंधनों को जन्म देगी। आम आदमी
पार्टी की राजनीति ने मुख्यधारा की राजनीति का भंडाफोड़ करके सामान्य वोटर के मन
में पूरी व्यवस्था को लेकर एक प्रकार की वितृष्णा पैदा की है। ऐसा करते हुए ‘आप’
ने स्वयं को एक विकल्प के रूप में तैयार जरूर किया था, पर यह अपने अंतर्विरोधों के
कारण जन भावना का लाभ उठाने में कामयाब नहीं हुई।
अभी तक राजनीति का मतलब हम पार्टियों के गठबंधन, सरकार बनाने के दावों और आरोपों-प्रत्यारोपों तक सीमित
मानते थे। एक अर्थ में राजनीति के मायने चालबाज़ी, जोड़तोड़ और जालसाज़ी हो गए थे। दिसम्बर में अचानक भारतीय राजनीति की परिभाषा
में कुछ नई बातें जुड़ीं थीं। ‘आप’ के रूप में नए किस्म की राजनीति की उदय होता
नजर आया। यह राजनीति देश के शहरों और गाँवों तक जाएगी। दिल्ली की प्रयोगशाला में
इसका परीक्षण हुआ। इसके पीछे कारण ‘आप’ नहीं, बल्कि वह वोटर है जिसने ‘आप’ को ताकत
दी। नए समय की राजनीति के पीछे वोटर खड़ा है। इस अर्थ में ‘आप’ की जीत वोटर की जीत
है। आम धारणा है कि देश का मध्य वर्ग, प्रोफेशनल युवा और स्त्रियाँ ज्यादा सक्रियता के साथ राजनीति में प्रवेश कर गए
हैं, पर केवल इतनी बात नहीं
है।
दिल्ली की प्रयोगशाला छोटी थी। देश के दूसरे इलाकों में जाने
के पहले ‘आप’ को अपने लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए थे। पर यह पार्टी जल्दी में है। हालांकि
उसकी अपील छोटे शहरों और गाँवों तक जा पहुँची है, पर असर महानगरों में ही है। कहना मुश्किल है कि इस चुनाव में दिल्ली जैसी
स्थिति होगी या नहीं। लोकसभा की 542 में से 216 सीटें शहरी या अर्ध शहरी
हैं। ‘आप’ यदि इनमें से 15-20 फीसदी यानी 30-40 सीट भी हासिल कर ले तो वह
तीसरे नम्बर की पार्टी होगी। पर तब यह देखना होगा कि नुकसान किसका होगा। तीसरे
मोर्चे की अवधारणा का सूत्र भी वह बन सकती है। हाल में केजरीवाल ने साम्प्रदायिकता
को भ्रष्टाचार से बड़ी समस्या घोषित करके अपने झुकाव को स्पष्ट करने की कोशिश की
है। पर इस पार्टी पर कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने के आरोप भी लगे हैं। यह बात
उसे चुनाव में नुकसान पहुँचाएगी।
प्रि-पेड़ बनाम पोस्ट-पेड मोर्चा
वामपंथी दल और
मुलायम सिंह यादव तीसरे मोर्चे के पक्षधर रहे हैं। देश में तीसरे मोर्चे की सरकार
आज तक नहीं बनी और न बनने के करीब आई। लगता नहीं कि इस चुनाव में भी ऐसी नौबत
आएगी। जब तक तीसरा मोर्चा 272 से ज्यादा सीटें लाने की स्थिति में न हो, उसके
कर्णधारों को यह बात सोचनी भी नहीं चाहिए। पर किसी न किसी मोर्चे का महत्व तो
होगा। कब होगा और कैसे होगा, यह चुनाव के बाद समझ में आएगा।ममता बनर्जी ने पिछले
महीने कहीं कहा था कि राजनीति में फिलहाल ‘पोस्ट पेड’ का ज़माना है ‘प्री पेड’ का
नहीं।बावजूद इसके पिछले महीने 25 फरवरी को प्रकाश करात ने अपनी ‘प्री पेड’ स्कीम की घोषणा करते हुए
तीसरा मोर्चा बनाया। बताया गया कि 11 दल इस मोर्चे में शामिल हैं। सपा सुप्रीमो
मुलायम बोले कि इन पार्टियों की संख्या 15 तक हो जाएगी। शरद यादव के शब्दों में यह
तीसरा नहीं पहला मोर्चा है। जिस वक्त यह घोषणा की गई उस वक्त प्रकाश करात, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव,नीतीश कुमार, एबी बर्धन और एचडी
देवेगौड़ा मौजूद थे। करात ने बताया कि कुछ जरूरी वजहों से असम गण परिषद और बीजेडी
के अध्यक्ष इस बैठक में शामिल नहीं हो सके, लेकिन वे तीसरे मोर्चे के साथ हैं। जयललिता भी इस बैठक में
नहीं थीं।
इस घोषणा के ठीक
बारह दिन बाद जयललिता ने मोर्चे की हवा निकाल दी। शायद इसी अंदेशे में कई नेता
तीसरे मोर्चे की घोषणा करने से कतरा रहे थे। पर नेताओं का एक वर्ग ऐसा था जो तमाम
अंतर्विरोधों के बावजूद मोर्चा बना लेना चाहता था। अब इस मोर्चे के तीन मुख्य
सूत्रधार बचे हैं। प्रकाश करात, मुलायम और नीतीश। सच यह है कि ममता, माया और जया
की राजनीतिक ताकत समूचे तीसरे मोर्चे से ज्यादा है। और भविष्य की राजनीति में इन
तीन का संख्याबल ही बढ़ता दिखाई पड़ता है। वाम, सपा और जेडीयू खतरे के निशान पर
हैं। पानी इनकी नाक के पास है। बीजद और अगप को अलग कर दें तो तीसरा मोर्चा बनने के
पहले बिखर गया है।
‘मजमा’ महात्म्य
देश की राजनीति
में एनडीए और यूपीए के बाद तीसरी ताकत को खोजें तो वह किसी एक गठबंधन के रूप में
नजर नहीं आती। आम आदमी पार्टी के बारे में अब भी कुछ नहीं कहा जा सकता। ममता, जया
और माया का ‘मजमा’ तीसरी ताकत बन सकता है। इसमें अभी तक मायावती की कोई पहल दिखाई नहीं पड़ती
है। अलबत्ता तीनों महिलाओं का अपनी पार्टियों पर पूर्ण नियंत्रण है। हालांकि अतीत
में तीनों की भूमिका जबर्दस्त उतार-चढ़ाव वाली रही है, पर केवल यही मोर्चा ऐसा है
जो यूपीए और एनडीए दोनों में से किसी के साथ सहयोग कर सकता है। वाम, सपा और जेडीयू
के विकल्प सीमित हैं। वे ज्यादा से ज्यादा यूपीए से गठजोड़ कर सकते हैं। तीनों के
संख्याबल में गिरावट का अंदेशा है। यूपीए तो संकट के कगार पर है ही। पिछले महीने
जब तीसरे मोर्चे की घोषणा की गई थी, तब लगा कि ममता बनर्जी अलग-थलग पड़ गईं हैं।
अब लगता है कि तुरुप का पत्ता ममता और जया के पास है।
तीसरे मोर्चे की
कल्पना निरर्थक और निराधार नहीं है। देश की सांस्कृतिक बहुलता और सुगठित संघीय
व्यवस्था की रचना के लिए इसकी ज़रूरत है। पर राजनीतिक कर्णधार चुनाव में उतरने के
पहले एक सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम लेकर नहीं आना चाहते। सन 2009 के लोकसभा चुनाव
के पहले वाम मोर्चे ने बसपा, बीजद, तेदेपा, अद्रमुक, जेडीएस, हजकां, पीएमके और एमडीएमके के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय
प्रगतिशील मोर्चा बनाया। चुनाव से पहले इस मोर्चे
के सदस्यों की संख्या 102 थी जो चुनाव के बाद 80 रह गई। पन्द्रहवीं लोकसभा में इस
मोर्चे ने राजनीतिक धरातल पर कोई महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा नहीं की। बसपा ने यूपीए
का साथ दिया। तेदेपा अब भाजपा के सम्पर्क में है। समाजवादी पार्टी बाहरी तौर पर
कितना भी शोर मचाए पर सरकार को उसका व्यवहारिक समर्थन जारी रहा।
चुनाव के गणित को
देखते हुए क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण साबित होगी। यह मोर्चा चुनाव से
पहले बनाने पर तभी लाभकारी होगा जब एक दल का वोट दूसरे दल को मिले। साथ ही यह
गारंटी हो कि चुनाव के बाद भी बना रहेगा। हाँ मोर्चे का आभास देकर ऐसा माहौल बनाया
जा सकता है कि कोई नई ताकत उभरने वाली है। इसका केवल प्रचारात्मक महत्व है। चुनाव
के बाद यदि कोई दबाव समूह मिलकर काम करे तो वह सत्ता में भागीदारी कर सकता है।
सवाल है कि क्या तीसरे मोर्चे के नेतृत्व में सरकार बनेगी? गणित को देखें तो तीसरे
मोर्चे के दल इतनी सीटों पर चुनाव ही नहीं लड़ने वाले हैं कि सरकार बनाने के बारे
में सोचें। उनकी जीत की सर्वश्रेष्ठ सम्भावना 50-60 सीटों से ज्यादा की नहीं है।
इनसे ज्यादा सीटें ममता, जया और माया को मिलेंगी। यदि इन दोनों मोर्चों की सीटें
200 के आसपास हो जाएं तब कहें कि क्षेत्रीय दलों की सरकार बन सकती है। वह भी यूपीए
या एनडीए के सहयोग के बगैर सम्भव नहीं होगा।
एनडीए या यूपीए
में से किसी की सरकार बने तो भी उसे बाहरी मोर्चे की मदद लेनी होगी। इस स्थिति में
भी यह महिला मोर्चा ज्यादा प्रभावशाली होगा। इसके पास ज्यादा सीटें होंगी। इसे
मोर्चा कहना जल्दबाजी होगी। पर जिस तरह से जयललिता ने तीसरा मोर्चा छोड़कर ममता
बनर्जी से बात की है उससे इतना समझ में आता है कि उनके बीच कोई समझदारी विकसित हुई
है। जयललिता जाने-अनजाने ममता विरोधी सीपीएम के पाले में चली गईं थीं। उन्होंने
देर से ही सही हाथ खींच लिए। नवीन पटनायक की पार्टी मूलतः कांग्रेस विरोधी है।
उसके लिए यूपीए को समर्थन देना दिक्कत तलब होगा। वह भी चुनाव परिणामों का इंतजार
करेगी। फिलहाल ममता बनर्जी ने जो पहलकदमी की है उसपर नजर रखनी चाहिए।
कूड़ेदान में ‘नई राजनीति’
फिलहाल नई राजनीति
कूड़ेदान में पड़ी दिखाई देती है। जो उम्मीदें दिसम्बर में थी, वे आज नहीं हैं। पर
अगले दो-तीन महीनों में क्या हो सकता है इसके बारे में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना
गलत होगा। कई बातें हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं स्पष्ट कर रहीं है। मसलन सुप्रीम
कोर्ट ने सभी अदालतों को निर्देश दिया है कि चुने हुए प्रतिनिधियों के खिलाफ
मुकदमों की सुनवाई एक साल में पूरी करें। इससे काफी बातें साफ होंगी। अभी तक हमारे
यहाँ मुकदमे बहुत लम्बे चलते रहे हैं। सच यह है कि अदालती हस्तक्षेप ने व्यवस्था
को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पर असली परीक्षा राजनीति की है।
क्या कोई ऐसी राजनीति है जो जनता की भावनाओं को पूरा करती हो? इसका जवाब इस
चुनाव में मिलेगा।
नई राजनीति क्या है? सन 1947 में जब देश आज़ाद हुआ था, तब भी हमारी राजनीति नई थी। जनता को उससे अपेक्षाएं थीं।
ज्यादातर चेहरे नए थे। यानी जितने भी राजनीतिक दल थे उनमें से ज्यादातर दल आम आदमी
पार्टी जैसे थे। पर 1967 आते-आते वह राजनीति असहनीय हो गई और जनता ने सात-आठ
राज्यों में कांग्रेस को अपदस्थ कर दिया। और तब फिर आम आदमी पार्टी जैसी नई ताकतें
सामने आईं। सन 1971 में इंदिरा गांधी नई उम्मीदें लेकर सामने आईं। उन्होंने सबसे
बड़ा वादा किया। गरीबी हटाने का। अपेक्षाएं इतनी बड़ी थीं कि जनता ने उन्हें
समर्थन देने में देर नहीं कि। पर बदले में क्या मिला? पाँच साल के भीतर इंदिरा गांधी की सरकार अलोकप्रियता के
गड्ढे में जा गिरी। सन 1977 में उन्हें भारी शिकस्त ही नहीं मिली थी। एक नए
राजनीतिक जमावड़े का ऐतिहासिक स्वागत हुआ। और साल भर के भीतर इस जमावड़े के
अंतर्विरोध सामने आने लगे। सन 1984 में जब राजीव गांधी जीते, तब वे ईमानदार और भविष्य की ओर देखने वाले राजनेता के रूप में
सामने आए थे। यह वह दौर था जब अरुण शौरी इसी तरह की ‘ईमानदार राजनीति’ की बात कर
रहे थे जैसे आज अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं।
ऐसा नहीं कि राजनीति बदलना नहीं चाहती। या वह बदली नहीं जा
सकती। उसे बदलने के लिए वोटर के तमाचे की जरूरत है। अभी तक हम मानते रहे हैं कि
वोट देने के बाद जनता की भूमिका खत्म। जैसे-जैसे वोटर की भूमिका बदल रही है, राजनीति बदल रही है। सारा बदलाव भीतर से ही नहीं है। बाहर
से भी है। चुनाव सुधार का ज्यादातर काम चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के दबाव से
हुआ। राजनीतिक दलों ने यथा संभव इन सुधारों का विरोध किया। हाल में दागी सांसदों
की सदस्यता जारी रखने वाले अध्यादेश की किसी पार्टी ने विरोध नहीं किया था। राहुल
गांधी को भी इसकी देर से याद आई, अन्यथा वह अध्यादेश राष्ट्रपति के पास जाता ही क्यों? लोकपाल विधेयक को लेकर सन 2011 अप्रैल से लेकर दिसंबर के
आखिरी हफ्ते तक जद्दोजहद चलती रही। सिटिजन चार्टर विधेयक पेश कर दिया। लोकपाल
विधेयक लोकसभा से पास हो गया। संसद के आखिरी सत्र में ह्विसिल ब्लोवर कानून पास हो
गया, पर राहुल गांधी, जिन अन्य कानूनों को पास कराना चाहते थे, उन्हें पास नहीं
किया जा सका। वस्तुतः सारी कोशिश इतनी देर से और इतने घटिया कारणों से शुरू की गई
थी कि उसे उत्साहवर्धक माना ही नहीं जा सकता था।
राज माया में प्रकाशित
राज माया में प्रकाशित
बहुत सुन्दर विश्लेषात्मक लेख !
ReplyDeleteलेटेस्ट पोस्ट कुछ मुक्तक !