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Saturday, December 14, 2013

राजनीति के ढलते-उगते सूरज

पिछले साल उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में भारी सफलता पाने के बाद मुलायम सिंह का अनुमान था कि लोकसभा चुनाव समय से पहले होंगे। उस अनुमान में उनकी राजनीति भी छिपी थी। उन्हें लगता था कि आने वाला वक्त लोकसभा में उनकी पार्टी को स्थापित करेगा। इसी उम्मीद में उन्होंने खुद को केंद्रीय राजनीति के साथ जोड़ा। ऐसा अनुमान ममता बनर्जी और जयललिता का भी था। छह महीने पहले तक लगता था कि केंद्र सरकार 2013 के विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव भी कराएगी। ऐसा नहीं हुआ तो सरकार के लिए दिक्कत पैदा होंगी। दीवार पर लिखा था कि उत्तर भारत की विधान सभाएं कांग्रेस के लिए अच्छा संदेश लेकर नहीं आने वाली हैं। झटका लगा तो फिर रिपल इफैक्ट रुकेगा नहीं।  शायद कांग्रेस अपने गेम चेंजर का असर देखने के लिए कुछ समय चाहती थी।

राजनीतिक अनुमान सट्टे की तरह होते हैं। लग गए तो पौबारह। सन 2007 में मुलायम सिंह को नहीं लगता था कि उनकी भारी हार होने वाली है। इसी तरह 2012 में मायावती को इसका अंदेशा नहीं था। उन्होंने उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े करने वाले प्रस्ताव पर दाँव खेल दिया था, जबकि वह कोई मसला ही नहीं था। सन 1977 में इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी खुद हटाई और खुद चुनाव कराए। इस उम्मीद के साथ कि इस सदाशयता को जनता पसंद करेगी। सन 2004 में भाजपा के नेतृत्व ने शानदार सफलता की उम्मीद में वक्त से छह महीने पहले चुनाव करा लिए। बहरहाल अब चार राज्यों के विधान सभा चुनावों ने जो सूरते हाल पैदा किया है वह यह कि दिल्ली की कांग्रेस सरकार अब लेम-डक है। निवृत्तमान चौकीदार जिसे नए आने वाले का इंतज़ार है।

केंद्र सरकार की ओर से बुधवार को कमल नाथ ने साफ किया कि लोकसभा चुनाव अपने समय के अनुसार मई में ही होंगे। पर यह अंदेशा निराधार नहीं है कि संसद का यह सत्र समय से पहले स्थगित कर दिया जाए। यह सत्र 20 दिसंबर तक चलना है। तेलंगाना को लेकर अपनी ही पार्टी के सांसदों ने अविश्वास प्रस्ताव पेश करके सरकार को परेशान कर दिया है। भाजपा संकेत दे रही है कि टू-जी घोटाले की जेपीसी रिपोर्ट को लेकर वह लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला सकती है। इस लोकसभा का समय जब पूरा होने वाला है तब सरकार या स्पीकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्तावों का मतलब क्या हो सकता है?

अन्ना हजारे का अनशन शुरू होने के बाद से जन लोकपाल कानून अचानक महत्वपूर्ण विषय बनकर सामने आने वाला है। इसके अलावा ऑगस्टा-वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर डील के बारे में ताज़ा जानकारियाँ सरकार को परेशान करने वाली हैं। विधान सभा चुनाव के सदमे में डूबती-उतराती कांग्रेस अचानक एक नए भँवर में फँस गई है। पिछले तीन-चार साल के अप्रिय प्रसंगों की फिल्म अचानक संसद के इस सत्र में चलने का अंदेशा पैदा हो गया है। भाजपा चाहती थी कि टू-जी घोटाले की जेपीसी रिपोर्ट पर लोकसभा में बहस हो। अध्यक्ष मीरा कुमार ने इस मुद्दे पर किसी भी तरह की बहस की अनुमति नहीं दी। इस बात का विरोध केवल भाजपा ने नहीं किया, बल्कि डीएमके, लेफ्ट, तृणमूल, बीजेडी और अकाली दल भी नाराज़ हैं। इस वक्त सभी बहती गंगा में हाथ धोना चाहेंगे।

अपने काम-काज के अंतिम छोर पर आ चुकी कांग्रेस सरकार को दूर से आते तूफान की आवाज़ सुनाई पड़ रही होगी। उसका रथ अलोकप्रियता के गहरे ढलान में उतर गया है। अब उसे लगता है कि लुढ़कते पत्थरों की गति बढ़े इसके पहले ही चुनाव करा लेने चाहिए। यूपीए की सारी योजनाएं अस्त-व्यस्त हैं। डैमेज को कम से कम करने के रास्ते खोजे जा रहे हैं। एक विचार है कि जनवरी के महीने में अगले वित्तीय वर्ष के लिए अनुदान माँगों को पास कराकर मार्च-अप्रैल में चुनाव करा लिए जाएं। चलते-चलाते सरकार राजनीतिक और आर्थिक सुधार के विधेयकों को भी पास कराना चाहेगी।  इनमें जन लोकपाल और सिटिजन चार्टर विधेयक शामिल हैं। राजनीतिक नजरिए से अनुसूचित जाति-जन जाति के सरकारी कर्मचारियों की प्रोन्नति से जुड़ा विधेयक महत्वपूर्ण है और आर्थिक दृष्टि से डायरेक्ट टैक्स कोड का विधेयक। नाभिकीय सुरक्षा विनियमन और भारत-बांग्लादेश सीमा समझौते से जुड़ा विधेयक भी पास होना चाहिए। इस वक्त महत्वपूर्ण संसदीय कार्यों के लिए सरकार को भाजपा के सहयोग की ज़रूरत है जो बदले में संसद का समय चाहेगी, ताकि वह सरकार की अच्छी तरह धुलाई कर सके।

सन 1991 में बनी कांग्रेस की पीवी नरसिंहराव सरकार 1996 तक अल्पमत में रही। उसे कांग्रेस की सफलतम सरकार माना जा सकता है, क्योंकि उसने सबसे मुश्किल दौर में काम किया। आर्थिक उदारीकरण का सबसे अलोकप्रिय काम उस दौर में हुआ। बाबरी मस्जिद मसले का सामना, टेलीकम्युनिकेशन क्रांति का सूत्रपात, विश्व व्यापार संगठन में भागीदारी, सोवियत विघटन के बाद शीत-युद्धोत्तर विश्व राजनीति में नई भूमिका, अमेरिका से रिश्तों में बदलाव वगैरह। उस चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा में 232 सीटें मिलीं थीं। राजीव-हत्या के बाद पैदा हुई हमदर्दी के बावजूद। सन 2009 के चुनाव ने 206 सीटें देकर पार्टी में जान डाल दी। उत्तर प्रदेश में उसका पुनर्जीवन हो रहा था। पर कांग्रेस सरकार का यह दौर सबसे निराशाजनक साबित हुआ। सफलता की बेस लाइन ऊँची हो तो उसके नीचे जाना विफलता मानी जाती है। पर अंदेशा है कि कांग्रेस की सीटें आधी हो जाएंगी। यह सामान्य विफलता नहीं होगी।


केवल चुनाव के नजरिए से देखें तो कांग्रेस अपने जीवन के न्यूनतम स्तर को छूने वाली है। कर्नाटक के अलावा कोई ऐसा राज्य नहीं जहाँ सुधार की गुंजाइश हो। उसके अपने राज्यों आंध्र प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तराखंड और हिमाचल से भी अच्छी खबर नहीं है। सूरज अस्ताचल में जा रहा है। अगले तीन-चार महीने नई राजनीति के नाम हैं। इसका मतलब अनिवार्य रूप से आप नहीं है, बल्कि वह संभावना है जो आप के नाम से दिल्ली में दिखाई दी। नई गटर राजनीति के लिए भी तैयार रहें। सफाई ने पर कूड़ा भी दिखाई देता है। कोई सूरज डूबता है तो कोई उगता भी है।

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