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Sunday, December 29, 2013

राहुल बनाम मोदी बनाम 'आप'

सन 2013 में साल की शुरुआत नौजवानों, खासकर महिलाओं की नाराजगी के साथ हुई थी। दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ वह आंदोलन किसी भी नज़रिए से राजनीतिक नहीं था। पर उस आंदोलन ने बताया कि भारतीय राजनीति में युवाओं और महिलाओं की उपस्थिति बढ़ रही है। राजनीति का समुद्र मंथन निरंतर चलता रहता है। साल का अंत होते-होते सागर से लोकपाल रूपी अमृत कलश निकल कर आया है। रोचक बात यह है कि पार्टियों की कामधेनु बने वोटर को यह अमृत तब मिला जब वह खुद इसके बारे में भूल चुका था। संसद के इस सत्र में लोकपाल विधेयक पास करने की योजना नहीं थी। पर उत्तर भारत की चार विधानसभाओं के चुनाव परिणामों ने सरकार को इतना भयभीत कर दिया कि आनन-फानन यह कानून पास हो गया।

बावजूद इसके इस साल की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना लोकपाल विधेयक का पास होना नहीं है। बल्कि आम आदमी पार्टी का उदय है। विडंबना है कि जिस लोकपाल कानून के नाम पर आप का जन्म हुआ, वही इसकी सबसे बड़ी विरोधी है। आप किसी सकारात्मक राजनीति का परिणाम न होकर विरोध की देन है। दिसंबर 2011 के अंतिम सप्ताह में लोकपाल विधेयक को लोकसभा से पास करके जिस तरह राज्यसभा में अटका दिया गया, उससे अन्ना हजारे को नहीं देश की जनता के मन को ठेस लगी थी। अन्ना के आंदोलन के साथ यों भी पूरा देश नहीं था। वह आंदोलन दिल्ली तक केंद्रित था और मीडिया के सहारे चल रहा था। पर भ्रष्टाचार को लेकर जनता की नाराजगी अपनी जगह थी। इस साल मार्च में पवन बंसल और अश्विनी कुमार को अलग-अलग कारणों से जब पद छोड़ने पड़े तब भी ज़ाहिर हुआ कि जनता के मन में यूपीए सरकार के खिलाफ नाराज़गी घर कर चुकी है। उन्हीं दिनों सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को तोता नाम से विभूषित किया था।

जनता को पूरा विश्वास है कि सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल किया जाता है। उसे यह यकीन भी है कि समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह और बसपा की मायावती का केंद्र सरकार को प्राप्त समर्थन सीबीआई के कारण है। मुलायम सिंह और मायावती अनेक बार इस बात को रेखांकित कर चुके हैं कि केंद्र सरकार सीबीआई की धमकी देती है। इस साल अप्रैल में डीएमके नेता एमके स्टैलिन के यहाँ पड़े छापों के बाद प्रधानमंत्री तक असमंजस में आ गए थे। हालांकि वह छापा नियमानुसार था, पर प्रधानमंत्री तक को यकीन हो गया कि यह राजनीतिक कारणों से डाला गया। यह संगठन इतना बदनाम हो चुका है कि सही छापे मारता हो तब भी गलत लगता है।

राजनीतिक दृष्टि से यह साल राहुल बनाम मोदी का साल था। नरेंद्र मोदी का नाम अनेक कारणों से देश के लोगों की जबान पर है। फिर भी पिछले साल तक कोई निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता था कि वे भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी घोषित होंगे। बल्कि इस साल जनवरी में कांग्रेस पार्टी पर्याप्त संगठित और चुनाव की दृष्टि से तैयार नजर आती थी। इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी अंदरूनी कलह से घिरी हुई थी। इसी अनिश्चय के माहौल में जनवरी नितिन गडकरी को पद छोड़ना पड़ा और राजनाथ सिंह ने पार्टी अध्यक्ष का पद सँभाला। मई में कर्नाटक में पार्टी की जबरदस्त हार हुई। कांग्रेस के हौसले बढ़े। इसके बाद जून में भाजपा कार्यकारिणी की गोवा में हुई बैठक के बाद भाजपा में कुछ नाटकीय घटनाएं हुईं। इनकी परिणति 14 सितंबर को पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के साथ हुई।

इसके विपरीत पिछले साल नवंबर में कांग्रेस ने राहुल गांधी को सन 2014 के चुनाव संचालन की जिम्मेदारी सौंप दी थी। जनवरी में जयपुर के चिंतन शिविर में राहुल को बाकायदा पार्टी उपाध्यक्ष घोषित करके उन्हें दूसरे नंबर का नेता औपचारिक रूप से घोषित कर दिया था। अप्रैल के पहले हफ्ते में सीआईआई की एक गोष्ठी में उन्होंने अपना दृष्टिकोण देश के सामने रखा। राहुल का वह भाषण बेहद संजीदा था। वे नहीं जानते रहे होंगे कि आने वाले दिनों में उन्हें पप्पू बना दिया जाएगा। राहुल के भाषण के चार दिन बाद ही फिक्की की महिला शाखा में नरेंद्र मोदी का भाषण हुआ। उसमें मोदी ने अपनी वाक् पटुता का परिचय दिया। मोदी ने दिल्ली में इसके कुछ दिन पहले ही श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में पी2जी2, स्किल, स्केल और स्पीड, माउस चार्मर का देश, फाइबर टू फैशन, गुजरात का नमक और आधा भरा गिलास जैसे नौजवानों के जुम्लों में समझाए थे। इन दो भाषणों से ही यह स्थापित हो गया कि मंच कला में वे राहुल से बेहतर हैं।

मुकाबले को राहुल बनाम मोदी बनाने की योजना राहुल की नहीं मोदी की थी। उन्होंने खुद को राहुल के मुकाबले सायास खड़ा किया। यह जानते हुए कि उनकी अपनी पार्टी उनके साथ नहीं है। नरेंद्र मोदी गेट क्रैश करके शिखर पर आए हैं। उनके पीछे पार्टी का सामान्य कार्यकर्ता तो था, बड़े नेता नहीं। पिछले साल मुम्बई में हुई पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में वे शामिल हुए थे। तब तक बड़े नेता उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर आने ही नहीं दे रहे थे। यह मोदी के मीडिया मैनेजरों की योजना का हिस्सा था कि संजीदा राहुल को पप्पू नाम मिल गया। उनकी सारी संजीदगी खत्म कर दी। बेशक जवाब में मोदी को फेंकू का नाम मिला, पर उन्होंने आक्रामकता में सब कुछ छिपा लिया। उनके भाषणों में बड़ी-बड़ी तथ्यात्मक गलतियाँ भी इस आक्रामकता ने छिपा लीं। इस आक्रामकता का चरम रूप 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के लालकिले से दिए गए भाषण के जवाब में था। मोदी ने एक ओर कांग्रेस के नेतृत्व को निशाना बनाया और दूसरी ओर पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं, खासकर लालकृष्ण आडवाणी को अपनी राह से हटाया। साल के शुरू में भारतीय जनता पार्टी 2014 के चुनाव में कोई बड़ी चुनौती देती नज़र नहीं आती थी। पर अब वह बड़ी दावेदार है। खासतौर से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बड़ी जीत से करके और दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने से उसके कार्यकर्ताओं में उत्साह है।

जनवरी 2013 में हुए इंडिया टुडे-नील्सन और एबीपी न्यूज-नील्सन के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे के अनुसार देश में चुनाव होने पर भाजपा की अगुआई वाला एनडीए कांग्रेस के नेतृत्व में सत्तारूढ़ यूपीए-2 पर भारी पड़ेगा। फिर मई में कुछ सर्वेक्षणों से यह बात उभर कर आई कि कांग्रेस हार जाएगी। मतलब नहीं कि भाजपा जीत जाएगी। मतलब सिर्फ इतना था कि जनता आज के हालात से नाराज़ है। जुलाई के अंतिम सप्ताह में सीएसडीएस के सर्वेक्षण का परिणाम था कि देश के दस सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में से आठ में कांग्रेस संकट में है। इन दस राज्यों में 399 सीटें हैं। इनमें से 164 सीटें पिछली बार कांग्रेस और उसके सहयोगियों के पास थीं।


पिछले दो साल से सुनाई पड़ रहा है कि यह क्षेत्रीय दलों का दौर है। और इस उम्मीद के कारण लगभग हर प्रांत में प्रधानमंत्री पद के दो-दो तीन-तीन दावेदार पैदा हो गए हैं। पिछले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुलायम सिंह ने घोषणा की थी कि लोकसभा चुनाव समय से पहले होंगे। उनका यह भी कहना है कि अगली सरकार तीसरे मोर्चे की होगी। कौन बनाएगा यह तीसरा मोर्चा? इस साल ममता बनर्जी ने एक बार संघीय मोर्चे की पेशकश की, पर कहीं से समर्थन नहीं मिला। अलबत्ता साल खत्म होते-होते आप के रूप में एक नए किस्म की राजनीतिक शक्ति का उदय होता नजर आ रहा है। जनता की चाहत भी किसी आप की ओर निर्णायक रूप से इशारा नहीं कर रही है। अलबत्ता आप के साथ जनता की हमदर्दी है। मुश्किल है कहना कि आप कोई निर्णायक ताकत बनकर उभरेगी भी या नहीं। पर इस साल की राजनीति के दो सबसे बड़े निष्कर्ष दीवार पर लिखे हुए हैं। पहला यह कि कांग्रेस का पराभव हो रहा है। दूसरा यह कि देश की जनता नई तरह की राजनीति चाहती है। 

1 comment:

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