तमाम विफलताओं के बावजूद विस्तार की राह पर है मीडिया
दिल्ली में विधानसभा चुनाव की गतिविधियाँ तब शुरू ही हुईं थीं। एक दिन अचानक मोबाइल फोन की घंटी बजी। ‘हेलो मैं अरविंद केजरीवाल बोल रहा हूँ। फोन काटिए मत यह रिकॉर्डेड मैसेज है.....।’ अपनी बात कहने का यह एक नया तरीका था। यह एक शुरुआत थी। इसके बाद इस किस्म के तमाम फोन और एसएमएस आए। ऐसे फोन भी आए, जिनमें अरविंद केजरीवाल या उनकी पार्टी के खिलाफ संदेश था। इसमें दो राय नहीं कि इन चुनावों में ‘न्यू मीडिया’ का जबरदस्त हस्तक्षेप था। ईआरआईएस ज्ञान फाउंडेशन और भारतीय इंटरनेट एवं मोबाइल संघ द्वारा कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2014 में होने वाले अगले आम चुनाव में सोशल मीडिया लोकसभा की 160 सीटों को प्रभावित करेगा। यह बात इन विधानसभा चुनावों में दिखाई भी दी। अध्ययन में कहा गया है कि अगले आम चुनाव में लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 160 अहम सीटों पर सोशल मीडिया का प्रभाव रहने की संभावना है, जिनमें महाराष्ट्र में सबसे हाई इम्पैक्ट वाली 21 सीटें और गुजरात में 17 सीटें शामिल है। आशय उन सीटों से है, जहां पिछले लोकसभा चुनाव में विजयी उम्मीदवार के जीत का अंतर फेसबुक का प्रयोग करने वालों से कम है अथवा जिन सीटों पर फेसबुक का प्रयोग करने वालों की संख्या कुल मतदाताओं की संख्या का 10 प्रतिशत है।
भारत में ट्विटर और फेसबुक अपेक्षाकृत लोकप्रिय है। इस साल अप्रेल के अंत तक फेसबुक में भारत के 8.2 करोड़ से ज्यादा लोग शामिल थे। अमेरिका के बाद दूसरे नम्बर पर फेसबुक प्रयोक्ता भारत से हैं। ट्विटर का इस्तेमाल करने वालों में भारत का छठा स्थान है। गुणवत्ता के लिहाज से ब्लॉगिंग से लेखकों और पाठकों की गुणवत्ता का पता लगता है। हाल के वर्षों में हिन्दी ब्लॉगिंग का विस्तार हुआ है, पर वह संख्या बल को देखते हुए काफी कम है। ज्ञान और विमर्श का यह विस्तार अपने साथ बदलावों की आँधी लेकर आ रहा है। इस आँधी मीडिया का श्रेय मीडिया को जाएगा। सवाल है कि क्या हमारा मीडिया इसके लिए तैयार है? दूसरा सवाल है कि क्या वह इतना जिम्मेदार है? क्या उसकी साख बढ़ रही है? जानकारी की यह बारिश क्या हमारे भ्रम नहीं बढ़ा रही है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब देना तभी संभव होगा, जब विस्तार की आँधी थमेगी। तकनीकी बदलाव के कारण इसकी शक्ल बदलती जा रही है। हम इसके फॉर्म से घबरा गए हैं। इसके कंटेंट पर बात नहीं करते। अंततः यह लोकतांत्रिक गतिविधियों का हिस्सा है और इसके केंद्र में मनुष्य है। इसलिए जो होगा वह ठीक होगा।
मीडिया का विस्तार
भारतीय मीडिया के लिए सन 2013 का साल बेहद रोमांचक, रोचक और कारोबार के लिहाज से उत्साहवर्धक रहा। बावजूद इसके कि देश की अर्थव्यवस्था में गिरावट का माहौल है। इस साल की फिक्की-केपीएमजी रिपोर्ट के अनुसार भारत में मीडिया और मनोरंजन उद्योग 11 से 12 फीसदी की दर से बढ़ेगा। सन 2012 में इस उद्योग ने 821 अरब रुपए का कारोबार किया था, जो इस साल 917 अरब रुपए तक पहुंचने की संभावना है। रिपोर्ट के अनुसार सन 2017 तक यह उद्योग औसतन 10.6 फीसदी की दर से बढ़ेगा। देश के दूसरे उद्योगों के मुकाबले यह गति अच्छी है। इस पूरे कारोबार में सबसे तेज गति से विकास डिजिटल विज्ञापन के क्षेत्र में हो रहा है, जिसकी विकास दर 40 फीसदी से ज्यादा है। अलबत्ता यह कारोबार अभी काफी छोटा है। सन 2012 में डिजिटल विज्ञापन 21.7 अरब रुपए का था, जो इस साल बढ़कर 30 अरब रुपए से ऊपर हो सकता है। पर पूरे कारोबार को देखते हुए अभी यह काफी छोटा है।
इंटरनेट, मोबाइल टेलीफोन और ब्रॉडबैंड के लिहाज से भारत हालांकि अभी काफी पीछे है, पर उसकी गति लगातार बढ़ रही है। मीडिया की गति को देखते हुए कहना मुश्किल है कि दिसंबर 2014 में हम कहाँ होंगे। भारत के दूरसंचार विभाग ने इस साल ब्रॉडबैंड की परिभाषा में 512 केबीपीएस की गति को न्यूनतम माना है। देश की सबसे तेज सेवाएं अब भी 10 एमबीपीएस के आसपास हैं, जबकि हांगकांग में 63.6, जापान में 50, रोमानिया में 47.9 और दक्षिण कोरिया में 44.8 एमबीपीएस है। भारत में औसत गति 1.3 एमबीपीएस है, जिसके आधार पर उसका दुनिया में 114 वाँ स्थान है।
हिंदी का महत्व
अब आपके मोबाइल फोन में हिंदी है। गूगल के कार्याधिकारी अध्यक्ष एरिक श्मिट ने कुछ साल पहले कहा था कि आने वाले पाँच से दस साल के भीतर भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट बाज़ार बन जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ बरसों में इंटरनेट पर जिन तीन भाषाओं का दबदबा होगा वे हैं- हिन्दी, मंडारिन और अंग्रेजी। भारत के संदर्भ में कहें तो आईटी के इस्तेमाल को हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में ढलना चाहिए। क्या ऐसा होगा? हमारे पास संख्या बल है। पर क्या हम अपनी भाषा को अहमियत देते हैं?
अंतरराष्ट्रीय एनालिटिक्स फर्म कॉमस्कोर के अनुसार इस साल के शुरू में भारत में तकरीबन साढ़े सात करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे थे। हालांकि भारत के ट्राई का अनुसार हमारे यहाँ इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की तादाद 31 मार्च 2013 को 17.4 करोड़ थी। कॉमस्कोर की सूचना इसके मुकाबले काफी कम है। इसका कारण है कि वह जानकारी बुनियादी तौर पर पीसी के मार्फत इंटरनेट सर्फिंग की है। भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले आठ में से सात लोग अपने मोबाइल फोन से इंटरनेट सर्फ करते हैं। भारत ने इस साल इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के मामले में जापान को पीछे छोड़ते हुए चीन और अमेरिका के बाद तीसरा स्थान बना लिया है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत के इंटरनेट उपभोक्ताओं में तीन चौथाई की उम्र 35 साल से कम है। वैश्विक उपभोक्ताओं में तकरीबन आधे इस उम्र के हैं। यानी भारत की इंटरनेट शक्ति को हमें उसकी भावी शक्ल के नजरिए से भी देखना होगा। भारत में मोबाइल फोन धारकों की संख्या इस वक्त 55 करोड़ से ज्यादा है। इनमें से तकरीबन 30 करोड़ ग्रामीण इलाकों में रहते हैं।
गूगल के वैश्विक एरिक श्मिट इस साल मार्च के महीने में भारत आए थे। उनका कहना था कि सन 2020 तक भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 60 करोड़ से ऊपर होगी। इनमें से 30 करोड़ लोग हिन्दी तथा दूसरी भाषाओं में नेट सर्फ करेंगे। भारतीय भाषाओं के लिए गूगल खासतौर से अनुसंधान कर रहा है। गूगल ट्रांस्क्रिप्शन, ट्रांसलेशन तथा इसी प्रकार के काम। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमआई) तथा मार्केटिंग रिसर्च से जुड़ी संस्था आईएमआरबी ने पिछले कुछ साल से भारतीय भाषाओं में नेट सर्फिंग की स्थिति पर डेटा बनाना शुरू किया है। इस साल जनवरी में जारी इनकी रपट के अनुसार भारत में तकरीबन साढ़े चार करोड़ लोग भारतीय भाषाओं में नेट की सैर करते हैं। शहरों में तकरीबन 25 फीसदी और गाँवों में लगभग 64 फीसदी लोग भारतीय भाषाओं में नेट पर जाते हैं।
दिल्ली गैंगरेप
पिछले साल की शुरूआत दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ आंदोलन से हुई थी। कई दिन तक मीडिया पर यह घटना छाई रही। एक माने में नौजवानों और मीडिया ने इस एक मसले को लेकर भारतीय राजनीति को गुणात्मक रूप से बदल कर रख दिया। इसके संकेत कुछ मिल रहे हैं और कुछ आने वाले समय में मिलेंगे। चुनाव में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ने के पीछे अनेक अन्य कारणों के अलावा क कारण यह भी है। एक मीडिया हाउस ने पीड़ित लड़की को काल्पनिक नाम ‘दामिनी’ दिया तो किसी ने ‘निर्भया’। निर्भया नाम अंततः भारत सरकार ने भी स्वीकार किया और 2013-14 के बजट में स्त्रियों की सुरक्षा के लिए 1000 करोड़ रुपए का विशेष कोष बनाया गया, जिसे ‘निर्भया कोष’ का नाम दिया गया।
निर्भया के वास्तविक नाम को लेकर भी विवाद खड़ा हुआ। लंदन के ‘मिरर’ अखबार ने पीड़ित लड़की के पिता की अनुमति से उसका नाम ज़ाहिर कर दिया। दिल्ली पुलिस ने ज़ी न्यूज़ चैनल के खिलाफ एक मामला दर्ज किया, जिसमें आरोप था गैंगरेप के बाबत कुछ ऐसी जानकारियाँ सामने लाई गईं, जिनसे पीड़िता की पहचान ज़हिर होती है। इसके पहले एक अंग्रेजी दैनिक के खिलाफ पिछले हफ्ते ऐसा ही मामला दर्ज किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 228-ए के तहत समाचार पत्र के संपादक, प्रकाशक, मुद्रक, दो संवाददाताओं और संबंधित छायाकारों के खिलाफ मामला दर्ज किया। बलात्कार की शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू दिया था जिसमें उसने उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का विवरण दिया था। उस विवरण पर जाएं तो अनेक सवाल खड़े होते हैं। पर उससे पहले सवाल यह था कि जिस लड़की को लेकर देश के काफी बड़े हिस्से में रोष पैदा हुआ है, उसका नाम उजागर होगा तो क्या वह बदनाम हो जाएगी? उसकी बहादुरी की तारीफ करने के लिए उसका नाम पूरे देश को पता लगना चाहिए या कलंक की छाया से बचाने के लिए उसे गुमनामी में रहने दिया जाए? कुछ लोगों ने उसे अशोक पुरस्कार से सम्मानित करने का सुझाव दिया है। पर यह पुरस्कार किसे दिया जाए? पुरस्कार देना क्या उसकी पहचान बताना नहीं होगा? इसके बाद भारत के कुछ और अखबारों ने उसका नाम छापा। इस पर पुलिस ने कार्रवाई शुरू कर दी। यह सवाल विचार का विषय बना कि जिम्मेदार मीडिया को क्या करना चाहिए। इस बीच उस लड़की के पिता का यह वक्तव्य आया कि मैंने नाम ज़ाहिर करने की बात नहीं कही थी, सिर्फ इतना कहा था कि यदि सरकार उसके नाम पर कानून बनाना चाहती है तो हमें अच्छा लगेगा। बहरहाल मीडिया ने इस मामले में सावधानी बरती और उसके काल्पनिक नाम का प्रकाशन ही हुआ।
जनवरी के महीने में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दो मामले सामने आए। जयपुर लिटरेरी फोरम आशीष नन्दी के वक्तव्य को लेकर काफी समय तक मीडिया मंच गरमाए रहे। यह प्रकरण जिस वक्त उठा उसी समय कमलहासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ पर चर्चा चल रही थी। ‘विश्वरूपम’ हॉलीवुड जैसी एक्शनपैक्ड फिल्म है। यह किसी प्रकार की राजनीतिक-सांस्कृतिक अवधारणा को स्थापित नहीं करती। फिर भी उसका विरोध हुआ जिसमें राज्य सरकार और न्यायपालिका भी शामिल हुईं। इस फिल्म का लंबे समय तक दक्षिण भारत के तीन राज्यों में प्रदर्शन रुका रहा। लगता है कि हमारा सामना बहुमुखी असहिष्णुता से है, जिसमें एक ओर सामंती प्रवृत्तियाँ हैं और दूसरी ओर आधुनिक राज-व्यवस्था और मसाला-मस्ती में डूबी आधुनिकता है। औपचारिक रूप से किताबों पर पाबंदी लगाने वाले देशों की सूची में भारत काफी आगे है। हमारे यहाँ फिल्में सेंसर होती हैं, पर एक बार सेंसर होने के बाद भी उन्हें रोकने वाली ताकतें हमारे देश में मौज़ूद हैं। ऐसे में सरकारों के पास कानून-व्यवस्था बनाए रखने का बहाना होता है। उनकी दिलचस्पी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सहारा देने में नहीं होती। उन्हें उसका महत्व समझ में भी नहीं आता। सन 2011 में प्रकाश झा की फिल्म ‘आरक्षण’ के साथ ऐसा ही हुआ था। उसके पहले फिल्म ‘राजनीति’ को लेकर इसी प्रकार की आपत्तियाँ थीं। दो दशक पहले फिल्म मणिरत्नम की फिल्म ‘बॉम्बे’ के प्रदर्शन के समय भी ऐसा ही विरोध था।
अमर्त्य सेन के अनुसार,अभी मीडिया में दो बड़े ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस की जरूरत है। पहला मुद्दा मीडिया की आंतरिक अनुशासन और दूसरा मीडिया और समाज के बीच संबंध का। वे कहते हैं कि मैं ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ और ‘द हिंदू’ का नाम लेना चाहूंगा, जो अपनी गलत सूचनाओं के बारे में स्पष्टीकरण भी छापते हैं। वे बताते हैं कि तथ्यों के आधार पर फलां खबर सही नहीं थी। ऐसा अन्य अखबारों को भी करना चाहिए। न्यूज़ चैनलों को भी।
स्टूडियो उन्माद
यह एक नया शब्द है। भारतीय मीडिया का सबसे पसंदीदा विषय भारत-पाक तनाव है। इस साल के शुरू से ही मीडिया को इसका मौका मिला और उसने इसका भरपूर लाभ उठाया. जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पिछले साल के अंत से ही तनाव था। जनवरी के पहले हफ्ते में दो भारतीय सैनिकों की गर्दन काटे जाने पर यह तनाव बढ़ गया और टीवी चैनलों का बहस का मुख्य विषय बना रहा। इसके बाद अजमल कसाब और अफजल गुरु की फाँसी ने मीडिया का ध्यान सबसे ज्यादा आकृष्ट किया। लाहौर के कोट लखपत जेल में भारतीय कैदी सरबजीत की हत्या के बाद मीडिया कवरेज ने उन्माद की शक्ल ले ली। अगस्त के पहले सप्ताह में नियंत्रण रेखा पर पाँच भारतीय सैनिकों की हत्या भी मीडिया के विमर्श में रही। जिस तरह भारत-पाकिस्तान का मसला मीडिया को भाता है उसी तरह चीन के साथ तनातनी भी भारतीय मीडिया का महत्वपूर्ण विषय बनती है। इस साल लद्दाख के दौलत बेग ओल्दी इलाके में चीनी सैनिकों की घुसपैठ के दौरान मीडिया का सारा ध्यान इसी बात पर केंद्रित रहा।
हमारे मीडिया का कोई नियम नहीं है कि वह किस विषय पर कितना ध्यान देगा। निर्भर इस बात पर करता है कि किस खबर में सनसनी का कितना तत्व है। क्रिकेट हमारे मीडिया का सबसे प्रिय विषय है, और मैच या स्पॉट फिक्सिंग उससे भी ज्यादा प्रिय। विन्दु दारा सिंह की गिरफ्तारी की खबर ऐसी छाई कि उस दौरान नरेन्द्र मोदी की दिल्ली यात्रा की खबर सामने आ ही नहीं पाई। कोलगेट, टूजी, सीबीआई वगैरह पीछे रह गए हैं। इसी तरह लद्दाख का मसला मीडिया पर छाया रहा, पर जब चीनी प्रधानमंत्री दिल्ली आए तो उसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया। पाकिस्तान का चुनाव एक दिन का रोमांच पैदा कर पाए। मीडिया के मुँह में रोमांच का खून लग गया है। जंगल के शेर की तरह उसे हर रोज़ और हर समय रोमांच से भरा एक शिकार चाहिए।
यह प्रवृत्ति स्थायी नहीं है। ब्रॉडकास्टिंग एडिटर्स एसोसिएशन इस दिशा में ध्यान दे रही है। कम से कम अब शिकायतों की सुनवाई संभव है। दूसरी और ट्राई ने कुछ और मसलों की और ध्यान दिया है। खासतौर से ट्राई ने चैनलों पर विज्ञापनों की समय सीमा का निर्देश जारी किया है। चैनल अभी इस मसले से जुड़े कानूनी रास्तों पर विचार कर रहे हैं। उन्होंने टेलीकॉम डिस्प्यूट्स सैटलमेंट फोरम में अपील की है, जिसे फोरम ने अस्वीकार कर दिया है। अब संभवतः वे हाईकोर्ट जाएंगे। मीडिया की स्वतंत्रता और उसकी जिम्मेदारी दोनों की परीक्षा जमीन पर होती है।
राहुल बनाम मोदी
मीडिया के लिहाज से यह साल राहुल बनाम मोदी के नाम रहा। अप्रैल के पहले सप्ताह में सीआईआई की सभा में राहुल गांधी का भाषण और फिर चार दिन बाद फिक्की की महिला शाखा की सभा में नरेंद्र मोदी का भाषण इस साल मीडिया के राजनीतिक एजेंडा को सेट कर गए हैं जो लगता है अगले लोक सभा चुनाव तक चलेगा। इस साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के जवाब में नरेंद्र मोदी का भाषण एक प्रकार से मीडिया ईवेंट ही था। लाइव मीडिया की उपस्थिति ने इस घटना को सनसनीखेज बना दिया। इसके बाद भाजपा की कर्नाटक में पराजय, गोवा में बैठक और नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ाने का फैसला, आडवाणी जी का रूठना और फिर मान जाना बड़े मीडिया ईवेंट साबित हुए।
जून के महीने में उत्तराखंड आपदा अचानक आई। पहले दो दिन मीडिया को समझ में नहीं आया कि क्या हो गया। जब हरहराती नदी के किनारे खड़ी इमारतें ताश के पत्तों की तरह गिरती नज़र आईं तो मीडिया महारथियों ने भी अपने साजो-सामान को बाँधा। हालांकि मीडिया ने अपनी सीमा के भीतर हर तरह की बातों को कवर किया, पर उत्तराखंड के निवासियों को इस बात का खेद रहेगा कि जब वे अपने ऊपर आई आपदा को झेलते हुए बाहर से आए तीर्थ यात्रियों का मदद कर रहे थे, मीडिया ने किन्हीं सूत्रों के हवाले से ऐसी खबरें प्रसारित कर दीं कि उत्तराखंड में लूटपाट मची है।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया
अंतरराष्ट्रीय प्रिंट मीडिया के लिहाज से इस साल दो-तीन बड़ी खबरें थीं। इनमें साल के शुरू में पहली खबर थी समाचार साप्ताहिक ‘न्यूज़वीक’ के मुद्रित संस्करण का बंद होना और साल का अंत होते-होते खबर आई कि जनवरी 2014 से इस पत्रिका का मुद्रित संस्करण फिर से शुरू होने वाला है। पिछले दो साल से लड़खड़ाती समाचार पत्रिका ‘न्यूज़वीक’ प्रिंट मीडिया के एडवर्टाइज़िंग रेवेन्यू में लगातार गिरावट की शिकार हो गई थी। हाल के वर्षों में न्यूज़वीक पर सबसे बड़ा संकट 2010 में आया। तब उसे एक दानी किस्म के स्वामी ने खरीद लिया। इसे ख़रीदने वाले 91 साल के सिडनी हरमन थे, जो ऑडियो उपकरणों की कंपनी हरमन इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक थे। सन 2011 में सिडनी हरमन का 92 साल की अवस्था में निधन हो गया। निधन के कुछ दिन पहले ही हरमन ने न्यूज़वीक को डेली बीस्ट में समाहित कर दिया था। डेली बीस्ट की मालिक है बैरी डिलर की कम्पनी आईएसी। उस वक्त न्यूज़वीक का साल भर का खर्च था चार करोड़ डॉलर। इसे देखते हुए डिलर ने साफ कर दिया कि हम अनंत काल तक घाटा उठा नहीं पाएंगे। 31 दिसंबर 2012 से न्यूज़वीक का प्रिंट संस्करण बंद कर दिया गया। पर अगस्त 2013 में आईबीटी मीडिया नाम की कंपनी ने घोषणा की कि उसने आईएसी से न्यूज़वीक को खरीद लिया है। अब यह कंपनी जनवरी या फरवरी 2014 से 64 पेज की न्यूज़वीक का प्रकाशन फिर से शुरू करने वाली है। न्यूज़वीक ही नहीं ‘टाइम’ पर भी संकट के बादल हैं। इसका प्रसार 42 लाख से घटकर 33 लाख पर आ गया है। इसके प्रकाशक टाइम वार्नर आईएनसी ‘टाइम’ को ही नहीं खुद को यानी पूरे प्रकाशन संस्थान को बेचना चाहते हैं।
अंतरराष्ट्रीय खबरों के लिए दुनिया के सबसे मशहूर अखबार इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून का 14 अक्तूबर को आखिरी अंक प्रकाशित हुआ और 15 अक्तूबर 2013 से यह नए नाम इंटरनेशनल न्यूयॉर्क टाइम्स नाम से निकलना शुरू हुआ। यह इस अखबार का पहली बार पुनर्नामकरण नहीं था। न्यूयॉर्क हैरल्ड नाम के अमेरिकी अखबार ने सन 1887 में जब अपना यूरोप संस्करण शुरू किया तो उसका नाम रखा न्यूयॉर्क हैरल्ड ट्रिब्यून, जो बाद में इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून बना। इंटरनेशनल न्यूयॉर्क टाइम्स बनने का मतलब है कि यह अब पूरी तरह न्यूयॉर्क टाइम्स की सम्पत्ति हो गया है। कुछ साल पहले तक यह अखबार वॉशिंगटन पोस्ट के सहयोग से चल रहा था। इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून का एक भारतीय संस्करण हैदराबाद से निकलता था, जिसे डैकन क्रॉनिकल निकालता था। हालांकि भारत से विदेशी प्रकाशन को निकालना सम्भव नहीं है, पर कई प्रकार की जटिल जुगत करके इसे निकाला जा रहा था और इसके सम्पादक एमजे अकबर थे। यह संस्करण बंद हो गया।नेशनल दुनिया में प्रकाशित
दिल्ली में विधानसभा चुनाव की गतिविधियाँ तब शुरू ही हुईं थीं। एक दिन अचानक मोबाइल फोन की घंटी बजी। ‘हेलो मैं अरविंद केजरीवाल बोल रहा हूँ। फोन काटिए मत यह रिकॉर्डेड मैसेज है.....।’ अपनी बात कहने का यह एक नया तरीका था। यह एक शुरुआत थी। इसके बाद इस किस्म के तमाम फोन और एसएमएस आए। ऐसे फोन भी आए, जिनमें अरविंद केजरीवाल या उनकी पार्टी के खिलाफ संदेश था। इसमें दो राय नहीं कि इन चुनावों में ‘न्यू मीडिया’ का जबरदस्त हस्तक्षेप था। ईआरआईएस ज्ञान फाउंडेशन और भारतीय इंटरनेट एवं मोबाइल संघ द्वारा कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2014 में होने वाले अगले आम चुनाव में सोशल मीडिया लोकसभा की 160 सीटों को प्रभावित करेगा। यह बात इन विधानसभा चुनावों में दिखाई भी दी। अध्ययन में कहा गया है कि अगले आम चुनाव में लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 160 अहम सीटों पर सोशल मीडिया का प्रभाव रहने की संभावना है, जिनमें महाराष्ट्र में सबसे हाई इम्पैक्ट वाली 21 सीटें और गुजरात में 17 सीटें शामिल है। आशय उन सीटों से है, जहां पिछले लोकसभा चुनाव में विजयी उम्मीदवार के जीत का अंतर फेसबुक का प्रयोग करने वालों से कम है अथवा जिन सीटों पर फेसबुक का प्रयोग करने वालों की संख्या कुल मतदाताओं की संख्या का 10 प्रतिशत है।
भारत में ट्विटर और फेसबुक अपेक्षाकृत लोकप्रिय है। इस साल अप्रेल के अंत तक फेसबुक में भारत के 8.2 करोड़ से ज्यादा लोग शामिल थे। अमेरिका के बाद दूसरे नम्बर पर फेसबुक प्रयोक्ता भारत से हैं। ट्विटर का इस्तेमाल करने वालों में भारत का छठा स्थान है। गुणवत्ता के लिहाज से ब्लॉगिंग से लेखकों और पाठकों की गुणवत्ता का पता लगता है। हाल के वर्षों में हिन्दी ब्लॉगिंग का विस्तार हुआ है, पर वह संख्या बल को देखते हुए काफी कम है। ज्ञान और विमर्श का यह विस्तार अपने साथ बदलावों की आँधी लेकर आ रहा है। इस आँधी मीडिया का श्रेय मीडिया को जाएगा। सवाल है कि क्या हमारा मीडिया इसके लिए तैयार है? दूसरा सवाल है कि क्या वह इतना जिम्मेदार है? क्या उसकी साख बढ़ रही है? जानकारी की यह बारिश क्या हमारे भ्रम नहीं बढ़ा रही है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब देना तभी संभव होगा, जब विस्तार की आँधी थमेगी। तकनीकी बदलाव के कारण इसकी शक्ल बदलती जा रही है। हम इसके फॉर्म से घबरा गए हैं। इसके कंटेंट पर बात नहीं करते। अंततः यह लोकतांत्रिक गतिविधियों का हिस्सा है और इसके केंद्र में मनुष्य है। इसलिए जो होगा वह ठीक होगा।
मीडिया का विस्तार
भारतीय मीडिया के लिए सन 2013 का साल बेहद रोमांचक, रोचक और कारोबार के लिहाज से उत्साहवर्धक रहा। बावजूद इसके कि देश की अर्थव्यवस्था में गिरावट का माहौल है। इस साल की फिक्की-केपीएमजी रिपोर्ट के अनुसार भारत में मीडिया और मनोरंजन उद्योग 11 से 12 फीसदी की दर से बढ़ेगा। सन 2012 में इस उद्योग ने 821 अरब रुपए का कारोबार किया था, जो इस साल 917 अरब रुपए तक पहुंचने की संभावना है। रिपोर्ट के अनुसार सन 2017 तक यह उद्योग औसतन 10.6 फीसदी की दर से बढ़ेगा। देश के दूसरे उद्योगों के मुकाबले यह गति अच्छी है। इस पूरे कारोबार में सबसे तेज गति से विकास डिजिटल विज्ञापन के क्षेत्र में हो रहा है, जिसकी विकास दर 40 फीसदी से ज्यादा है। अलबत्ता यह कारोबार अभी काफी छोटा है। सन 2012 में डिजिटल विज्ञापन 21.7 अरब रुपए का था, जो इस साल बढ़कर 30 अरब रुपए से ऊपर हो सकता है। पर पूरे कारोबार को देखते हुए अभी यह काफी छोटा है।
इंटरनेट, मोबाइल टेलीफोन और ब्रॉडबैंड के लिहाज से भारत हालांकि अभी काफी पीछे है, पर उसकी गति लगातार बढ़ रही है। मीडिया की गति को देखते हुए कहना मुश्किल है कि दिसंबर 2014 में हम कहाँ होंगे। भारत के दूरसंचार विभाग ने इस साल ब्रॉडबैंड की परिभाषा में 512 केबीपीएस की गति को न्यूनतम माना है। देश की सबसे तेज सेवाएं अब भी 10 एमबीपीएस के आसपास हैं, जबकि हांगकांग में 63.6, जापान में 50, रोमानिया में 47.9 और दक्षिण कोरिया में 44.8 एमबीपीएस है। भारत में औसत गति 1.3 एमबीपीएस है, जिसके आधार पर उसका दुनिया में 114 वाँ स्थान है।
हिंदी का महत्व
अब आपके मोबाइल फोन में हिंदी है। गूगल के कार्याधिकारी अध्यक्ष एरिक श्मिट ने कुछ साल पहले कहा था कि आने वाले पाँच से दस साल के भीतर भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट बाज़ार बन जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ बरसों में इंटरनेट पर जिन तीन भाषाओं का दबदबा होगा वे हैं- हिन्दी, मंडारिन और अंग्रेजी। भारत के संदर्भ में कहें तो आईटी के इस्तेमाल को हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में ढलना चाहिए। क्या ऐसा होगा? हमारे पास संख्या बल है। पर क्या हम अपनी भाषा को अहमियत देते हैं?
अंतरराष्ट्रीय एनालिटिक्स फर्म कॉमस्कोर के अनुसार इस साल के शुरू में भारत में तकरीबन साढ़े सात करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे थे। हालांकि भारत के ट्राई का अनुसार हमारे यहाँ इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की तादाद 31 मार्च 2013 को 17.4 करोड़ थी। कॉमस्कोर की सूचना इसके मुकाबले काफी कम है। इसका कारण है कि वह जानकारी बुनियादी तौर पर पीसी के मार्फत इंटरनेट सर्फिंग की है। भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले आठ में से सात लोग अपने मोबाइल फोन से इंटरनेट सर्फ करते हैं। भारत ने इस साल इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या के मामले में जापान को पीछे छोड़ते हुए चीन और अमेरिका के बाद तीसरा स्थान बना लिया है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत के इंटरनेट उपभोक्ताओं में तीन चौथाई की उम्र 35 साल से कम है। वैश्विक उपभोक्ताओं में तकरीबन आधे इस उम्र के हैं। यानी भारत की इंटरनेट शक्ति को हमें उसकी भावी शक्ल के नजरिए से भी देखना होगा। भारत में मोबाइल फोन धारकों की संख्या इस वक्त 55 करोड़ से ज्यादा है। इनमें से तकरीबन 30 करोड़ ग्रामीण इलाकों में रहते हैं।
गूगल के वैश्विक एरिक श्मिट इस साल मार्च के महीने में भारत आए थे। उनका कहना था कि सन 2020 तक भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 60 करोड़ से ऊपर होगी। इनमें से 30 करोड़ लोग हिन्दी तथा दूसरी भाषाओं में नेट सर्फ करेंगे। भारतीय भाषाओं के लिए गूगल खासतौर से अनुसंधान कर रहा है। गूगल ट्रांस्क्रिप्शन, ट्रांसलेशन तथा इसी प्रकार के काम। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमआई) तथा मार्केटिंग रिसर्च से जुड़ी संस्था आईएमआरबी ने पिछले कुछ साल से भारतीय भाषाओं में नेट सर्फिंग की स्थिति पर डेटा बनाना शुरू किया है। इस साल जनवरी में जारी इनकी रपट के अनुसार भारत में तकरीबन साढ़े चार करोड़ लोग भारतीय भाषाओं में नेट की सैर करते हैं। शहरों में तकरीबन 25 फीसदी और गाँवों में लगभग 64 फीसदी लोग भारतीय भाषाओं में नेट पर जाते हैं।
दिल्ली गैंगरेप
पिछले साल की शुरूआत दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ आंदोलन से हुई थी। कई दिन तक मीडिया पर यह घटना छाई रही। एक माने में नौजवानों और मीडिया ने इस एक मसले को लेकर भारतीय राजनीति को गुणात्मक रूप से बदल कर रख दिया। इसके संकेत कुछ मिल रहे हैं और कुछ आने वाले समय में मिलेंगे। चुनाव में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ने के पीछे अनेक अन्य कारणों के अलावा क कारण यह भी है। एक मीडिया हाउस ने पीड़ित लड़की को काल्पनिक नाम ‘दामिनी’ दिया तो किसी ने ‘निर्भया’। निर्भया नाम अंततः भारत सरकार ने भी स्वीकार किया और 2013-14 के बजट में स्त्रियों की सुरक्षा के लिए 1000 करोड़ रुपए का विशेष कोष बनाया गया, जिसे ‘निर्भया कोष’ का नाम दिया गया।
निर्भया के वास्तविक नाम को लेकर भी विवाद खड़ा हुआ। लंदन के ‘मिरर’ अखबार ने पीड़ित लड़की के पिता की अनुमति से उसका नाम ज़ाहिर कर दिया। दिल्ली पुलिस ने ज़ी न्यूज़ चैनल के खिलाफ एक मामला दर्ज किया, जिसमें आरोप था गैंगरेप के बाबत कुछ ऐसी जानकारियाँ सामने लाई गईं, जिनसे पीड़िता की पहचान ज़हिर होती है। इसके पहले एक अंग्रेजी दैनिक के खिलाफ पिछले हफ्ते ऐसा ही मामला दर्ज किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 228-ए के तहत समाचार पत्र के संपादक, प्रकाशक, मुद्रक, दो संवाददाताओं और संबंधित छायाकारों के खिलाफ मामला दर्ज किया। बलात्कार की शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू दिया था जिसमें उसने उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का विवरण दिया था। उस विवरण पर जाएं तो अनेक सवाल खड़े होते हैं। पर उससे पहले सवाल यह था कि जिस लड़की को लेकर देश के काफी बड़े हिस्से में रोष पैदा हुआ है, उसका नाम उजागर होगा तो क्या वह बदनाम हो जाएगी? उसकी बहादुरी की तारीफ करने के लिए उसका नाम पूरे देश को पता लगना चाहिए या कलंक की छाया से बचाने के लिए उसे गुमनामी में रहने दिया जाए? कुछ लोगों ने उसे अशोक पुरस्कार से सम्मानित करने का सुझाव दिया है। पर यह पुरस्कार किसे दिया जाए? पुरस्कार देना क्या उसकी पहचान बताना नहीं होगा? इसके बाद भारत के कुछ और अखबारों ने उसका नाम छापा। इस पर पुलिस ने कार्रवाई शुरू कर दी। यह सवाल विचार का विषय बना कि जिम्मेदार मीडिया को क्या करना चाहिए। इस बीच उस लड़की के पिता का यह वक्तव्य आया कि मैंने नाम ज़ाहिर करने की बात नहीं कही थी, सिर्फ इतना कहा था कि यदि सरकार उसके नाम पर कानून बनाना चाहती है तो हमें अच्छा लगेगा। बहरहाल मीडिया ने इस मामले में सावधानी बरती और उसके काल्पनिक नाम का प्रकाशन ही हुआ।
जनवरी के महीने में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दो मामले सामने आए। जयपुर लिटरेरी फोरम आशीष नन्दी के वक्तव्य को लेकर काफी समय तक मीडिया मंच गरमाए रहे। यह प्रकरण जिस वक्त उठा उसी समय कमलहासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ पर चर्चा चल रही थी। ‘विश्वरूपम’ हॉलीवुड जैसी एक्शनपैक्ड फिल्म है। यह किसी प्रकार की राजनीतिक-सांस्कृतिक अवधारणा को स्थापित नहीं करती। फिर भी उसका विरोध हुआ जिसमें राज्य सरकार और न्यायपालिका भी शामिल हुईं। इस फिल्म का लंबे समय तक दक्षिण भारत के तीन राज्यों में प्रदर्शन रुका रहा। लगता है कि हमारा सामना बहुमुखी असहिष्णुता से है, जिसमें एक ओर सामंती प्रवृत्तियाँ हैं और दूसरी ओर आधुनिक राज-व्यवस्था और मसाला-मस्ती में डूबी आधुनिकता है। औपचारिक रूप से किताबों पर पाबंदी लगाने वाले देशों की सूची में भारत काफी आगे है। हमारे यहाँ फिल्में सेंसर होती हैं, पर एक बार सेंसर होने के बाद भी उन्हें रोकने वाली ताकतें हमारे देश में मौज़ूद हैं। ऐसे में सरकारों के पास कानून-व्यवस्था बनाए रखने का बहाना होता है। उनकी दिलचस्पी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सहारा देने में नहीं होती। उन्हें उसका महत्व समझ में भी नहीं आता। सन 2011 में प्रकाश झा की फिल्म ‘आरक्षण’ के साथ ऐसा ही हुआ था। उसके पहले फिल्म ‘राजनीति’ को लेकर इसी प्रकार की आपत्तियाँ थीं। दो दशक पहले फिल्म मणिरत्नम की फिल्म ‘बॉम्बे’ के प्रदर्शन के समय भी ऐसा ही विरोध था।
अमर्त्य सेन के अनुसार,अभी मीडिया में दो बड़े ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस की जरूरत है। पहला मुद्दा मीडिया की आंतरिक अनुशासन और दूसरा मीडिया और समाज के बीच संबंध का। वे कहते हैं कि मैं ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ और ‘द हिंदू’ का नाम लेना चाहूंगा, जो अपनी गलत सूचनाओं के बारे में स्पष्टीकरण भी छापते हैं। वे बताते हैं कि तथ्यों के आधार पर फलां खबर सही नहीं थी। ऐसा अन्य अखबारों को भी करना चाहिए। न्यूज़ चैनलों को भी।
स्टूडियो उन्माद
यह एक नया शब्द है। भारतीय मीडिया का सबसे पसंदीदा विषय भारत-पाक तनाव है। इस साल के शुरू से ही मीडिया को इसका मौका मिला और उसने इसका भरपूर लाभ उठाया. जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पिछले साल के अंत से ही तनाव था। जनवरी के पहले हफ्ते में दो भारतीय सैनिकों की गर्दन काटे जाने पर यह तनाव बढ़ गया और टीवी चैनलों का बहस का मुख्य विषय बना रहा। इसके बाद अजमल कसाब और अफजल गुरु की फाँसी ने मीडिया का ध्यान सबसे ज्यादा आकृष्ट किया। लाहौर के कोट लखपत जेल में भारतीय कैदी सरबजीत की हत्या के बाद मीडिया कवरेज ने उन्माद की शक्ल ले ली। अगस्त के पहले सप्ताह में नियंत्रण रेखा पर पाँच भारतीय सैनिकों की हत्या भी मीडिया के विमर्श में रही। जिस तरह भारत-पाकिस्तान का मसला मीडिया को भाता है उसी तरह चीन के साथ तनातनी भी भारतीय मीडिया का महत्वपूर्ण विषय बनती है। इस साल लद्दाख के दौलत बेग ओल्दी इलाके में चीनी सैनिकों की घुसपैठ के दौरान मीडिया का सारा ध्यान इसी बात पर केंद्रित रहा।
हमारे मीडिया का कोई नियम नहीं है कि वह किस विषय पर कितना ध्यान देगा। निर्भर इस बात पर करता है कि किस खबर में सनसनी का कितना तत्व है। क्रिकेट हमारे मीडिया का सबसे प्रिय विषय है, और मैच या स्पॉट फिक्सिंग उससे भी ज्यादा प्रिय। विन्दु दारा सिंह की गिरफ्तारी की खबर ऐसी छाई कि उस दौरान नरेन्द्र मोदी की दिल्ली यात्रा की खबर सामने आ ही नहीं पाई। कोलगेट, टूजी, सीबीआई वगैरह पीछे रह गए हैं। इसी तरह लद्दाख का मसला मीडिया पर छाया रहा, पर जब चीनी प्रधानमंत्री दिल्ली आए तो उसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया। पाकिस्तान का चुनाव एक दिन का रोमांच पैदा कर पाए। मीडिया के मुँह में रोमांच का खून लग गया है। जंगल के शेर की तरह उसे हर रोज़ और हर समय रोमांच से भरा एक शिकार चाहिए।
यह प्रवृत्ति स्थायी नहीं है। ब्रॉडकास्टिंग एडिटर्स एसोसिएशन इस दिशा में ध्यान दे रही है। कम से कम अब शिकायतों की सुनवाई संभव है। दूसरी और ट्राई ने कुछ और मसलों की और ध्यान दिया है। खासतौर से ट्राई ने चैनलों पर विज्ञापनों की समय सीमा का निर्देश जारी किया है। चैनल अभी इस मसले से जुड़े कानूनी रास्तों पर विचार कर रहे हैं। उन्होंने टेलीकॉम डिस्प्यूट्स सैटलमेंट फोरम में अपील की है, जिसे फोरम ने अस्वीकार कर दिया है। अब संभवतः वे हाईकोर्ट जाएंगे। मीडिया की स्वतंत्रता और उसकी जिम्मेदारी दोनों की परीक्षा जमीन पर होती है।
राहुल बनाम मोदी
मीडिया के लिहाज से यह साल राहुल बनाम मोदी के नाम रहा। अप्रैल के पहले सप्ताह में सीआईआई की सभा में राहुल गांधी का भाषण और फिर चार दिन बाद फिक्की की महिला शाखा की सभा में नरेंद्र मोदी का भाषण इस साल मीडिया के राजनीतिक एजेंडा को सेट कर गए हैं जो लगता है अगले लोक सभा चुनाव तक चलेगा। इस साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के जवाब में नरेंद्र मोदी का भाषण एक प्रकार से मीडिया ईवेंट ही था। लाइव मीडिया की उपस्थिति ने इस घटना को सनसनीखेज बना दिया। इसके बाद भाजपा की कर्नाटक में पराजय, गोवा में बैठक और नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ाने का फैसला, आडवाणी जी का रूठना और फिर मान जाना बड़े मीडिया ईवेंट साबित हुए।
जून के महीने में उत्तराखंड आपदा अचानक आई। पहले दो दिन मीडिया को समझ में नहीं आया कि क्या हो गया। जब हरहराती नदी के किनारे खड़ी इमारतें ताश के पत्तों की तरह गिरती नज़र आईं तो मीडिया महारथियों ने भी अपने साजो-सामान को बाँधा। हालांकि मीडिया ने अपनी सीमा के भीतर हर तरह की बातों को कवर किया, पर उत्तराखंड के निवासियों को इस बात का खेद रहेगा कि जब वे अपने ऊपर आई आपदा को झेलते हुए बाहर से आए तीर्थ यात्रियों का मदद कर रहे थे, मीडिया ने किन्हीं सूत्रों के हवाले से ऐसी खबरें प्रसारित कर दीं कि उत्तराखंड में लूटपाट मची है।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया
अंतरराष्ट्रीय प्रिंट मीडिया के लिहाज से इस साल दो-तीन बड़ी खबरें थीं। इनमें साल के शुरू में पहली खबर थी समाचार साप्ताहिक ‘न्यूज़वीक’ के मुद्रित संस्करण का बंद होना और साल का अंत होते-होते खबर आई कि जनवरी 2014 से इस पत्रिका का मुद्रित संस्करण फिर से शुरू होने वाला है। पिछले दो साल से लड़खड़ाती समाचार पत्रिका ‘न्यूज़वीक’ प्रिंट मीडिया के एडवर्टाइज़िंग रेवेन्यू में लगातार गिरावट की शिकार हो गई थी। हाल के वर्षों में न्यूज़वीक पर सबसे बड़ा संकट 2010 में आया। तब उसे एक दानी किस्म के स्वामी ने खरीद लिया। इसे ख़रीदने वाले 91 साल के सिडनी हरमन थे, जो ऑडियो उपकरणों की कंपनी हरमन इंडस्ट्रीज़ के संस्थापक थे। सन 2011 में सिडनी हरमन का 92 साल की अवस्था में निधन हो गया। निधन के कुछ दिन पहले ही हरमन ने न्यूज़वीक को डेली बीस्ट में समाहित कर दिया था। डेली बीस्ट की मालिक है बैरी डिलर की कम्पनी आईएसी। उस वक्त न्यूज़वीक का साल भर का खर्च था चार करोड़ डॉलर। इसे देखते हुए डिलर ने साफ कर दिया कि हम अनंत काल तक घाटा उठा नहीं पाएंगे। 31 दिसंबर 2012 से न्यूज़वीक का प्रिंट संस्करण बंद कर दिया गया। पर अगस्त 2013 में आईबीटी मीडिया नाम की कंपनी ने घोषणा की कि उसने आईएसी से न्यूज़वीक को खरीद लिया है। अब यह कंपनी जनवरी या फरवरी 2014 से 64 पेज की न्यूज़वीक का प्रकाशन फिर से शुरू करने वाली है। न्यूज़वीक ही नहीं ‘टाइम’ पर भी संकट के बादल हैं। इसका प्रसार 42 लाख से घटकर 33 लाख पर आ गया है। इसके प्रकाशक टाइम वार्नर आईएनसी ‘टाइम’ को ही नहीं खुद को यानी पूरे प्रकाशन संस्थान को बेचना चाहते हैं।
अंतरराष्ट्रीय खबरों के लिए दुनिया के सबसे मशहूर अखबार इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून का 14 अक्तूबर को आखिरी अंक प्रकाशित हुआ और 15 अक्तूबर 2013 से यह नए नाम इंटरनेशनल न्यूयॉर्क टाइम्स नाम से निकलना शुरू हुआ। यह इस अखबार का पहली बार पुनर्नामकरण नहीं था। न्यूयॉर्क हैरल्ड नाम के अमेरिकी अखबार ने सन 1887 में जब अपना यूरोप संस्करण शुरू किया तो उसका नाम रखा न्यूयॉर्क हैरल्ड ट्रिब्यून, जो बाद में इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून बना। इंटरनेशनल न्यूयॉर्क टाइम्स बनने का मतलब है कि यह अब पूरी तरह न्यूयॉर्क टाइम्स की सम्पत्ति हो गया है। कुछ साल पहले तक यह अखबार वॉशिंगटन पोस्ट के सहयोग से चल रहा था। इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून का एक भारतीय संस्करण हैदराबाद से निकलता था, जिसे डैकन क्रॉनिकल निकालता था। हालांकि भारत से विदेशी प्रकाशन को निकालना सम्भव नहीं है, पर कई प्रकार की जटिल जुगत करके इसे निकाला जा रहा था और इसके सम्पादक एमजे अकबर थे। यह संस्करण बंद हो गया।नेशनल दुनिया में प्रकाशित
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